यादवों का इतिहास "द्वितीय भाग" ( नवीन संस्करण)
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वैदिक साहित्य में असुरों के विशाल तथा दृढ़ दुर्गों एव प्रासादों ( भवनों)के वर्णन मिलते हैं ।
संभवतः लवण-पिता मधु या उनके किसी पूर्वज ने यमुना के तटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया हो ;
यह अधिकार लवण के समय से समाप्त हो गया ; मधुवन और मधुपुरी के निवासियों या लवण के अनुयायिओं को शत्रुघ्न ने समाप्त कर दिया होगा ।
सम्भवत: उन्होंने मधुपुरी को नष्ट नहीं किया । उन्होंने जंगल को साफ़ करवाया तथा प्राचीन मधुपुरी को एक नये ढंग से आबाद कर उसे सुशोभित किया ।
(प्राचीन पौराणिक उल्लेखों तथा रामायण के वर्णन से यही प्रकट होता है ) रामायण में देवों से वर माँगते हुए शत्रुघ्न कहते हैं-
`हे देवतागण, मुझे वर दें कि यह सुन्दर मधुपुरी या मथुरा नगरी, जो ऐसी सुशोभित है मानों देवताओं ने स्वयं बनाई हो, शीघ्र बस जाय `
देवताओं ने `एवमस्तु` कहा और मथुरा नगरी बस गई
यद्यपि ये उपर्युक्त कथाऐं काल्पनिक उड़ाने अधिक हैं ।
परन्तु इन व्यक्तित्वों के उपस्थिति होने के सूचक भी हैं
दास, असुर अथवा शूद्र परस्पर पर्याय वाची हैं ।
अहीर प्रमुखतः एक हिन्दू भारतीय जाति समूह है । परन्तु कुछ अहीर मुसलमान भी हैं ।
पश्चिमीय पाकिस्तान के सिन्धु प्रान्त में ये बहुतायत रूप में मुसलमान हैं ।
. और बौद्ध तथा कुछ सिक्ख भी हैं ,और ईसाई भी ।
अहीर एशिया की सबसे बड़ी जन-जाति है ।
भारतीय इतिहास में गौश्चर अथवा गुज्जर भी अहीरों की एक इतर शाखा है ।
भारत में अहीरों को यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है, तथा अहीर व यादव या ऑफिर आधुनिक हरियाणा (आभीरायण) में राव साहब ये सब के सब यादवों के ही विशेषण हैं।
हरियाणा में राव शब्द यादवों का विशेषण है।
भारत में दो हजार एक की जन गणना के अनुसार यादव लगभग २०० मिलियन अर्थात् २० करोड़ से अथिक हैं और भारत में यादवों के पाँच सौ बहत्तर से अधिक गोत्र भी हैं ।
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” यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय Genesis 49: 24 पर --- अहीर (अबीर )शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है।👇
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" The name Abir is one of The titles of the living god for some reason it,s usually translated (for some reason all god,s in Isaiah 1:24 we find four names of The lord in rapid succession as Isaiah Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir --Israel declares...Abir (अभीर )---The name reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this name whith Mighty One , it is probably best translated whith Protector
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यह नाम अबीर किसी जीवित देवता के शीर्षक में से किसी एक कारण से है।
जिसे आमतौर पर अनुवाद किया गया है। (यशायाह 1:24 में किसी भी कारण से सभी ईश्वर यशायाह के रूप में बहुतायत से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम मिलते हैं) "इसलिए
1- अदोन - 2-YHWH यह्व : 3-सबोथ और 4-अबीर -इजराइल की घोषणा अबीर (अबर) नाम ताकत से अधिक सुरक्षा को दर्शाता है।
यद्यपि एक स्पष्ट रूप से मजबूत होना जरूरी है।
यद्यपि अभी भी सभी आधुनिक अनुवादक सार्वभौमिक रूप से इस नाम का अनुवाद करते हैं।
