गोपों अथवा अहीरों के साथ भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान
कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया यह शसब क्रमोत्तर रूप से हुआ ....
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इसी सन्दर्भ में हरिवशं पुराण में एक आख्यानक है ⬇
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे ही माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?
'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा
तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे एेसा ही कहते हैं ; और जानते हैं
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक
तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।
अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है
अलं ( बस कर ठहरो!) ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
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गोप अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है
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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं ।
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥
अन्यत्र भी कृष्ण और वसुदेव को गोप कहा गया है
;अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा!
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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।
(हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य)
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।
•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा ।
भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।
यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।
और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।
तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।२०।।
तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे वह सब बताता हूँ सुनिए !
–२०
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।
•– विष्णो पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे ।
जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।
अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।
•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात् नीयत खराब हो गयी।।२२।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।
तब वरुण मेरे पास आये और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन् ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।
•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५।
•– मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं।
तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।
अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।
•– देव जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।
त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।
•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं
क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।
लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।
मम गाव: प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।
•–इस कार्यका जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं ।
मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए तभी में समुद्र के जाऊँगा ।।२९।
या आत्मदेवता गावो या: गाव: सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।।३०।
•–इन गोऔं के देवता साक्षात् पर ब्रह्म परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं
आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।
त्रातव्या: प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।
•–पहले गोओं की रक्षा करव़नी चाहिए फिर सुरक्षित हुईं गोएें ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं
गोऔं औ ब्राह्मणों की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।
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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३२।।
•–विष्णु ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३३।
•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।
या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।३४।।
•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ; तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक में जाऐंगी ।।३४।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।
•–गोप के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरि गोवर्धनो नाम मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।
•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो
गोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेगा
जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्च ते।३७।
जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।
अदिति और सुरभि नाम की उनकी दौनों पत्नीयाँ होंगी ।३७।
देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।
•–बुद्धिमान वसुदेव की देवकी देवकी और रोहिणी
दो भार्याऐं होंगी ।
उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।
तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।
वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।
•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये ।
ठीक वाले जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बड़ कर विराट् हो गये थे ।३९।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनां मायया योगरूपया ।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।।४०।
•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।
•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।
आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।
देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।
•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।
साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत: ।
वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।
•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम' द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।
इसमें यह 55 वाँ अध्याय है ।
"पितामह वाक्य" नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ]
अब कृष्ण का जन्म हरिवंश पुराण---जो महाभारत का खिल-भाग (अवशिष्ट) है ।
उसमें कृष्ण का जन्म आभीर (गोप) कबींले में बताया है ।
देखें---
गोपायनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। (हरिवंश पुराण ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य)
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते$प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
अर्थात् हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम'
द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।
इसमें यह 55 वाँ अध्याय है ।
पितामह वाक्य नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ]
'परन्तु स्मृति ग्रन्थों में गोप शूद्र बना दिए
और उनकी व्युत्पत्ति भी वर्ण संकर के रूप में की गयी ।
व्याधांच्छाकुनिकान्” गोपान्।
“मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः” मनुस्मृति
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ।
------------------------------------------------------------- " क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: ----------------------------------------------------------------- अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.. __________________________________________
वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन:
एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद।
चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम:
नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
(व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________
(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) -------------------------------------------------------------- स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________
" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् ।
पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । --------------------------------------------------------------
निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करने के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।