यूनानीयों तथा ट्रॉय वासी -
जब एगमेम्नन और प्रियम के नैतृत्व में यौद्धिक गतिविधियों में संलग्न थे । तब उनकी संस्कृतियों में वैदिक परम्पराओं के सादृश्य कुछ संस्कार थे । जैसे मृतक का दाह-संस्कार आँखों पर दो स्वर्ण-सिक्का रखकर किया जाने तथा बारह दिनों तक शोक होना.... यह समय ई०पू० बारहवीं सदी है होमर ई०पू० अष्टम सदी के समकालीन उनके महाकाव्य पर आधारित- हालीवुड की ट्रॉय फिल्म troy movie देखें वर्ण-व्यवस्था केवल अवैध व असामाजिक पद्धति है । इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं इसे सिरे से खारिज कर दो क्षत्रिय बनने से कौन सा सामाजिक वर्चस्व प्राप्त होगा ... विगत कई दशकों से कुछ जन-जातियाँ --जो वस्तुत स्वयं में दुनियाँ में सशक्त व यौद्धा रहीं हैं। परन्तु भारतीय इतिहास में विशेषत: पुष्य-मित्र सुंग कालीन रचित पौराणिक ग्रन्थों में तत्कालीन समाज के पुरोहितों ने शूद्र रूप में वर्णित कर दी हैं । आज क्षत्रिय बनने के लिए अनेक उद्घोष कर रहे हैं । सायद वे लोग ये समझते हैं कि हम क्षत्रिय होकर समानित हो जाऐंगे ।
परन्तु यह अटल सत्य है कि रूढ़िवादी ब्राह्मण परम्पराओं के संवाहक उन्हें क्षत्रियों के रूप में नहीं मानेंगे । क्यों कि ये जन-जातियाँ ब्राह्मणों की हर अनुचित विधान का पालन नहीं करते थे । इसी लिए ये ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों के रूप में वर्णीकृत हुए ... और ये स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर भी ले तो कौन सी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेगें ? स्वघोषित क्षत्रिय बन भी जाओ तो क्या बनने के बाद भी आप ब्राह्मणवादी-सामाजिक व्यवस्था में कभी ब्राह्मणों के बराबर आकर उनके द्वारा सम्मान पाएंगे सकोगे ? क्या ब्राह्मणवादी व्यवस्था के शीर्ष पर आसीन जन-जाति की दृष्टि में आप अचानक ही सम्मानित व पूज्यनीय बन जाओगे ? आप उन धूर्त और कपटमूर्ति व्यभिचारी लोगों से ये अपेक्षाऐं किए बाठे हो जिन्होनें सदीयों से तुम्हारे इतिहास को विकृत व नष्ट करने की पूर्ण चेष्टा की भूल जाओं कि तुम ब्राह्मण व्यवस्थाओं के अन्तर्गत क्षत्रिय हो ! क्षत्रियों का संहार करने वाले परशुराम ने -जब देखा कि ये विधवाऐं विधवा हो गयीं तो ऋतुकाल में अन्य ब्राह्मणों से उनका समागम कराकर वे गर्भवती करायी गयीं जिसे नियोग प्रथा कहा गया तब --जो क्षत्रिय उत्पन्न हुए वही आज के क्षत्रिय हैं अत: क्षत्रिय बनना भी दौगले पन की निशानी है क्षत्रिय हैं ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें यह तथ्य तो ब्राह्मणों के ग्रन्थों में भी हैं --देखें mahabharat में त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा । जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४। तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति । ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत सुतार्थिन्य८भिचक्रमु:।५। ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: । ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६। तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७। कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये । एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८। जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्। चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९। (महाभारत आदि पर्व ६४वाँ अध्याय) अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया । तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पाने के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की । तब ऋतु काल में ब्राह्मणों ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया । तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए । और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई। उसमें भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ माना गया । यही कारण है कि आज तक ब्राह्मण धर्म में ब्राह्मणों सर्वोपरि हैं । यदि ब्राह्मण व्यभिचारी भी हो तो भी पूजा के योग्य है । __________________________________________ और सुनो ! ---जो स्वयं को क्षत्रिय अथवा राजपूत कहते हैं महाभारत और भागवतपुराण