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इड़ा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत

अपने स्वार्थों से आवृत

हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत

सारी संसृति हो विरह भरी,

गाते ही बीतें करुण गीत

आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो

क्षितिज निराशा सदा रक्त

तुम राग-विराग करो सबसे

अपने को कर शतशः विभक्त

मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध,

दोनों में हो सद्भाव नहीं

वह चलने को जब कहे कहीं

तब हृदय विकल चल जाय कहीं

रोकर बीते सब वर्त्तमान

क्षण सुंदर अपना हो अतीत

पेंगों में झूलें हार-जीत।

संकुचित असीम अमोघ शक्ति

जीवन को बाधा-मय पथ पर

ले चले मेद से भरी भक्ति

या कभी अपूर्ण अहंता में हो

रागमयी-सी महासक्ति

व्यापकता नियति-प्रेरणा बन

अपनी सीमा में रहे बंद

सर्वज्ञ-ज्ञान का क्षुद्र-अशं

विद्या बनकर कुछ रचे छंद

करत्तृत्व-सकल बनकर आवे

नश्वर-छाया-सी ललित-कला

नित्यता विभाजित हो पल-पल में

काल निरंतर चले ढला

तुम समझ न सको, बुराई से

शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति

हो विफल तर्क से भरी युक्ति।

जीवन सारा बन जाये युद्ध

उस रक्त, अग्नि की वर्षा में

बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध

अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम

अपने ही होकर विरूद्ध

अपने को आवृत किये रहो

दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप

वसुधा के समतल पर उन्नत

चलता फिरता हो दंभ-स्तूप

श्रद्धा इस संसृति की रहस्य-

व्यापक, विशुद्ध, विश्वासमयी

सब कुछ देकर नव-निधि अपनी

तुमसे ही तो वह छली गयी

हो वर्त्तमान से वंचित तुम

अपने भविष्य में रहो रुद्ध

सारा प्रपंच ही हो अशुद्ध।

तुम जरा मरण में चिर अशांत

जिसको अब तक समझे थे

सब जीवन परिवर्त्तन अनंत

अमरत्व, वही भूलेगा तुम

व्याकुल उसको कहो अंत

दुखमय चिर चिंतन के प्रतीक

श्रद्धा-वमचक बनकर अधीर

मानव-संतति ग्रह-रश्मि-रज्जु से

भाग्य बाँध पीटे लकीर

'कल्याण भूमि यह लोक'

यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा।

अतिचारी मिथ्या मान इसे

परलोक-वंचना से भरा जा

आशाओं में अपने निराश

निज बुद्धि विभव से रहे भ्रांत

वह चलता रहे सदैव श्रांत।"

अभिशाप-प्रतिध्वनि हुई लीन

नभ-सागर के अंतस्तल में

जैसे छिप जाता महा मीन

मृदु-मरूत्-लहर में फेनोपम

तारागण झिलमिल हुए दीन

निस्तब्ध मौन था अखिल लोक

तंद्रालस था वह विजन प्रांत

रजनी-तम-पूंजीभूत-सदृश

मनु श्वास ले रहे थे अशांत

वे सोच रहे थे" आज वही

मेरा अदृष्ट बन फिर आया

जिसने डाली थी जीवन पर

पहले अपनी काली छाया

लिख दिया आज उसने भविष्य

यातना चलेगी अंतहीन

अब तो अवशिष्ट उपाय भी न।"

करती सरस्वती मधुर नाद

बहती थी श्यामल घाटी में

निर्लिप्त भाव सी अप्रमाद

सब उपल उपेक्षित पड़े रहे

जैसे वे निष्ठुर जड़ विषाद

वह थी प्रसन्नता की धारा

जिसमें था केवल मधुर गान

थी कर्म-निरंतरता-प्रतीक

चलता था स्ववश अनंत-ज्ञान

हिम-शीतल लहरों का रह-रह

कूलों से टकराते जाना

आलोक अरुण किरणों का उन पर

अपनी छाया बिखराना-

अदभुत था निज-निर्मित-पथ का

वह पथिक चल रहा निर्विवाद

कहता जाता कुछ सुसंवाद।

प्राची में फैला मधुर राग

जिसके मंडल में एक कमल

खिल उठा सुनहला भर पराग

जिसके परिमल से व्याकुल हो

श्यामल कलरव सब उठे जाग

आलोक-रश्मि से बुने उषा-

अंचल में आंदोलन अमंद

करता प्रभात का मधुर पवन

सब ओर वितरने को मरंद

उस रम्य फलक पर नवल चित्र सी

प्रकट हुई सुंदर बाला

वह नयन-महोत्सव की प्रतीक

अम्लान-नलिन की नव-माला

सुषमा का मंडल सुस्मित-सा

बिखरता संसृति पर सुराग

सोया जीवन का तम विराग।

वह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम

शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल

दो पद्म-पलाश चषक-से दृग

देते अनुराग विराग ढाल

गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश

वह आनन जिसमें भरा गान

वक्षस्थल पर एकत्र धरे

संसृति के सब विज्ञान ज्ञान

था एक हाथ में कर्म-कलश

वसुधा-जीवन-रस-सार लिये

दूसरा विचारों के नभ को था

मधुर अभय अवलंब दिये

त्रिवली थी त्रिगुण-तरंगमयी,

आलोक-वसन लिपटा अराल

चरणों में थी गति भरी ताल।

नीरव थी प्राणों की पुकार

मूर्छित जीवन-सर निस्तरंग

नीहार घिर रहा था अपार

निस्तब्ध अलस बन कर सोयी

चलती न रही चंचल बयार

पीता मन मुकुलित कंज आप

अपनी मधु बूँदे मधुर मौन

निस्वन दिगंत में रहे रुद्ध

सहसा बोले मनु " अरे कौन-

आलोकमयी स्मिति-चेतना

आयी यह हेमवती छाया'