शक्तिशाली (ताकतवर)यह शायद सबसे अच्छा अनुवाद किया है। --रक्षक । 👇
हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :-
(१)-अबीर
(२)--अदॉन
(३)--सबॉथ
(४)--याह्व्ह् तथा
(५)--(इलॉही)बाइबल> सशक्त> हिब्रू> 46 ◄ 46. अबीर ► सशक्त कमान अबीर: मजबूत मूल शब्द: אֲבִיר भाषण का भाग: विशेषण 'पौरुष ' लिप्यान्तरण: अबीर ध्वन्यात्मक :-वर्तनी: (अ-बियर ') लघु परिभाषा: एक संपूर्ण संक्षिप्तता शब्द उत्पत्ति:- अबार के समान ही परिभाषा बलवान अनुवाद शक्तिशाली एक (6) [אבִיר विशेषण रूप मजबूत; हमेशा = सशक्त भगवान के लिए पुराने नाम (कविता में प्रयुक्त अबीर);
के निर्माण में उत्पत्ति खण्ड(Genesis) 49:24 और उसके बाद से भजन संहिता (132: 2; भजन
132: 5; यशायाह (49:26; )यशायाह 60:16; יִשְׂרָאֵל 'या यशायाह 1:24
(सीए के महत्वपूर्ण टिप्पणी की तुलना करें) -
51 इस निर्माण को बैंक के लिए निर्दिष्ट करता है। सशक्त की संपूर्णता पराक्रमी 'Abar से; शक्तिशाली (भगवान की बात की) -
शक्तिशाली (एक) हिब्रू भाषा में 'अबीर रूप रूप और लिप्यंतरण אֲבִ֖יר אֲבִ֣יר אֲבִ֥יר אביר לַאֲבִ֥יר לאביר 'ר ·יי' רḇייר एक वैर ला'एरीर ला · 'ḇ ḇîr laaVir 'Ă ḇîr - 4 ओक ला '' ırîr - 2 प्रा उत्पत्ति खण्ड बाइबिल:-- (49:24) יָדָ֑יו מִידֵי֙ אֲבִ֣יר יַעֲקֹ֔ב מִשָּׁ֥ם: याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति के हाथों से : याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] (अबीर )के हाथों से; : हाथ याकूब के पराक्रमी हाथ वहाँ भजन 132: 2 और याकूब के पराक्रमी को याकूब के पराक्रमी [ईश्वर] को वचन दिया;
भगवान के लिए और याकूब के शक्तिशाली करने के लिए कसम खाई भजन 132: 5 : लेट्वाः लिबियूः יהו֑֑֑ מִ֝שְּנ֗וֹת לַאֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: याकूब के पराक्रमी एक के लिए एक आवास स्थान केजेवी: याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] के लिए एक निवासस्थान :
भगवान एक याकूब की ताकतवर(अबीर) निवास यशायाह 1:24 : יְהוָ֣ה צְבָא֔וֹת אֲבִ֖יר יִשְׂרָאֵ֑ל ה֚וֹי : मेजबान के, इज़राइल के पराक्रमी, केजेवी: सेनाओं के, इस्राएल के पराक्रमी, : सेनाओं के सर्वशक्तिमान इस्राएल के शक्तिशाली अहा यशायाह 49:26 : מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: : और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति : और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति।
: अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ यशायाह 60:16 : מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति : और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति।
अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ। हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल-- ( एल का सामना करने वाला )को अबीर का विशेषण दिया था ।
इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।
जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है । ययाति यम का भी विशेषण है ।
भारतीय पुराणों में विशेषतः महाभारत तथा श्रीमद्भागवत् पुराण में वसुदेव और नन्द दौनों को परस्पर सजातीय वृष्णि वंशी यादव बताया है ।
यादवों का सम्बन्ध पणियों ( Phoenician) सेमेटिक जन-जाति से भी है ।
इनकी भाषा यहूदीयों तथा असीरियन लोगों के समान ही है ।
भारतीय इतिहास कारों ने इन्हें वणिक अथवा वणिक कहा है ;
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पणि कौन थे?