आदि पुराणों के अनुसार ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें हैं । इसे हम नहीं कहते पुष्य-मित्र सुंग कालीन रचित ई०पू० द्वितीय सदी का महाभारत कहता है । वर्तमान में मनु के नाम पर प्राप्त ग्रन्थ मनु-स्मृति जो शूद्रों को लक्ष्य करके योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध की गयी है । केवल पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक रचना है । मनु स्मृति के कुछ अमानवीय रूप भी आलोचनीय हैं । " शक्तिनापि हि शूद्रेण न कार्यो धन सञ्चय: शूद्रो हि धनम् असाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ।। (मनुःस्मृति१०/१२६) अर्थात् शक्ति शाली होने पर भी शूद्र के द्वारा धन सञ्चय नहीं करना चाहिए ; क्योंकि धनवान बनने पर शूद्र ब्राह्मणों को बाधा पहँचा के हैं ------------------------------------------------------------------ विस्त्रब्धं ब्राह्मण: शूद्राद् द्रव्योपादाना माचरेत् । नहि तस्यास्ति किञ्चितस्वं भर्तृहार्य धनो हि स:।। ८/४१६ अर्थात् शूद्र द्वारा अर्जित धन को ब्राह्मण निर्भीक होकर से सकता है । क्योंकि शूद्र को धन रखने का अधिकार नहीं है । उसका धन उसको स्वामी के ही अधीन होता है ----------------------------------------------------------------- नाम जाति ग्रहं तु एषामभिद्रोहेण कुर्वत: । निक्षेप्यो अयोमय: शंकुर् ज्वलन्नास्ये दशांगुल : ।।(मनुस्मृति८/२१७ ) अर्थात् कोई शूद्र द्रोह (बगावत) द्वारा ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का नाम उच्चारण भी करता है तो उसके मुंह में दश अंगुल लम्बी जलती हुई कील ठोंक देनी चाहिए । ------------------------------------------------------------------- एकजातिर्द्विजातिस्तु वाचा दारुण या क्षिपन् । जिह्वया: प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि स:।८/२६९ अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग को यदि अपशब्द बोले जाएें तो उस शूद्र की जिह्वा काट लेनी चाहिए । तुच्छ वर्ण का होने के कारण उसे यही दण्ड मिलना चाहिए । ----------------------------------------------------------------- पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनम् अर्हति । पादेन प्रहरन्कोपात् पादच्छेदनमर्हति ।।२८०। अर्थात् शूद्र अपने जिस अंग से द्विज को मारेउसका वही अंग काटना चाहिए । यदि द्विज को मानने के लिए हाथ उठाया हो अथवा लाठी तानी हो तो उसका हाथ काट देना चाहिए और क्रोध से ब्राह्मण को लात मारे तो उसका पैर काट देना चाहिए । ------------------------------------------------------------------- ब्राह्मणों के द्वारा यदि कोई बड़ा अपराध होता है तो तो उसका केवल मुण्डन ही दण्ड है । बलात्कार करने पर भी ब्राह्मण को इतना ही दण्ड शेष है ____________________________________________ "मौण्ड्य प्राणान्तिको दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते। इतरेषामं तु वर्णानां दण्ड: प्राणान्तिको भवेत् ।।३७९।। न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्व पापेषु अपि स्थितम् । राष्ट्राद् एनं बाहि: कुर्यात् समग्र धनमक्षतम् ।।३८०।। अर्थात् ब्राह्मण के सिर के बाल मुड़ा देना ही उसका प्राण दण्ड है । परन्तु अन्य वर्णों को प्राण दण्ड देना चाहिए । सब प्रकार के पाप में रत होने पर भी ब्राह्मण का बध कभी न करें।उसे धन सहित बिना मारे अपने देश से विकास दें । ------------------------------------------------------------------- ब्राह्मणों द्वारा अन्य वर्ण की कन्याओं के साथ व्यभिचार करने को भी कर्तव्य नियत करने का विधान घोषित करना :---- नीचे देखें--- "उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्हति ।। शुल्कं दद्यात् सेवमानस्तु :समामिच्छेत्पिता यदि।। (३६६। मनुःस्मृति) अर्थात् उत्तम वर्ण (ब्राह्मण)जाति के पुरुष के साथ सम्भोग करने की इच्छा से उस ब्राह्मण आदि की सेवा करने वाली कन्या को राजा कुछ भी दण्ड न करे । पर उचित वर्ण की कन्या का हीन जाति के साथ जाने पर राजा उचित नियमन करे । उत्तम वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला नीच वर्ण का व्यक्ति वध के योग्य है ।। समान वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला , यदि उस कन्या का पिता धन से सन्तुष्ट हो तो पुरुष उस कन्या से धन देकर विवाह कर ले । ------------------------------------------------------------------- पुष्य मित्र सुंग काल का सामाजिक विधान देखिए :- सह आसनं अभिप्रेप्सु: उत्कृष्टस्यापकृष्टज: कटयां कृतांको निवास्य: स्फिर्च वास्यावकर्तयेत्।।