जब जैन-धर्म तथा बौद्ध-धर्म ह्रास के मार्ग पर बढ़ रहे थे तब दूसरी ओर इन्हीं के समानान्तरण भागवत धर्म भी वैदिक-धर्म की प्रतिक्रिया स्वरूप उदय हो रहा था ।
वैदिक-धर्म भी अपने पुनरुत्थान में लगा था।
उसने गुप्त काल के प्रारम्भ में भागवत धर्म को अपना में आत्मसात् करने का प्रयास किया।
ब्राह्मण-चिंतकों ने खर्चीले वैदिक-यज्ञों, जटिल-कर्मकाण्डों तथा लम्बे-अनुष्ठानों और वर्ण व्यवस्था से विखण्डित हुए भारतीय समाज को भक्ति पर अवलम्बित नवीन धर्म में आश्रय लेने के लिए प्रेरित किया
जिसमें वेद-वर्णित देवताओं को बलि देने की बजाए उनकी पूजा एवं भक्ति पर जोर दिया गया।
वह भी एकैश्वर वाद के रूप में
वेद-वर्णित उन सूक्तों की ऋचाओं का संकलन और प्रतिपादन सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान एवं भक्तवत्सल परमात्मा के व्याख्यान में हुआ ।
एक ईश्वर के ही सभी देवताओं का भी स्वामी माना गया जो सम्पूर्ण सृष्टि का सर्जक, पालक एवं संहारक था।
वह देवताओं का भी स्वामी था। उसकी भक्ति को धर्म एवं मोक्ष का साधन घोषित किया गया।
परम्परागत रूप से प्रचलित आख्यानकों को रामायण एवं महाभारत नामक महाकाव्यों में समावेशित किया गया।
इस नए धर्म का न केवल बीज-वपन हो चुका था अपितु यह भलीभांति पल्लवित भी हो चुका था।
यही नवीन धर्म पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म के रूप में विशाल वटवृक्ष बन गया।
इसी समय रामायण के मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा महाभारत के योगेश्वर कृष्ण को पौराणिक धर्म में वेद-वर्णित विष्णु के अवतार घोषित किया गया ।
विष्णु-देव की भी सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों में वर्णित बिष-नु है ।
यहूदियों के नवी वाद से अवतारवाद का प्रादुर्भाव हुआ ।
पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म का विकास समानान्तरण हुआ
पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म का मुख्य आधार वेद-वर्णित
गौण देवता विष्णु था । पुराणों में देवता विष्णु एवं उनके दस अवतार- मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि हैं।
पहले तीन अवतार अर्थात् मत्स्य, कूर्म और वराह सतयुग में, नृसिंह, वामन, परशुराम और राम त्रेतायुग में तथा कृष्ण और बलराम द्वापरयुग में अवतरित हुए।
कलियुग के लिए भविष्य में होने वाला कल्कि अवतार भी कल्पित किया गया।
विष्णु एवं उनके अवतारों के साथ-साथ शिव, सूर्य, दुर्गा, गणेश एवं कर्तिकेय गौण देवता के रूप में भी भक्तों पर प्रसन्न होने वाले, उनके कष्ट हरने वाले, संकट के समय उनकी रक्षा करने वाले देवता घोषित किए गए।
इन देवी-देवताओं के प्राकट्य, उनके विविध स्वरूपों, उनमें निहित शक्तियों एवं गुणों तथा उनकी लीलाओं पर आधारित कथाओं की रचना की गई।
इन कथाओं को विभिन्न पुराणों में लिखा गया।
इसलिए इसे 'पौराणिक धर्म' कहा गया।
'पुराण' अपने पूर्ववर्ती वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों आदि से बिल्कुल अलग तथा पूरी तरह नवीन ग्रंथ थे किंतु इनके रचयिताओं ने इन्हें 'पुराण' कहकर पुकारा जिसका अर्थ होता है- 'पुराना।
' इन नवीन ग्रंथों को पुराना कहकर पुकारे जाने का मूल कारण यह था कि इन ग्रंथों के रचनाकार के प्रति जनसामान्य को यह संदेश नहीं देना चाहते थे कि उन्होंने किसी नवीन धर्म का प्रतिपादन अथवा निर्माण किया है, अपितु इन ग्रंथों के माध्यम से वे जनसामान्य को यह संदेश देना चाहते थे कि इन ग्रंथों में उन्हीं वेदविहित ईश्वर तथा देवी-देवताओं के स्वरूपों, गुणों एवं लीलाओं का वर्णन किया गया है जिनकी पूजा देव संस्कृति के अनुयायी अनादि काल से करते चले आए हैं।
भगवान के 'सर्वशक्तिशाली', 'भक्त-वत्सल', 'संकट मोचक' एवं 'मोक्षदायक' स्वरूप ने जन-सामान्य को तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया।
भगवान की कृपा में विश्वास रखने के कारण इस धर्म को 'भागवत् धर्म' कहा गया।
चूंकि विष्णु इस धर्म के मुख्य उपास्य थे इसलिए इसे वैष्णव धर्म भी कहा गया।
इस धर्म में विष्णु को सर्वशक्ति सम्पन्न तथा सर्वश्रेष्ठ देवता से भी आगे बढ़कर सर्वव्यापी भगवान माना गया।
इस कारण उन्हें 'वासुदेव' कहा गया जिसका अर्थ है 'जो सब जगह व्याप्त' है तथा 'जिसमें सारे पदार्थ निवास करते हैं'।
'परन्तु सत्य पूछा जाय तो वसुदेव में सन्तति वोधक अण् तद्धित प्रत्यय करने पर वासुदेव शब्द बनता है ।
जिसका अर्थ है वसुदेव का पुत्र कृष्ण।
भागवत धर्म के प्रतिपादक-कृष्ण स्वयं थे ।
वह 'ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य तथा तेज' नामक छः उत्तम गुणों से युक्त तथा हेय गुणों से रहित होने से भागवत ( भगवत् अण्) है।
इस धर्म को नामान्तरण से 'सात्वत धर्म', 'पांचरात्र धर्म' तथा 'नारायणीय धर्म' तथा यादव धर्म भी कहा जाता है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि भागवत् धर्म, सात्वत धर्म, पांचरात्र धर्म तथा नारायणी धर्म उत्तर-पश्चिम भारत में अलग-अलग एवं स्वतंत्र रूप से प्रकट हुए थे।
'परन्तु यह मात्र भ्रान्त धारणा है ।
भागवत,पाञ्चरात्र, और सात्वत धर्मों क े देवी-देवता लगभग एक जैसे थे तथा भक्ति एवं ईश्वरीय कृपा ही इन धर्मों के मुख्य आधार थे,।
इसलिए ये सब धर्म अपने-अपने देवी-देवताओं, धार्मिक मान्यताओं एवं उपासना विधियों को साथ लेकर वैष्णव धर्म में समाहित हो गए जो अपने पूर्ववर्ती धर्मों अर्थात् भागवत् धर्म, सात्वत धर्म, पांचरात्र धर्म तथा नारायणी धर्म से अधिक पुष्ट था।
इस प्रकार वैष्णव धर्म का उदय किसी एक व्यक्ति द्वारा रची जाने वाली अथवा किसी एक निश्चित समय में घटित होने वाली घटना नहीं थी अपितु इसका विकास दीर्घकाल में तथा बहुत से गोप लोगों द्वारा किए गए प्रयासों का परिणाम था।
वैदिक धर्म तथा पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) में अंतर