संक्षेप में इस तथ्य पर भी विश्लेषण हो जाय ।
राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता।
इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग ने भी किया है।
लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है।
ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे।
दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है।
किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों को धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है।
ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं।
फिर आर्य शब्द को जन-जाति गत लबादा पहनाने की मूर्खता पूर्ण मनोवृत्ति है ।
हमने प्रतिपादित किया कि आर्य जन-जाति सूचक शब्द नहीं है । यह केवल यौद्धा का वाचक है ।
हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है। जिसका सम्बन्ध दाहा (दास) लोगों से था।
फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए।
मिश्र में रहने वाले ईसाई कॉप्ट (Copt )यहूदीयों की ही शाखा से सम्बद्ध हैं । 👇
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Copts are one of the oldest Christian communities in the Middle East.
Although integrated in the larger Egyptian nation, the Copts have survived as a distinct religious community forming today between 10 and 20 percent of the native population. They pride themselves on the apostolicity of the Egyptian Church whose founder was the first in an unbroken chain of patriots
कॉप्ट (Copt) मध्य पूर्व में सबसे पुराना ईसाई समुदायों में से एक है |
यद्यपि बड़े मिस्र के राष्ट्र में एकीकृत, कॉप्ट्स आज एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में बचे हैं, जो आज की जनसंख्या के 10 से 20 प्रतिशत के बीच हैं।
वे खुद को मिस्र के चर्च की धर्मोपयो गीता पर गर्व करते थे । जिनके संस्थापक देशभक्तों की एक अटूट श्रृंखला में सबसे पहले थे जो भारतीय इतिहास में गुप्त अथवा गुप्ता के रूप में देवमीढ़ के दो रानीयाँ मादिष्या तथा वैश्यवर्णा नाम की थी ;मादिषा के शूरसेन और वैश्यवर्णा के पर्जन्य हुए ।
शूरसेन के वसुदेव तथा पर्जन्य के नन्द हुए नन्द नौ भाई थे । धरानन्द ,ध्रुवनन्द ,उपनन्द ,अभिनन्द सुनन्द कर्मानन्द धर्मानन्द नन्द तथा वल्लभ ;हरिवंश पुराण में वसुदेव को भी गोप कहकर सम्बोधित किया है।
गोप का अर्थ आभीर होता है ।👇
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“आभीरवामनयनाहृतमानसाय दत्तं मनो यदुपते ! तदिदं गृहाण” उद्भटः स च सङ्कीर्ण्ण वर्ण्णः।
यहाँ आभीर और यदुपति परस्पर पर्याय वाची हैं ।
और आपको हम यह भी बता दे कि भारत की प्राय: सभी शूद्र तथा पिछड़े तबके (वर्ग-) की जन-जातियाँ यदु की सन्ताने हैं ।
जिनमें जादव जो शिवाजी महाराज के वंशज महारों का एक कब़ीलाई विशेषण है।
सन् १९२२ में इसी मराठी जादव( जाधव) शब्द से पञ्जाबी प्रभाव से जाटव शब्द का विकास हुआ। यादवों की शाखा जाट ,गुर्जर ,(गौश्चर) गो चराने वाला होने से तथा लगभग ५७२ गोत्र यादवों के हैं ।
शिक्षा से ये लोग वञ्चित किए गये इस कारण इनमें संस्कार हीनता तथा अाराधिक प्रवृत्तियों का भी विकास हुआ ; ब्राह्मण जानते हैं कि ज्ञान ही संसार की सबसे बड़ी शक्ति है ;
यदि ये ज्ञान सम्पन्न हो गये तो हमारी गुलामी कौन करेगा ?