२८१।। अवनिष्ठीवती दर्पाद् द्वावोष्ठौ छेदयेत् नृप: । अवमूत्रयतो मेढमवशर्धयतो गुदम् ।।२८२।। _______________________________________ अर्थात् जो शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण आदि वर्णों के साथ आसन पर बैठने की इच्छा करता है तो राजा उसके तो राजा उसके कमर मे छिद्र करके देश से निकाल दे । अथवा उसके नितम्ब का मास कटवा ले राजा ब्राह्मण के ऊपर थूकने वाले अहंकारी के दौनों ओष्ठ तथा मूत्र विसर्जन करने वाला लिंग और अधोवायु करने वाला मल- द्वार कटवा दे -------- पराशरस्मृति में तो यहाँं तक विधान है कि ब्राह्मण व्यभिचारी व बलात्कारी होने पर भी पूज्यनीय है जबकि शूद्र संयमी र जितेन्द्रिय होने पर भी पूज्यनीय नहीं है । क्यों कि कौन दूषित अंगो वाली गाय को छोड़ कर शीलवाती गर्दभी (गधी ) दुहेगा ? (१९२) दु:शीलो८पि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् पाराशर-स्मृति (१९२) विदित हो कि ब्राह्मण क्षत्रिय राजाओं की पत्नीयाें के साथ नियोग करके सन्तानें उत्पन्न करते थे । फिर तुम इस दौगले पन से विभूषित क्षत्रिय विशेषण के लिए इतने लालायित हो ? तो तुमसे बड़ा मू्ढ़ मति कौन ? वर्ण-व्यवस्था की प्रक्रिया का वर्णन करने वाले ऋग्वेद के पुरुष सूक्त की वास्तविकतावास्तविकताओं पर कुछ प्रकाशन:--- वैदिक भाषा (छान्दस्) और लौकिक भाषा (संस्कृत) को तुलनानात्मक रूप में सन्दर्भित करते हुए -- __________________________________________ ऋग्वेद को आप्तग्रन्थ एवं अपौरुषेय भारतीय रूढि वादी ब्राह्मण समाज सदीयों से मानता आ रहा है । इसी कारण वेदों के सूक्तों को ईश्वरीय विधान के रूप में भारतीय समाज पर आरोपित भी किया गया । परन्तु ऋग्वेद के अनेक सूक्त अर्वाचीन अथवा परवर्ती काल के हैं । यद्यपि ऋग्वेद के अनेक सूक्त प्राचीनत्तम हैं ---जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन संस्कृतियों की पृष्ठ-भूमि को आलेखित करते हैं । मैसॉपोटमिया की संस्कृतियाँ आधुनिक ईरान तथा ईराक की प्राचीनत्तम व पूर्व इस्लामिक संस्कृतियाँ थीं । वस्तुत: भारत और ईरानी समाज में वर्ग -व्यवस्था तो थी । परन्तु वर्ण -व्यवस्था कभी नहीं रही । दौनों देशों की भाषाओं में साम्य होते हुए भी सांस्कृतिक भेद पूर्ण रूपेण है। क्योंकि ईरानी आर्य असुर संस्कृति के अनुयायी तथा भारतीय आर्य देव संस्कृति के अनुयायी थे । इन दौनों समाजों में समाज में चार व्यावसायिक वर्ग भले ही रहे हों परन्तु वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज में ही थी। हम्बूरावी कि विधि संहिता में भी समाज का व्यवसाय परक -तीन वर्गों में विभाजन था । इधर भारतीय धरातल पर आगत देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने वेदों का प्रणयन किया जिसमें स्केण्डिनेवियन संस्कृतियों स्वीडन , नार्वे तथा अजरवेज़ान (आर्यन-आवास )की संस्कृतियाँ की धूमिल स्मृतियाँ अवशिष्ट थी । ऋग्वेद के दशम् मण्डल के 90 वें सूक्त का 12 वीं ऋचा में शूद्रों की उत्पत्ति ईश्वर (विराट् पुरुष)के पैरों से करा कर ; उनके लिए आजीवन ब्राह्मण के पैरों - तले पड़े रहने का कर्तव्य नियत कर दिया गया । जो वस्तुत ब्राह्मण समाज की स्वार्थ-प्रेरित परियोजना थी । पठन-पाठन का अधिकार ब्राह्मणों ने शूद्रों से छीन लिया - और धार्मिक क्रियाऐं इनको लिए निषिद्ध घोषित कर दी गयीं परिणामत: ये संस्कार हीन , अशिक्षित, अन्ध-विश्वास से ओत-प्रोत एवं पतित होते चले गये । यह ब्राह्मण समाज का मानवीय अपराध था । निश्चित रूप से इससे बड़ा संसार का कोई जघन्य पाप- कर्म मानवता के प्रति नहीं था । शूद्रों के लिए ब्राह्मणों द्वारा कुछ धार्मिक मान्यताओं की मौहर लगाकर पद-प्रणति परक दासता पूर्ण विधान पारित किये गये थे। जिससे कि शूद्र आजीवन ब्राह्मण तथा उनके अंग रक्षक क्षत्रियों के पैरों की सेवा करते रहें । ... उनके पैरों के लिए जूते ,चप्पल बनाते रहें ... यह निश्चित रूप से ब्राह्मणों की बुद्धि -महत्ता नहीं थी! अपितु चालाकी , पूर्ण कपट और दोखा अथवा प्रवञ्चना थी । इस कृत्य के लिए ईश्वर भी इन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा ! और कदाचित वो दिन अब आ भी चुके हैं । अब इन व्यभिचारीयों के वंशजों की दुर्गति हो रही है । भारत में आगत आर्यों का प्रथम समागम द्रविड परिवार की एक शाखा कोलों से हुआ था । ---जो भारतीय धरातल पर उत्तर-पूर्वीय पहाड़ी क्षेत्रों में बसे हुए थे । जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे ; उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था । 