तंद्रा के स्वप्न तिरोहित थे

बिखरी केवल उजली माया

वह स्पर्श-दुलार-पुलक से भर

बीते युग को उठता पुकार

वीचियाँ नाचतीं बार-बार।

प्रतिभा प्रसन्न-मुख सहज खोल

वह बोली-" मैं हूँ इड़ा, कहो

तुम कौन यहाँ पर रहे डोल"

नासिका नुकीली के पतले पुट

फरक रहे कर स्मित अमोल

" मनु मेरा नाम सुनो बाले

मैं विश्व पथिक स रहा क्लेश।"

" स्वागत पर देख रहे हो तुम

यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश

भौति हलचल से यह

चंचल हो उठा देश ही था मेरा

इसमें अब तक हूँ पड़ी

इस आशा से आये दिन मेरा।"

" मैं तो आया हूँ- देवि बता दो

जीवन का क्या सहज मोल

भव के भविष्य का द्वार खोल

इस विश्वकुहर में इंद्रजाल

जिसने रच कर फैलाया है

ग्रह, तारा, विद्युत, नखत-माल

सागर की भीषणतम तरंग-सा

खेल रहा वह महाकाल

तब क्या इस वसुधा के

लघु-लघु प्राणी को करने को सभीत

उस निष्ठुर की रचना कठोर

केवल विनाश की रही जीत

तब मूर्ख आज तक क्यों समझे हैं

सृष्टि उसे जो नाशमयी

उसका अधिपति होगा कोई,

जिस तक दुख की न पुकार गयी

सुख नीड़ों को घेरे रहता

अविरत विषाद का चक्रवाल

किसने यह पट है दिया डाल

शनि का सुदूर वह नील लोक

जिसकी छाया-फैला है

ऊपर नीचे यह गगन-शोक

उसके भी परे सुना जाता

कोई प्रकाश का महा ओक

वह एक किरण अपनी देकर

मेरी स्वतंत्रता में सहाय

क्या बन सकता है? नियति-जाल से

मुक्ति-दान का कर उपाय।"

कोई भी हो वह क्या बोले,

पागल बन नर निर्भर न करे

अपनी दुर्बलता बल सम्हाल

गंतव्य मार्ग पर पैर धरे-

मत कर पसार-निज पैरों चल,

चलने की जिसको रहे झोंक

उसको कब कोई सके रोक?

हाँ तुम ही हो अपने सहाय?

जो बुद्धि कहे उसको न मान कर

फिर किसकी नर शरण जाय

जितने विचार संस्कार रहे

उनका न दूसरा है उपाय

यह प्रकृति, परम रमणीय

अखिल-ऐश्वर्य-भरी शोधक विहीन

तुम उसका पटल खोलने में परिकर

कस कर बन कर्मलीन

सबका नियमन शासन करते

बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता

तुम ही इसके निर्णायक हो,

हो कहीं विषमता या समता

तुम जड़ा को चैतन्या करो

विज्ञान सहज साधन उपाय

यश अखिल लोक में रहे छाय।"

हँस पड़ा गगन वह शून्य लोक

जिसके भीतर बस कर उजड़े

कितने ही जीवन मरण शोक

कितने हृदयों के मधुर मिलन

क्रंदन करते बन विरह-कोक

ले लिया भार अपने सिर पर

मनु ने यह अपना विषम आज

हँस पड़ी उषा प्राची-नभ में

देखे नर अपना राज-काज

चल पड़ी देखने वह कौतुक

चंचल मलयाचल की बाला

लख लाली प्रकृति कपोलों में

गिरता तारा दल मतवाला

उन्निद्र कमल-कानन में

होती थी मधुपों की नोक-झोंक

वसुधा विस्मृत थी सकल-शोक।

"जीवन निशीथ का अधंकार

भग रहा क्षितिज के अंचल में

मुख आवृत कर तुमको निहार

तुम इड़े उषा-सी आज यहाँ

आयी हो बन कितनी उदार

कलरव कर जाग पड़े

मेरे ये मनोभाव सोये विहंग

हँसती प्रसन्नता चाव भरी

बन कर किरनों की सी तरंग

अवलंब छोड़ कर औरों का

जब बुद्धिवाद को अपनाया

मैं बढा सहज, तो स्वयं

बुद्धि को मानो आज यहाँ पाया

मेरे विकल्प संकल्प बनें,

जीवन ही कर्मों की पुकार

सुख साधन का हो खुला द्वार।"

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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