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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022

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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि,

तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक।

कर रहे निर्जन का चुपचाप,

प्रभा की धारा से अभिषेक?

मधुर विश्रांत और एकांत,

जगत का सुलझा हुआ रहस्य,

एक करुणामय सुंदर मौन,

और चंचल मन का आलस्य।

सुना यह मनु ने मधु गुंजार,

मधुकरी का-सा जब सानंद।

किये मुख नीचा कमल समान,

प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद।

एक झटका-सा लगा सहर्ष,

निरखने लगे लुटे-से,कौन-

गा रहा यह सुंदर संगीत?

कुतुहल रह न सका फिर मौन।

और देखा वह सुंदर दृश्य,

नयन का इद्रंजाल अभिराम।

कुसुम-वैभव में लता समान,

चंद्रिका से लिपटा घनश्याम।

हृदय की अनुकृति बाह्य उदार,

एक लम्बी काया, उन्मुक्त।

मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल,

सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त।

मसृण, गांधार देश के नील,

रोम वाले मेषों के चर्म।

ढक रहे थे उसका वपु कांत,

बन रहा था वह कोमल वर्म।

नील परिधान बीच सुकुमार,

खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।

खिला हो ज्यों बिजली का फूल,

मेघवन बीच गुलाबी रंग।

आह वह मुख पश्चिम के व्योम

बीच,जब घिरते हों घन श्याम,

अरुण रवि-मंडल उनको भेद,

दिखाई देता हो छविधाम।

या कि, नव इंद्रनील लघु श्रृंग

फोड़ कर धधक रही हो कांत।

एक ज्वालामुखी अचेत

माधवी रजनी में अश्रांत।

घिर रहे थे घुँघराले बाल,

अंस, अवलंबित मुख के पास।

नील घनशावक-से सुकुमार,

सुधा भरने को विधु के पास।

और, उस पर वह मुस्कान,

रक्त किसलय पर ले विश्राम।

अरुण की एक किरण अम्लान,

अधिक अलसाई हो अभिराम।

नित्य-यौवन छवि से ही दीप्त,

विश्व की करुण कामना मूर्ति।

स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण,

प्रकट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति।

ऊषा की पहिली लेखा कांत,

माधुरी से भीगी भर मोद।

मद भरी जैसे उठे सलज्ज,

भोर की तारक-द्युति की गोद।

कुसुम कानन अंचल में,

मंद-पवन प्रेरित सौरभ साकार।

रचित, परमाणु-पराग-शरीर,

खड़ा हो, ले मधु का आधार।

और, पडती हो उस पर शुभ्र,

नवल मधु-राका मन की साध।

हँसी का मदविह्वल प्रतिबिंब,

मधुरिमा खेला सदृश अबाध।

कहा मनु ने-"नभ धरणी बीच

बना जीचन रहस्य निरूपाय,

एक उल्का सा जलता भ्रांत,

शून्य में फिरता हूँ असहाय।

शैल निर्झर न बना हतभाग्य,

गल नहीं सका जो कि हिम-खंड।

दौड़ कर मिला न जलनिधि-अंक

आह वैसा ही हूँ पाषंड।

पहेली-सा जीवन है व्यस्त,

उसे सुलझाने का अभिमान।

बताता है विस्मृति का मार्ग,

चल रहा हूँ बनकर अनज़ान।

भूलता ही जाता दिन-रात,

सजल अभिलाषा कलित अतीत।

बढ़ रहा तिमिर-गर्भ में नित्य

दीन जीवन का यह संगीत।

क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उद्भ्रांत?

विवर में नील गगन के आज।

वायु की भटकी एक तरंग,

शून्यता का उज़ड़ा-सा राज़।

एक स्मृति का स्तूप अचेत,

ज्योति का धुँधला-सा प्रतिबिंब।

और जड़ता की जीवन-राशि,

सफलता का संकलित विलंब।"

"कौन हो तुम बंसत के दूत,

विरस पतझड़ में अति सुकुमार।

घन-तिमिर में चपला की रेख

तपन में शीतल मंद बयार।

नखत की आशा-किरण समान

हृदय के कोमल कवि की कांत।

कल्पना की लघु लहरी दिव्य,

कर रही मानस-हलचल शांत"।

लगा कहने आगंतुक व्यक्ति,

मिटाता उत्कंठा सविशेष।

दे रहा हो कोकिल सानंद

सुमन को ज्यों मधुमय संदेश।

"भरा था मन में नव उत्साह,

सीख लूँ ललित कला का ज्ञान।

इधर रही गन्धर्वों के देश,

पिता की हूँ प्यारी संतान।

घूमने का मेरा अभ्यास

बढ़ा था मुक्त-व्योम-तल नित्य,

कुतूहल खोज़ रहा था,व्यस्त

हृदय-सत्ता का सुंदर सत्य।

दृष्टि जब जाती हिमगिरी ओर,

प्रश्न करता मन अधिक अधीर।

धरा की यह सिकुडन भयभीत,

आह! कैसी है? क्या है? पीर?

मधुरिमा में अपनी ही मौन,

एक सोया संदेश महान।

सज़ग हो करता था संकेत,

चेतना मचल उठी अनजान।

बढ़ा मन और चले ये पैर,

शैल-मालाओं का शृंगार।

आँख की भूख मिटी यह देख

आह! कितना सुंदर संभार।

एक दिन सहसा सिंधु अपार,

लगा टकराने नद तल क्षुब्ध।

अकेला यह जीवन निरूपाय,

आज़ तक घूम रहा विश्रब्ध।

यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न,

भूत-हित-रत किसका यह दान।

इधर कोई है अभी सजीव,

हुआ ऐसा मन में अनुमान।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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