अतः ब्राह्मणों ने "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" वेद वाक्य के रूप में विधान पारित कर दिया ;
यादवों का एक विशेषण है घोष -👇
आयो घोष बड़ो व्यापारी लादि खेप
गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी ||
फाटक दैकर हाटक मांगत,
भोरै निपट सुधारी धुर ही तें खोटो खायो है,
लए फिरत सिर भारी ||
इनके कहे कौन डहकावै ,ऐसी कौन
अजानी अपनों दूध छाँड़ि को पीवै,
खार कूप को पानी ||
ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ |
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ ||
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वह गोपियाँ उद्धव नामक घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं ।
घोष शब्द यद्यपि गौश्च: अथवा गौष का परवर्ती तद्भव रूप है परन्तु इसे भी संस्कृत में मान्य कर दिया गया ।
और इसकी घुष् धातु से व्युत्पत्ति कर दी गयी ।👇🛄🛃🛂🚾
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घोषम्, क्ली, (घोषति शब्दायते इति ।
घुष विशब्दने अच् ) कांस्यम् । इति राजनिर्घण्टः ॥
घोषः, पुं, (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् ।
घुषिर् विशब्दने “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१। इति घञ् )
आभीरपल्ली (अहीरों का गाँव)
अर्थात् जहाँ गायें रम्हाती या आवाज करती हैं 'वह स्थान घोष है ।
वस्तुत यह काल्पनिक व्युत्पत्ति मात्र है ।
(यथा, रघुः । १ । ४५ ।
“हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ”
द्वितीय व्युत्पत्ति गोप अथवा आभीर के रूप में है 👇
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घोषति शब्दायते इति । घुष् कर्त्तरि अच् ।)
गोपालः । (घुष् भावे घञ् ) ध्वनिः ।
(यथा, मनुः । ७ । २२५ । “तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः ॥”) घोषकलता कांस्यम् । मेघशब्दः । इति मेदिनी । । ११ ॥ मशकः । इति त्रिकाण्ड- शेषः ॥ (वर्णोच्चारणवाह्यप्रयत्नविशेषः ।
यदुक्तं शिक्षायाम् । २० । “संवृतं मात्रिकं ज्ञेयं विवृतं तु द्बिमात्रिकम् ।
घोषा वा संवृताः सर्व्वे अघोषा विवृताः स्मृताः ॥”) कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।
(यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुज
महाकृती )
अमरकोशः व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं संज्ञा स्त्री०[संघोष कुमारी] गोपबालिका । गोपिका ।
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उदाहरण —प्रात समै हरि को जस गावत
उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आभीरी] १. अहीर । ग्वाल ।
गोप — आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे । (राम चरित मानस । ७ । १३० )
तुलसी दास ने अहीरों का वर्णन भी विरोधाभासी रूप में किया है ।
यह तथ्य हमने प्रथम भाग में उद्धृत किया
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कभी अहीरों को निर्मल मन बताते हैं तो कभी अघ ( पाप )रूप देखें -
"नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा ।
निर्मल मन अहीर निज दासा-
(राम चरित मानस, ७ ।११७ )
विशेष—इतिहासकारों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध यादव जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी। इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है ।
कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा ।
वे आगे चलकर देव संस्कृति के अनुयायीयों में घुलमिल गए ।
इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी ।
—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव । ग्वालों की बस्ती । २. एक देश का नाम ।
आभीर] [स्त्री० अहीरिन] एक जाति जिसका काम गाय भैंस रखना और दूध बेचना है । ग्वाला ।
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रसखान ने अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 👇
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या लकुटी अरु कामरिया पर,
राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख,
नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों,
ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम,
करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस,
सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,
अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,
पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,
छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।👇
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ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
अर्थात् उस वृदावन में सभी गौएें गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
(उद्धृत अंश)👇
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय।
भागवतपुराण में भी कुछ परस्पर विरोधाभासी तथ्यों का विवरण होने से यह प्रक्षिप्त या असत्य है ।👇
भागवतपुराणकार की बाते इस आधार पर भी संगत नहीं हैं ।
यहाँ देखिए --
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"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।
(श्रीमद्भागवत पुराण)
(दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय )
देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए !
"क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
यद्यपि उग्रसेन भी स्वयं यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य तो सह बात उनपर भी लागू होनी चाहिए अत: यह श्लोक असंगत व प्रक्षिप्त ही है।
वंश-गोत्रयदुवंशीय (कुकुरवंशी) यादव
इनके पिता राजा आहुक
और माताकाश्या
भाई देवक ,
शासन-राज्यमथुरा
अन्य विवरणजब जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण किया था तब उग्रसेन उत्तरीय प्रवेश द्वार की रक्षा करते थे।
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उग्र सेना रखने वाले उग्रसेन भी आहुक नामक यादव के पुत्र थे "उग्रा सेना यस्य स उग्रसेन:"
मथुरादेशस्य राजविशेषः स च आहुकपुत्रः । कंसराजपिता च ।
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यदुवंश्ये क्षत्रिय भेदे स च वसुदेव एव ।
“केशवोऽषि मुदा युक्तः प्रविवेश पुरोत्तमम् ।
पूज्यमानो यदुश्रेष्ठैरुग्रसेनमुखैस्तथा ।
आहुकं पितरं वृद्धं मातरंच यशस्विनीम् ।
अभिवाद्य बलञ्चैव स्थितः कमललोचनः” इति भा० सभा० २ अ० ।
अत्र केशवपितृत्वेन कीर्त्तनात् वसुदेवस्य नामान्तरत्वं तस्य प्रतीयते “एवं आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतांवरौ” हरिवंश पुराण ३८ अ० ।
यह कहना कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है ।
भागवतपुराण कार ने इसी पूर्व तथ्यों को यहाँं पुष्टि करने की चेष्टा की है ।
परन्तु 'वह भूल गया की उग्रसेन भी यदुवंश के होने से राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते थे ।
अतः यह सम्पूर्ण दशम स्कन्ध प्रक्षिप्त है ।👇
एक बात और कि यादवों का परम्परागत व्यवसाय गोपालन है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।
इतना कुुछ शास्त्रीय प्रमाण होने को बावजूद भी रूढ़ि वादी लोग चिल्ला चिल्ला कर कहते रहते हैं कि अहीरों को बुद्धि 12 बजे आती है इतना ही नहीं अहीरों के सीधेपन को मूर्खता औल सहन शीलता को कमजोरी समझ कर इनका उपहास उड़ाने वाले भी समाज में चौराहे चौराहे पर खड़े मिल- जाते हैं।
नि:सन्देह जिस यदु वंश में गायत्री सदृश्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी का जन्म नरेन्द्र सेन अहीर के घर में हुआ हो । और उन्हीं अहीरों के समाज में कृष्ण का जन्म हुआ हो फिर अहीरों को मूर्खों की उपधियाँ क्यों दी गयी ? क्या यह किसी जन-जाति को हीन सिद्ध करने के लिए षड्यन्त्र नहीं था ?
अहीरों को पृथ्वी पर ईश्वरीय शक्तियाँ का रूप माना गया है । समस्त ब्राह्मणों की साधनाऐं गायत्री के द्वारा सिद्ध होने वाली हैं और वह गायत्री नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या है ।👇
भागवत पुराण :--१०/१/२२ में स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है । और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
उपर्युक्त श्लोकों में पहले आभीर शब्द है फिर गोप शब्द एक ही कन्या गायत्री के वर्णन में । 👇
" आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम् अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ४० एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ५४ आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्हर्षिता: श्रीवह्निपुराणे (अग्नि पुराणे )
ना नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः)
अब ये बाते कोई ब्राह्मण कथा-वाचक कभी भी अपने उदबोधनों में नहीं देता है ।
ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है । क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं । हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप रूप में उद्धृत करता है ।
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कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है ।
ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि
" नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप :
अर्थात् नन्द क्षत्रिय गोपलन करने ही गोप कहलाते हैं । ( इति ब्रह्म पुराण)
और भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है।
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वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् । पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47।
भा०10/5/20/22 यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है।
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ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63।
ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।
संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ
" नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है । 👇
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु । पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।
प्रसिद्ध पर्जन्य गोप के प्रणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि "
जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक:।68।
अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक सहित थे ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अध्याय 13,38,39, में
सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर:
पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा:।94।
जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ;
तब गर्ग ने कहा कि नन्द जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो;
यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो!
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विचार-विश्लेषण -- यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय-पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़---उ०प्र० सम्पर्क 8077160219..
परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित करता है ।
परन्तु स्वयं वही पूर्व वर्ती संस्कृत -ग्रन्थों में गोपों को परम यौद्धा अथवा वीर के रूप में वर्णन किया है ।
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर वर्णित है👇
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अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102। __________________________________________
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण है ।
जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही रहे जाते हैं ।
जो गोप अर्थात् आभीर यादवों के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप -तापों से मुक्त हो जाता है ।।102।
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायीयों ने भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी सम्बोधन देते हैं।
इसी सम्प्रदाय ने उन्हें कृष्ण जी को ठाकुर और कृष्ण के मन्दिर को हवेली का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए कभी नहीं हुआ है।
भ्रान्ति वश बेवजह राजपूत समुदाय के लोग कृष्ण को ठाकुर बिरादरी से सम्बद्ध कर रहे हैं ।
ठाकुर शब्द भी मूलतः तुर्की आरमेेनियन तथा फारसी भाषाओं में है ।
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः ।।
~ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः १ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १० श्लोक ११०
क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होवे उसे राजपूत कहते हैं।
मिश्रित अर्थात् दोगली जाति की स्त्री ।
एक जाति ।
विशेष—ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण वैश्य और शूद्रा से उत्पन्न है और लिखने का काम करते थे । तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
●वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
अत: राजपूत शब्द क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
ठाकुर शब्द का विकास हुआ
तुर्की तक्वुर शब्द से बारहवीं सदी में !
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हिन्दी भाषा के मध्य-काल में ठाकुर एक सम्मान सूचक उपाधि रही है ।
और जन-जाति गत रूप में परम्परागतगत रूप में राजपूतों का विशेषण है।
क्यों कि अंग्रेज़ी रियासत में ये अंग्रेजों ने जमींदारों के रूप में जनसाधारण से लगान (भूमिकर) बसूलते थे।
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तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदित हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे
ठक्कुर के रूप में लिखा गया है।
कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे।
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलता थी।
और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में उल्लेख करते हैं।
कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे "
उसमान खलीफ का समय (644 - 656 ) ई०सन् के समकक्ष रहा है ।
भारत में यह शब्द लगभग बारहवीं सदी में आया ।
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उस्मान को शिया लोग ख़लीफा नहीं मानते थे।
यह सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान (644-656 राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप में निर्वाचित किया गया था।
उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा.
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ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति
में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में प्रचलित था
पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है।
इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।
और यही कबीले पख़्तून हैं।
ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है ।
इसी तरह तीसरे खंड का 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है।
भारत में हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो।
इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे।
तथा इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ;
तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है।
राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय
ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।
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कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।
जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ;
और अपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप "
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी - धार्मिक व्यवस्थाऐं कायम की
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बारहवीं सदी में "चंद्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं "
जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं
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सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी ।
संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है,
जो भगवान कृष्ण के सन्दर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
ये संस्कृत भाषा में प्राप्त जो ठक्कुर शब्द है वह निश्चित रूप से मध्य कालीन विवरण हैं ।
अनन्त-संहिता बाद की है ;
इसमें विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को भी ठाकुर कह दिया हैं और उनके मन्दिर को हवेली दौनों शब्द पैण्ट-कमी़ज की तरह साथ साथ हैं।
वल्लभाचार्य एक रूढि वादी ब्राह्मण थे ।
और राजपूतों के श्रद्धेय भी थे ।
परन्तु इस सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना प्रबल रही कि " कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
इसलिए ठाकुर जी का सम्बोधन दिया जाने लगा ।
वस्तुत जादौन भाटी अथवा अन्य राज-पूत ---जो स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय कहते हैं ।
अपने आप को गोपों से सम्बद्ध नहीं करते हैं ।
परन्तु कृष्ण तो गोप ही थे ।
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यदि जादौन अपने को करौली रियासत से सम्बद्ध मानते हैं ; तो उन्हें स्वयं को गोप अर्थात् पल्लव या पाल भी मानना पड़ेगा !
क्यों कि इतिहास लेखक डॉ मोहन लाल गुप्ता के अनुसार-👇
"करौली के यदुवंशी अपने नाम के बाद 'सिंह' विशेषण न लगाकर 'पाल' विशेषण लगाते थे ; क्यों कि ये स्वयं को गोपाल, गोप तथा आभीर या गौश्चर मानते थे ; और बंगाल का पाल वंश भी इन्हीं से सम्बद्ध है ।
करौली शब्द स्वयं कुकुरावलि का तद्भव है :- कुकुर अवलि =कुकुरावलि --कुरावली---करौली..