👕 ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण - कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ग - व्यवस्था में वर्गीकृत किया था न कि हुत्ती रूप में ! फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में इन चार वर्गों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ---जैसे :- देखें:--- नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार १ --- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है .. २---नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा ३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा ४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही वास्तर्योशान कहा गया है !!!! 19 वीं शताब्दी में कुछ यूरोपीय भाषा विश्लेषकों ने अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा दोनों पर तुलनानात्मक अध्ययन किया और इन दौनों के गहरे सम्बन्ध का तथ्य उनके सामने जल्दी ही आ गया। उन्होंने देखा के अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा के शब्दों में कुछ सरल नियमों के साथ एक से दुसरे को अनुवादित किया जा सकता था । और व्याकरण की दृष्टि से यह दोनों बहुत नज़दीक थे। अपनी सन् 1892 में प्रकाशित किताब "अवस्ताई व्याकरण की संस्कृत से तुलना और अवस्ताई वर्णमाला और उसका लिप्यान्तरण" में भाषावैज्ञानिक और विद्वान एब्राहम जैक्सन ने उदहारण के लिए एक अवस्ताई धार्मिक श्लोक का ऋग्वैदिक भाषा में सीधा अनुवाद किया। ____________________________________________ 🐂मूल अवस्ताई अनुवाद तम अमवन्तम यज़तम सूरम दामोहु सविश्तम मिथ़्रम यज़ाइ ज़ओथ़्राब्यो। वैदिक भाषा का अनुवाद रूप - तम आमवन्तम यजताम शूरम् धामेषु शाविष्ठम मित्राम यजाइ होत्राभ्यः अवस्ताई एक पूर्वी ईरानी भाषा है; जिसका ज्ञान आधुनिक युग में केवल पारसी धर्म के -ग्रन्थों, विशेष: अवेस्ता ए जैन्द के द्वारा प्राप्त हो पाया है। इतिहासकारों का मानना है के मध्य एशिया के बॅक्ट्रिया और मार्गु क्षेत्रों में स्थित याज़िदी संस्कृति में यह भाषा या इसकी उपभाषाएँ (1500-1100) ईसा पूर्व के काल में बोली जाती थीं। क्योंकि यह एक धार्मिक भाषा बन गई, इसलिए इस भाषा के साधारण जीवन से लुप्त होने के पश्चात भी इसका प्रयोग नए -ग्रन्थों को लिखने के लिए होता रहा। जड़े----- सन् 1500 ईसा पूर्व के युग की केवल दो ईरानी भाषाओँ की लिखित रचनाएँ मिली हैं। एक "प्राचीन अवस्ताई" है जो उत्तरपूर्व में बोली जाती थी और एक "प्राचीन फ़ारसी" है जो दक्षिण-पश्चिम में बोली जाती थी। ईरानी भाषाओँ में यह पूर्वी ईरानी भाषाओँ और पश्चिमी ईरानी भाषाओँ का एक बहुत बड़ा विभाजन है। आरम्भ में केवल एक "आदिम हिन्द-ईरानी भाषा" थी - इसी से हिन्द-ईरानी भाषा परिवार की सभी भाषाएँ जन्मी हैं, जिनमें संस्कृत, हिंदी, कश्मीरी, फ़ारसी, पश्तो सभी शामिल हैं। प्राचीन अवस्ताई उस युग की भाषा है जब पूर्वी ईरानी भाषाएँ और वैदिक संस्कृत बहुत मिलती-जुलती थीं। पश्चिमी ईरानी भाषाओं में कुछ बदलाव आ रहे थे ; जिस से वह वैदिक संस्कृत से थोड़ी भिन्न हो चुकी थी। कहा जा सकता है के प्राचीन अवस्ताई इन दोनों के बीच थी - यह वैदिक संस्कृत से बहुत मिलती-जुलती है और यह प्राचीन (पश्चिमी) फ़ारसी से भी मिलती जुलती है। अवस्ताई भाषा में रचनाएँ कम हैं इसलिए अवस्ताई शब्द-व्याकरण समझने के लिए भाषा वैज्ञानिक वैदिक संस्कृत का पहले अध्ययन कर उसकी सहायता लेते हैं । क्योंकि अवस्ताई और वैदिक संस्कृत में इस क्षेत्र में निकट का सम्बन्ध है। वस्त्र शब्द फारसी और संस्कृत में समान रूप से प्रचलित रहा है । __________________________________________ वास्तर्योशान यह ईरानी समाज में वे लोग थे ---जो द्रुज शाखा के थे ! जिन्हे कालान्तरण में दर्जी या दारेजी भी कहा गया है । ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी । वर्तमान सीरिया , जॉर्डन पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल, कनान तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे । यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है । अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्ध आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं । ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक यौद्धा कब़ीला है । इसके लिए देखें--- हिब्रू बाइबिल का -सृष्टि खण्ड (जेनेसिस)- शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी । यह तथ्य भी आधुनिक अन्वेषणों से उद् घाटित हुआ है पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को सॉडर (Souder ) तथा(Soldier )कहा जाता था । और सम्पूर्ण यूरोपीय भाषाओं में यह शब्द प्रचलित था । व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से शूद्र शब्द का अर्थ- --Celtic genus or tribe of a Scotis origin --- which was related to pictus; And waged in war, it was called Shudra (Shooter ) in Europe... एक स्कॉट्स मूल की कैल्टिक जन-जाति --जो पिक्टों से सम्बद्ध थी ; तथा युद्ध में वेतन लेकर युद्ध करती थी , वह यूरोप में शूद्र कहलाती थी । वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था । इस कारण ये सॉल्जर कह लाए .. ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे। __________________________________________ Shudras only mastered martial arts. Soldier or warrior in old French was called Soder Souder (Soldier). Originally-derived - One tribe who serves in the army for pay is called Souder .. In fact, gold coins in the Roman culture were called Solidus. Because of this, they called the Soldier. These people were called paintings... शूद्रों की एक शाखा को पिक्टस कहा गया। जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये । जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है । ---जो बाद में पख़्तो हो गया है । फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून भी इसी शब्द से सम्बद्ध हैं । हिन्दी पट्ठा या पट्ठे ! का विकास भी इसी शब्द से हुआ । ... क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर ये लोग सजात भीे भी थे । ताकि युद्ध काल में व्रण- संक्रमण (सैप्टिक )न हो सके । ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे । ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे । " The pictis were a tribal Confederadration of peThe pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland... " ये लोग यहाँ पर ड्रयूडों की शाखा से सम्बद्ध थे । भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे । मैसॉपोटामिया की धरा पर एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है। जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं । बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है । यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है। ये सैमेटिक जन-जाति के थे ; अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा । जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया । पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है । चन्द्र शब्द नहीं ... वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे ; जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ । मैसॉपोटामिया की असीरियन (असुर) अक्काडियन, हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डियन संस्कृति भी एक कणिका थी। भारतीय समाज की सदीयों से यही विडम्बना रही की यहाँ ब्राह्मण समाज ने ( उपनिषद कालीन ब्राह्मण समाज को छोड़कर) अशिक्षित जनमानस को दिग्भ्रमित करने वाली प्रमाण रूप बातों को बहुत ही सफाई से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है! और अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं सृजित की जिनका ऐैतिहासिक रूप से कहीं अस्तित्व नहीं था । लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन करने वाले ग्रन्थ हों सम्भव नहीं ! सब के सब जनता को पथ-भ्रमित करने के लिए एक अतिशयोक्ति और चाटूकारिता पूर्ण कल्पना मात्र हैं, जो लोगों को मानवता के पथ से विचलित कर रूढ़िगत मार्ग पर ढ़केल ले जाती हैं। जैसे ऋग्वेद जो अपौरुषेय वाणी बना हुआ भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पटल पर दौड़ लगा रहा है ! वह भी पारसीयों ( ईरानीयों) के सर्वमान्य ग्रन्थ जींद ए अवेस्ता का परिष्कृत संस्कृत रूपान्तरण है। दौनों में काफी साम्य देखने को मिलता है,। सम्भवत दौनों -ग्रन्थों का श्रोत समान रहा हो ! दौनों के पात्र एवं शब्द- समूह समान है । -जैसे यम विवस्वत् का पुत्र है । वृत्रघ्न , त्रित ,त्रितान अहिदास ,सोम ,वशिष्ठ ,अथर्वा, मित्र आदि को क्रमश यिम, विबनघत ,वेरेतघन ,सित, सिहतान ,अजिदाह ,हॉम वहिश्त ,अथरवा ,मिथ्र आदि दौनों की घटनाओं का भी समायोजन है । ऋग्वेद की प्रारम्भिक ऋचाओं का प्रणयन अजरवेज़ान ( आर्यन-आवास ) रूस तथा तुर्की के समीप वर्ती क्षेत्रों में हुआ । और दौनों -ग्रन्थों में जो विषमताएं देखने को मिलती हैं स्पष्टत: वे बहुत बाद की है । और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो ऋचाऐं हैं वे सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करती हैं 12 वें मंत्र (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है वही ऋचा यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है. ___________________________________________ ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12) इसमें प्रयुक्त क्रिया (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है । नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय लड्. लकार के क्रिया रूप हैं । तथा आसीत् अस् धातु का लड्. लकार का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है । तथा अजायत क्रिया जन् धातु का आत्मनेपदीय रूप एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम् प्रथमपुरुषःअजायत अजायेताम् अजायन्त मध्यमपुरुषःअजायथाः अजायेथाम् अजायध्वम् उत्तमपुरुषः अजाये अजायावहि अजायामहि लड्.( अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) लकार का प्रयोग हुआ है ---जो असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है । क्योंकि इस लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो। और अनद्यतन परोक्ष भूत काल में लिट् लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है क्योंकि इसका अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो ऐैतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है। और लड् लकार का प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है । वह भी व्याकरण नियम के विरुद्ध । अब लिट् लकार के क्रिया रूपों का वर्णन करते हैं :- लिट् लकार का क्रिया रूप--- प्रथमपुरुषः जज्ञे जज्ञाते जज्ञिरे मध्यमपुरुषः जज्ञिषे जज्ञाथे जज्ञिध्वे उत्तमपुरुषः. जज्ञे जज्ञिवहे जज्ञिमहे लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है । इनका कुछ और स्पष्टीकरण:- 2. लङ् -- Past tense - imperfect (लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था । भूतकाल का एक और लकार :-- 3. लुङ् -- Past tense - aorist लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- मैंने गाना खाया । व्याकरण शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है, जो कि बिना कार्रवाई के क्षणिक कार्रवाई को क्षणिक या निरन्तर दर्शाता था, इस संदर्भ के बिना पिछली कार्रवाई का संकेत देता है। 