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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है,

क्षितिज बीच अरुणोदय कांत।

लगे देखने लुब्ध नयन से,

प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत।

पाकयज्ञ करना निश्चित कर,

लगे शालियों को चुनने।

उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना,

लगी धूम-पट थी बुनने।

शुष्क डालियों से वृक्षों की,

अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध।

आहुति के नव धूमगंध से,

नभ-कानन हो गया समृद्ध।

और सोचकर अपने मन में,

"जैसे हम हैं बचे हुए।

क्या आश्चर्य और कोई हो

जीवन-लीला रचे हुए। "

अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ,

कहीं दूर रख आते थे।

होगा इससे तृप्त अपरिचित

समझ सहज सुख पाते थे।

दुख का गहन पाठ पढ़कर अब,

सहानुभूति समझते थे।

नीरवता की गहराई में,

मग्न अकेले रहते थे।

मनन किया करते वे बैठे,

ज्वलित अग्नि के पास वहाँ।

एक सजीव, तपस्या जैसे,

पतझड़ में कर वास रहा।

फिर भी धड़कन कभी हृदय में,

होती चिंता कभी नवीन।

यों ही लगा बीतने उनका,

जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।

प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे,

अंधकार की माया में।

रंग बदलते जो पल-पल में,

उस विराट की छाया में।

अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते,

प्रकृति सकर्मक रही समस्त।

निज अस्तित्व बना रखने में,

जीवन आज हुआ था व्यस्त।

तप में निरत हुए मनु,

नियमित-कर्म लगे अपना करने।

विश्वरंग में कर्मजाल के

सूत्र लगे घन हो घिरने।

उस एकांत नियति-शासन में,

चले विवश धीरे-धीरे।

एक शांत स्पंदन लहरों का,

होता ज्यों सागर-तीरे।

विजन जगत की तंद्रा में,

तब चलता था सूना सपना।

ग्रह-पथ के आलोक-वृत्त से,

काल जाल तनता अपना।

प्रहर, दिवस, रजनी आती थी,

चल-जाती संदेश-विहीन।

एक विरागपूर्ण संसृति में,

ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।

धवल,मनोहर चंद्रबिंब से,

अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ।

जिसमें शीतल पवन गा रहा,

पुलकित हो पावन उद्गीथ।

नीचे दूर-दूर विस्तृत था,

उर्मिल सागर व्यथित, अधीर।

अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा,

रहा चंद्रिका-निधि गंभीर।

खुलीं उसी रमणीय दृश्य में,

अलस चेतना की आँखें।

हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक

मधु से वे भीगी पाँखे।

व्यक्त नील में चल प्रकाश का,

कंपन सुख बन बजता था।

एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का,

मधुर रहस्य उलझता था।

नव हो जगी अनादि वासना,

मधुर प्राकृतिक भूख-समान।

चिर-परिचित-सा चाह रहा था,

द्वंद्व सुखद करके अनुमान।

दिवा-रात्रि या-मित्र वरुण की

बाला का अक्षय श्रृंगार,

मिलन लगा हँसने जीवन के,

उर्मिल सागर के उस पार।

तप से संयम का संचित बल,

तृषित और व्याकुल था आज।

अट्टाहास कर उठा रिक्त का,

वह अधीर-तम-सूना राज।

धीर-समीर-परस से पुलकित,

विकल हो चला श्रांत-शरीर।

आशा की उलझी अलकों से,

उठी लहर मधुगंध अधीर।

मनु का मन था विकल हो उठा,

संवेदन से खाकर चोट।

संवेदन जीवन जगती को,

जो कटुता से देता घोंट।

"आह कल्पना का सुंदर

यह जगत मधुर कितना होता!

सुख-स्वप्नों का दल छाया में,

पुलकित हो जगता-सोता।

संवेदन का और हृदय का,

यह संघर्ष न हो सकता।

फिर अभाव असफलताओं की,

गाथा कौन कहाँ बकता?

कब तक और अकेले?

कह दो हे मेरे जीवन बोलो!

किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत,

अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।"

"तम के सुंदरतम रहस्य,

हे कांति-किरण-रंजित तारा।

व्यथित विश्व के सात्विक शीतल,

बिंदु, भरे नव रस सारा।

आतप-तापित जीवन-सुख की,

शांतिमयी छाया के देश।

हे अनंत की गणना देते,

तुम कितना मधुमय संदेश।

आह शून्यते चुप होने में,

तू क्यों इतनी चतुर हुई?

इंद्रजाल-जननी रजनी तू,

क्यों अब इतनी मधुर हुई?"

"जब कामना सिंधु तट आई,

ले संध्या का तारा दीप।

फाड़ सुनहली साड़ी उसकी,

तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?

इस अनंत काले शासन का,

वह जब उच्छंखल इतिहास।

आँसू औ'तम घोल लिख रही,

तू सहसा करती मृदु हास।

विश्व कमल की मृदुल मधुकरी,

रजनी तू किस कोने से।

आती चूम-चूम चल जाती,

पढ़ी हुई किस टोने से।

किस दिंगत रेखा में इतनी,

संचित कर सिसकी-सी साँस।

यों समीर मिस हाँफ रही-सी,

चली जा रही किसके पास।

विकल खिलखिलाती है क्यों तू?

इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर।

तुहिन कणों, फेनिल लहरों में,

मच जावेगी फिर अंधेर।

घूँघट उठा देख मुस्काती,

किसे, ठिठकती-सी आती।

विजन गगन में किसी भूल सी

किसको स्मृति-पथ में लाती।

रजत-कुसुम के नव पराग-सी,

उडा न दे तू इतनी धूल।

इस ज्योत्सना की, अरी बावली,

तू इसमें जावेगी भूल।

पगली हाँ सम्हाल ले, कैसे

छूट पडा़ तेरा अँचल?

देख, बिखरती है मणिराजी,

अरी उठा बेसुध चंचल।

फटा हुआ था नील वसन क्या?

ओ यौवन की मतवाली।

देख अकिंचन जगत लूटता,

तेरी छवि भोली भाली।

ऐसे अतुल अंनत विभव में,

जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग?

या भूली-सी खोज़ रही कुछ,

जीवन की छाती के दाग।"

"मैं भी भूल गया हूँ कुछ, हाँ

स्मरण नहीं होता, क्या था?

प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या?

मन जिसमें सुख सोता था।

मिले कहीं वह पडा अचानक,

उसको भी न लुटा देना।

देख तुझे भी दूँगा तेरा,

भाग, न उसे भुला देना।"

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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