आप जानते हो जब कोई वस्त्र नया होता है ।
वह शरीर पर सुशोभित भी होता है ; और शरीर की सभी भौतिक आपदाओं से रक्षा भी करता है ।👇
परन्तु कालान्तरण में वही वस्त्र जब पुराना होने पर जीर्ण-शीर्ण होकर चिथड़ा बन जाता है ।
अर्थात् उसमें अनेक विकार आ जाते हैं ।
तब उसका शरीर से त्याग देना ही उचित है ।
आधुनिक धर्म -पद्धतियाँ केवल उन रूढ़ियों का घिसा- पिटा रूप है।
प्रारम्भिक रूप में धर्म संयम और स्वाभाविकता के दमन का नाम था। ये केवल कर्म-- काण्ड से विहीन सदाचरण था ।
अब एेसा कुछ भी नहीं है ।
आज धर्म बस
कुछ निठल्ले रूढ़िवादी ब्राह्मणों के स्वार्थ सिद्ध के विधान मूलक उपक्रमों का रूप है ।
मन्दिर इनकी आरक्षित पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली नियमित दुकाने हैं ।
देवता भी इनके अनजाने हैं ।
जितने भी मठ-आश्रम हैं ज्यादातर
अब अय्याशी के ठिकाने हैं।
बताओ क्या सर्व-व्यापी ईश्वर मन्दिर में कैद है ?
मन्दिरों का महत्व 👇
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मन्द्यते यस्मिन् स्थले मदि किरच् कृदन्त प्रत्यय ।
मदि
मद् धातु:-स्तुति,मोद,मद,स्वप्न,कान्ति,गतिषु
मद् धातु से विकसित रूप कृदन्त और तद्धित रूप👇
- मन्दते । ममन्दे । मन्दः । मन्दुरा । मन्दिरम् ।। 13 ।।
१ गृहे २ पुरे च (अमरःकोश )
तस्य द्विलिङ्गत्वमित्येके । ३ समुद्रे( मेदिनी कोश) ४ जानुपश्चाद्भागे च (हेमचन्द्र कोश)
अब मन्दिर मद् धातु मूलक है मद् का तात्पर्य स्तुति करना ।
हिब्रू तथा अरबी सैमेटिक भाषाओं में अहमद , मोहम्मद तथा हम्द जैसे रूप है ।
जिनका अर्थ है :- स्तुति परक रूप ।
ईश्वर सर्वत्र है । ईश्वर की स्तुति शुद्ध मन से कहीं भी की जा सकता है । कर्म काण्ड का ईश्वर से कोई प्रत्यक्ष या -परोक्ष सम्बन्ध नहीं ।
क्या कर्म- काण्ड परक धार्मिक अनुष्ठान करने से ईश्वर के दर्शन हो जाऐंगे ? नहीं ।
क्या ईश्वर दान का भूखा है ? कभी नहीं ये तो सर्वदाता को भीख देने की कोशिश है ।
क्या ईश्वर ने ब्राह्मणों को अपने मुख से उत्पन्न किया ।
ये कल्पना ही मूर्खता पूर्ण है ।
क्या शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए ?
ये बैहूदी बाते धर्म की बाते हैं ।
परन्तु आज इस धर्म की जरूरत नहीं !
आज आवश्यकता है विज्ञान और साम्य मूलक सामाजिक व्यवस्थाओं स्थापन की !
जिसमे सबके समान कर्तव्य और अधिकार हो ।
हे रूढ़िवादीयो
तुमने राक्षसों को अधर्मी कहा ।
तुमने असुरों को दुराचारी कहा।
जबकि वस्तु स्थित ठीक इसके विपरीत है ।👇
न राक्षस अधर्मी थे न भक्षक ।
वे धर्म मर्यादाओं की रक्षा करने से ही राक्षस कहलाए ।
और नित्य पुण्य करने से से पुण्यजन कहलाए ।
वाल्मीकि-रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख है ।:-
वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में ) कहा 👇
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
परन्तु ब्राह्मणों के स्वार्थ परक धर्म ने ही वर्ण-व्यवस्था के विधानो की श्रृंखला में समाज को बाँधने की कृत्रिम चेष्टा की!
तो परिमाण स्वरूप समाज अपने मूल स्वरूप से विखण्डित हुआ ।
इन्होंने ने जाति मूलक वर्ण-व्यवस्था के पालन को ही धर्म कहा ।
समाज में असमानता पनपी --जो वास्तविक परिश्रमी कर्म कुशल अथवा सैनिक या यौद्धा थे ।
उन्हें शूद्र कहकर उनके अधिकार छीन लिए तथा धर्म का झाँसा देकर जब्त करलिए गये उनके पढ़ने और लड़ने के अधिकार भी
--जो अय्याश अथवा ब्राहमणों के चापलूस थे ।
उन्हें कृत्रिम क्षत्रिय घोषित कर दिया गया ।
अन्ध-श्रृद्धा धर्म का पर्याय बन गयी !