परन्तु कुछ इतिहास कार करौली शब्द का प्रादुर्भाव फ़ारसी कराबुत से मानते हैं ।
जब भारतीयों में मुगल काल के दौरान देशव्यापी युद्ध हुए थे।
तो उस समय मुगलों की एक रणनीति यह थी कि दुश्मन की स्थिति और शक्तियों को पहले से जान लिया जाए;
ताकि आक्रमणकारियों को उनके क्षेत्र से दूर रखा जा सके और उन्हें लगे रहने और उनकी योजनाओं को जानने और समझने के लिए, विशेष रूप से प्रशिक्षित योद्धाओं का एक दस्ता भेजा जा सके,
यही सैनिक दस्ता जिसे फ़ारसी में “करावुल” या “करौल” के नाम से जाना जाता है।
बाद में, युद्ध का स्थान तय करने वाले अधिकारियों को करौली के रूप में भी जाना जाता था।
(पृष्ठ 35, बाबरनामा, वर्ष 900 हिजरी कैलेंडर)
शांति के समय में, वे चेवी (शिकार) के दौरान जंगली जानवरों के साथ युद्ध अभ्यास के लिए भी जाते थे, और उन के साथ दुश्मन मानकर युद्ध करते थे।
और कुछ बुद्धिमान लोग शतरंज खेलकर मानसिक व्यायाम करते थे।
यदुवंशीयों की एक जाति , ये लोग अन्धक राजा के पुत्र कुकुर के वंशज माने जाते हैं ।
पर्याय—यादव । दाशार्ह । सात्वत । कुक्कुर । कुकुरावलि:- एक प्रदेश जहाँ कुक्कुर जाति के क्षत्रिय रहते थे । यह देश राजपूताने के अन्तर्गत है आज की करौली है ।
अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप (आभीर) कहा!
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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।
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(हरिवंश पुराण )
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है l
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी तथ्यों को देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
ऋग्वेद 10/62/10
कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ।
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव -च तत्सम: ।।41।
(ब्रह्म- वैवर्त पुराण अध्याय 5)
कृष्ण के लोम- रूपों से गोपों की उत्पत्ति हुई , --जो रूप और वेश में कृष्ण के समान थे ।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण कार लिखता है कि "
प्रभु-उवाच
"हे वैश्येन्द्र सति कलौ न नश्यति वसुन्धरा "
( ब्रह्म-वैवर्त पुराण 128/33)
हे वैश्येन्द्र ! कलि युग प्रारम्भ होने से कलिधर्म प्रचलित होगें पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी ।
योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णे चकार स: ।।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण)
भगवान् जब गोलोेक को गये तो अपने साथ गोप - गोपियाँ को ले जाने लगे तब अमृत दृष्टि द्वारा दूसरे गोपों से गोकुल पूर्ण किया ।।
जाति-भाष्कर का ब्राह्मण लेखक ज्वालाप्रसाद मिश्र
स्मृतियों के हबाले से आभीर जनजाति की उत्पत्ति वर्णन करते हैं ।👇
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महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् ।।
आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् ।।128।।
तेषां संघो वसेद् घोषे बहुशस्यजलाशये।।
आविकं गोमहिष्यादि पोषयेत् तृण वारिणा ।।129।
दुग्धं दधि घृतं तक्रं विक्रयीत धनाय च ।
विशूद्रेभ्यो न्यूनतो धर्मे तस्य सर्वस्य विश्रुता ।।130।
अनुवादित रूप:- महिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो उत्पन्न होता है 'वह अाभीर है ।
और ब्राह्मण द्वारा आभीर की स्त्री में आभीर ही उत्पन्न होता है । इनका समूह घोष( गो -आवास) में
रहता है । जहाँ 'बहुत सी घास तृण हो तथा समीप में जल हो वहाँ निवास होता है भेड़ ,बकरी , गो ,भैंस आदि को चराना इनका काम है ।तथा दूध, दही मट्ठा ये धन के लिए बैचें यह धर्म में शूद्रों से कुछ हीन हैं ।
मनु-स्मृति कार इसके विपरीत लिखता है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण से आभीर की उत्पत्ति मानते हैं ।👇
ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15
शैलीगत-आधार द्वारा प्रमाण -👇
मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक होनी चाहिए! परन्तु इन श्लोकों की शैलीऐतिहासिक है विधानात्मक नहीं।
इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)
मत्स्य पुराण के 113 वें अध्याय में आभीर
वाल्हीका वाटधानाश्च आभीरा: कालतोयका:। पुरन्धा्रराश्चैव शूद्राश्च पल्लवाश्चात्ताखण्डिका:॥ 40॥
गान्धारा यवनाश्चैव सिन्धुसौवीरमद्रका:।
शका दु्रह्या: पुलिन्दाश्च पारदाहारमूर्त्तिका:॥ 41॥
रामठा कंटकाराश्च कैकेया दशनामका:। क्षत्रियोपनिवेश्याश्च वैश्या: शूद्रकुलानि च॥ 42॥
अत्रायो थभरद्वाजा: प्रस्थला: सदसेरका:। लम्पकास्तलगानाश्च सैनिका: सहजागलै:। एतेदेशाउदीच्यास्तु...........................॥ 43॥
अर्थात् ''वाल्हीक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरन्धार, शूद्र ,पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार, यवन, सिन्धु-सौवीर, मद्रक, शक, दु्रह्य, पुलिन्द, पारद, आहार,मूर्त्तिक, रामठ, कण्टकार, केकय, दशनामक, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के देश, अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल सदसेरक, लम्पक-तलगान, सैनिक और जंगल ये उत्तर भारत के देश हैं॥
इसी वाटधन देश के राजा और जमींदार (भूमिपति) ब्राह्मण नकुल विजय के बाद बलि लेकर आये थे। गान्धारादि देशों में ब्राह्मण रहते हैं ।
इसमें चीनी यात्री 'हुएनसांग' (Hwi Seng) और 'संगयुन' (Sungyun) आदि की भी सम्मत्ति मिलती हैं, जो सन् 517 ई. के लगभग भारत यात्रा को आये थे।
यह बात 'फाह्यान और संगयुन की यात्रा’ (Travels of Fah-Hian and Sungyun) नामक पुस्तक में मिलती हैं। उसमें काश्मीर, गान्धार, बुखारा आदि कई देशों में जहाँ-तहाँ ब्राह्मणों का वर्णन करते हुए 197वें पृष्ठ में गान्धार के विषय में लिखा हैं कि
“The people of the country belonged entirely to the Brahman caste.
They had a great respect for the law of Budha, and loved to read the Sacred books.”
अर्थात् गान्धार देशवासी सभी के सभी ब्राह्मण थे और बुद्ध अनुशासन से बहुत प्रेम रखते और पवित्र पुस्तकें पढ़ा करते थे। और यह उचित भी हैं।
क्योंकि उन देशों में एक प्रकार के सारस्वत विप्र, जिनकी संज्ञा 'भूमिहार' शब्द के सदृश और इसी अर्थवाली 'महियाल या महीवाल हैं, रहा करते हैं। इसलिए 'भारत भ्रमण' ग्रन्थ के 52 वें पृष्ठ में जो पूर्वोक्त मत्स्यपुराण के 113वें अध्याय के नाम पर मिथ्या ही यह लिखा गया कि वाल्हीक, वाटधन, आभीर, कालतोयक यह शूद्रों के देश हैं और पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार यह यवनों के देश हैं''
वह असंगत हैं।
साथ ही, उस 113वें अध्याय का अर्थ भी अभी कर चुके हैं।
उसमें इस प्रकार के कहीं भी नहीं लिखा हैं।
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अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक
समायोजित किए गये हैं।
5. अवान्तरविरोध- ही इनके प्रक्षिप्त होने को प्रमाणित करता है 👇
(1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे हैं ।
(2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है तो
33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है ।
किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है
(3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है ।
जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।
(4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।
अतः दौनों परस्पर विरोधाभासी होने से काल्पनिक व मनगड़न्त हैं''
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प्रेषित इस सन्देश का उद्देश्य एक भ्रान्ति का निवारण है ;
आज अहीरों को कुछ रूढ़िवादीयों द्वारा फिर से परिभाषित करने की असफल कुचेष्टाऐं की जा रहीं अतः उसके लिए यह सन्देश आवश्यक है कि इसे पढ़े....... और अपना मिथ्या वितण्डावाद बन्द करें ..
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यादवों का इतिहास भाग द्वितीय ---