1. शास्त्रीय यूनानी के रूप में एक क्रिया काल, कार्रवाई व्यक्त, । अतीत में, पूरा होने, अवधि, या पुनरावृत्ति के रूप में आगे के निहितार्थ के बिना। समायोजन को दर्शाता है । अर्थात् एक साधारण भूतकाल, विशेष रूप से प्राचीन ग्रीक में, जो निरंतरता या क्षणिकता का संकेत नहीं देता है। अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें--- 4. लिट् -- Past tense - perfect( पूर्ण ) लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल । जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो जैसे :- राम ने रावण को मारा था । संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं 5. लुट् -- Future tense - likely 6. लृट् -- Future tense - certain 7. लृङ् -- Conditional mood 8. विधिलिङ् -- Potential mood 9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood 10. लोट् -- Imperative mood लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं -- लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है। दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं। इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :- (1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)। जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं। इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है। तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है। तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है. (2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है। वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है। जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं। उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं। वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुंलकार (Injunctive) (जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)। इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्. प्रकृति से भी बनते हैं। इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है। जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि। निश्चित रूप से पुरुष सूक्त पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ है । कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है । क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है। और वेद में केवल लिट् लकार व लेट् लकार का प्रयोग होता है । विशेषत: लेट लकार का .. जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र है । जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया। ईरानी समाज में वर्ग-व्यवस्था थी । जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे । वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था । और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे । परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया । यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी । ब्राह्मण जो स्वयं को आर्य मानते हैं वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं । क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे ? ये तो केवल आर्यों के चारण अथवा भाट होते थे । शोध के अनुसार ये केवल आर्यो के कबिलों के भाट थे ।जो अपने मालिकों का गुणगान करते थे । और उनकी वंशावली का इतिहास लिखते थे । उनसे ही इनकी जीविका चलती थी । वस्तुत: ये इनका धन्धा था , व्यवसाय था आज भी वही है बस ! धन्धे को इन्होंने धर्म बता दिया है । आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे ! उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था । जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है । वास्तव में ये सब गोलमाल है । कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है । न तो ये वैदिक ऋचाओं के अनुसार आर्य हैं और न वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ... क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है । ____________________________________ ब्राह्मणो८स्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ! उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रो८जायत !! (ऋग्वेद 10/90/12) इससे पहले की ऋचा "कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।। (ऋग्वेद 9/112//3) अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है । उपर्युक्त ऋचा में सामज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है । इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी आर्यों की व्यवस्था नहीं थी । ____________________________________________________ प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"
duniya ke saat ajoobe