मन्दिर में चढ़ाबे के नाम पर नित्य नियमित अन्ध-भक्तों द्वारा सोने-चाँदी तथा धन चढ़ाया जाता ।
सोमनाथ की शिव प्रतिमा 200 मन स्वर्ण की निर्मित थी ।
दक्षिण भारतीय इतिहास मन्दिरों में देख लो !
निम्न समझे जाने वाले वर्गों से सुन्दर व नव यौवना कन्याएें देवदासी के रूप में तैनात की जाती तथा मन्दिर के पुजारी उनके साथ सम्पृक्त होकर अपनी अतृप्त वासनाओं की तृप्ति करते ।
देश में बालविवाह , सतीप्रथा ,दासप्रथा जैसे कोढ़ व्याप्त थे ।
विदेशी लोग भारत की इस अन्धी श्रृद्धा से परिचित हो गये
👇😈🌸👇
तब ज्ञात इतिहास में पहले ईरानीयों में दारा प्रथम ने भारत को जीता
दारा प्रथम या डेरियस प्रथम (पुरानी फ़ारसी जिसे Dārayava(h)uš,तथा नव फ़ारसी भाषा में داریوش दरायुस; हिब्रू: דָּֽרְיָוֶשׁ, दारायावेस; कहा गया ।
जिसका अर्थ होता है धर्म का प्रतिनिधि । 550 से 486 ईसा पूर्व)में यह प्राचीन ईरान के हख़ामनी वंश का प्रसिद्ध शासक था ।
जिसे इतिहास में धार्मिक सहिष्णुता तथा अपने शिलालेखों के लिए जाना जाता है। वह फ़ारसी साम्राज्य के संस्थापक कुरोश (साइरस) के बाद हख़ामनी वंश का सबसे प्रभावशाली शासक यही माना जाता है।
कम्बोजिया के मरने के बाद जब बरदिया नामक माग़ी ने सिंहासन के लिए दावा किया तो छः अन्य राजपरिवारों के साथ मिलकर उसने बरदिया नामक म़ागी ( अग्निपुजारी) को मार डाला और इसके बाद उसका राजतिलक हुआ।
उसके शासन काल में हख़ामनी साम्राज्य मिस्र से सिन्धु नदी तक फैल गया था।
पश्चिमीय हिन्दुस्तान में उसका शासन था ।
उसने यूनान पर कब्जा किया और उत्तर में शकों से भी युद्ध लड़ा। उसने इतने बड़े साम्राज्य में एक समान मुद्रा चलाई और आरामाईक को राजभाषा करार दिया।
फिर सिकन्दर ने भारत पर अधिकार करने की चेष्टा की ।
(356 ईपू से 323 ईपू) मकदूनियाँ, (मेसेडोनिया) का ग्रीक प्रशासक था।
वह एलेक्ज़ेंडर तृतीय तथा एलेक्ज़ेंडर मेसेडोनियन नाम से भी जाना जाता है। इतिहास में वह कुशल और यशस्वी सेनापतियों में से एक माना गया है। अपनी मृत्यु तक वह उन सभी भूमि मे से लगभग आधी भूमि जीत चुका था ।
जिसकी जानकारी प्राचीन ग्रीक लोगों को थी (सत्य ये है की वह पृथ्वी के मात्र 5 प्रतिशत हिस्से को ही जीत पाया था।
और उसके विजय रथ को रोकने में सबसे मुख्य भूमिका भारत के राजा पुरु (जिन्हें युनानी इतिहासकारों नें पोरस से सम्बोधित किया की थी ।
और भारत के क्षेत्रीय कबीलाई सरदारों की थी, जिन्होंने सिकंदर की सेना में अपने पराक्रम के दम पर भारत के प्रति खौफ पैदा कर उसके हौसले पस्त कर दिये और उसे भारत से लौटने पर मजबूर कर दिया। उसने अपने कार्यकाल में इरान, सीरिया, मिस्र, मसोपोटेमिया, फिनीशिया, जुदेआ, गाझा, बॅक्ट्रिया और भारत में पंजाब( जिसके
राज्यकाल
336–323 ई० पू० की है ।
फिर सात सौ बारह ईस्वी में अरब से सिन्ध होते हुए :- मोहम्मद विन काशिम ने तथा फिर महमूद गजनबी 1000 ईस्वी तथा अन्त में फिर ईष्ट-इण्डिया कम्पनी के माध्यम से अंग्रेजों का आगमन हुआ।
ये धर्म ही था जिसने देश को गुलाम बनाया ।
और ब्राहमणों का धर्म इसके लिए जिम्बेबार था ।
क्या हम्हें फिर गुलाम बनना है ?
धर्म की असली परिभाषा तो बुद्ध ने की 👇
इसे कितने ब्राह्मण मानते हैं !
धर्म की मात्र इतनी सी परिभाषा है
कि --जो व्यवहार हम अपने लिए उचित समझते हैं । वही व्यवहार हम दूसरों के भी साथ करें ।
यह धर्म है ।
परन्तु ब्राहमणों का धर्म सूत्र कहता है ।कि 👇
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दु:शीलो८पि द्विज: पूजयेत् .
न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति
शीलवतीं खरीम् पाराशर-स्मृति (१९२)
अर्थात् ब्राह्मण यदि व्यभिचारी भी हो तो भी 'वह पूजने योग्य है ।
जबकि शूद्र जितेन्द्रीय और विद्वान होने पर भी पूजनीय नहीं ।
क्यों कोई शील वती गधईया से बुरे शरीर वाली गाय भली ...
अब बताऐं कि ये धर्म त्यागना चाहिए या नहीं !.👇
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ 35
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है।
अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है
और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥
व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है।
आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है।
जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है।
कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है।
इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है।
सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है।
ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो।
इस श्लोक को बड़ी चतुराई से वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने कृष्ण के सिद्धान्तों के नाम पर समायोजित किया है।
अब विचारणीय तथ्य यह है कि यह बौद्ध कालीन स्थितियों को इंगित करता है ।
यद्यपि धर्म शब्द यूनानी तथा रोमन संस्कृतियों में क्रमश तर्म और तरमिनस् (Term ) (Terminus ) के रूप में विद्यमान है ।
टर्मीनस् रोमन संस्कृतियों में मर्यादा का अधिष्ठात्री देवता है ।
प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस (Terminus) की पूजा सबीन जन-जाति के मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753- 17 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं ।
या रोमुलस के उत्तराधिकारी नुमा पोम्पिलियस के लिए थी।
1-06
((१ (-६ 7३ ईसा पूर्व)। [
प्राचीन धारणाओं के अनुसार रोम की स्थापना रोमुलस तथा रमेस नामक दो जुडवां भाइयों ने की थी।
रोमन कवि विरजिल (virgil) ने भी इससे मिलती-जुलती कहानी अपनी कविता इनीउहद (Aeneid) में बताई है कि ट्रोजन का नायक जब ट्राय (Troy) से विध्वंश होने के बाद अपने पिता को अपनी पीठ पर उठा कर ले गया तथा उसके बाद वह कई स्थानों पर गया और विजयें भी प्राप्त की।
इसने इटली में एक कॉलोनी की स्थापना की जहां पर रोमुल्स तथा रेमस पैदा हुए। इनके ही नाम पर रोम का नामकरण हुआ। इउहद ने रोम को यूनानी तथा एशिया माइनर की सभ्यता से संबधित बताते हुए रोमनों को आश्वस्त किया कि वे भूमध्यसागरीय क्षेत्र में बाहर से आए हुए नही है।
एशिया माइनर से इटली आने वाले (Etruscans) इट्रुस्केन लोगों ने भी रोमनों पर अपना प्रभाव छोड़ा।
अमरकोश में धर्म शब्द का अर्थ:-
धर्म पुं-नपुं।
धर्मः
समानार्थक:धर्म,पुण्य,श्रेयस्,सुकृत,वृष,उपनिषद्,उष्ण
1।4।24।1।1
स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः। मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः॥
आचारः
समानार्थक:धर्म,समय Time / Term
3।3।139।1।1
धर्म पुंल्लिंग वैदिक भाषा में धर्म शब्द है ।
कर्मकाण्डीय नियम, भा.श्रौ.सू. 7.6.7
(ये उपभृतो धर्मा.....पृषदाज्यधान्यामपि क्रियेरन्); देखें-7.6.9 में ‘स्रुवधर्म’, ‘पयोधर्म’।
ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।
धर :- पहाड़, धरा ।
संज्ञा किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो ।
प्रकृति । स्वभाव, नित्य नियम । जैसे, आँख का धर्म देखना, शरीर का धर्म क्लांत होना सर्प का धर्म् काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना ।
विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।
अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति जो उपमेय और उपमान में समान रूप से हो ।
वह एक सी बात जिसके कारण एक वस्तु की उपमा दूसरी से दी जाती है । जैसे, कमल के ऐसे कोमल और लाल चरंण, इस उदाहरण में कोमलचा और ललाई साधारण् धर्म है ।
किसी मान्य ग्रन्थ, आचार्य़ या ऋषि द्बारा निदिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्पि के अर्थ किया जाय ।
वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।
उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है ।
संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकांड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे । यद्दापि श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाड़ ही की ओर था ।
वह कर्म जिसका करना किसी संबंध, स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो ।
वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्यबिभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उवित हो ।
वह काम जिसे मनुष्य़ को किसीबिशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिय़े करना चाहिए । किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यबहार ।
करयप कर्तव्य़ । फर्ज । जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।
विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिय़े पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद के लिये तीनों वणों की सेवा करना । जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्बारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद्बर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है, जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है ।
इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गुह्स्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है । जैसे व्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि ।
गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि ।
वानप्रस्थ के लिये सामग्री सहित गृह अग्नि को लेकर वन में वास करना, जटा, लक्ष श्मश्रु आदि रखना भूगि पर सोना, शीत- ताप सहना, धग्निहोत्र दर्शपौर्शमास, बलिकर्म आदि करना इत्यादि । संन्यासी के लिय़े सब वस्तुओं को त्याग अग्नि और गृह से रहित होकर भिक्षा द्बारा निर्वाह करना, नख आदि को कटाए और दड कमंडलु लिए रहना ।
यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए । दन दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं ।
विशेष—स्मृतिकारौ ने वर्ण, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना ।
ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आलश्यक है । मनु ने वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर्म में दस बातें कहीं हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चारी न करना), शौच इंद्रिथनिग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध ।
मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है । वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती । मनु ने कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रंक्षा करता है । अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतिय़ों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है, यहाँ तक कि परलोक आदि पर विश्वास न रखनेवाले योरप के आधिभौतिक तत्ववेत्ताओं को भी समाज की रक्षा के निमित्त इस समान्य धर्म का स्वीकारक करना पड़ा है । उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है । बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है ।
विशेष—आचार और व्यवहार दोनों का प्रतिपादन स्मृतियों में हुआ है । आज्ञवल्कय स्मृति में आचाराध्याय और व्यहारध्याय अलग अलग है ।
दायविभाग, सीमाविवाद, ऋणादान, दंडयोग्य अपराध आदि सब विषय अर्थात् दीवानी और फौजदारी के सब मामलें व्यवहार के अंतर्गत हैं ।
समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य;
पुंलिंग
मज़हब (रिलिजन)।
तर्मन् नपुं।
यूपाग्रम्
समानार्थक:यूपाग्र,तर्मन्
2।7।19।1।2
यूपाग्रं तर्म निर्मन्थ्यदारुणि त्वरणिर्द्वयोः। दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः॥
अवयव : यूपकटकः
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, अचलनिर्जीवः, अचलनिर्जीववस्तु
शब्दसागरः
तर्मन्¦ n. (-र्म) The top or term of the sacrificial post. E. तॄ to pass up, and मनिन् aff.
Apte
तर्मन् [tarman], n. The top of the sacrificial post.
Monier-Williams
तर्मन् n. " passage "See. सु-तर्मन्
तर्मन् m. n. the top of the sacrificial post( cf. Lat. terminus) L.
तर्मन् तर्य See. p. 439 , col. 2.
(तरतीति । तॄ “सर्व्वधातुभ्यो मनिन् ।” उणां ४ । १४४ । इति मनिन् ।) यूपाग्रम् । इत्यमरः । २ । ७ । १९ ॥
तर्मन् a. good for crossing over; सुतर्माणमधिनावं रुहेम Ait. Br.1.13;
(cf. also यज्ञो वै सुतर्मा)..
ययाऽति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेमेति यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिनं वै सुतर्मा ...
अंग्रेज़ी में Term के अनेक अर्थ हैं ।👇
अवधि
पद
समय
शर्त
सत्र
परिभाषा
ढांचा
सीमाएं
बेला
मेहनताना
फ़ीस
मित्रता
प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753-17 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं ।
जिन लेखकों ने नुमा को श्रेय दिया, उन्होंने अपनी प्रेरणा को संपत्ति पर हिंसक विवादों की रोकथाम के रूप में समझाया।
प्लूटार्क आगे बताता है कि, मोर के गारंटर के रूप में टर्मिनस के चरित्र को ध्यान में रखते हुए
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यादव योगेश कुमार "रोहि"