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दर्शन (भाग 1)

19 अप्रैल 2022

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वह चंद्रहीन थी एक रात,

जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ

उजले-उजले तारक झलमल,

प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,

धारा बह जाती बिंब अटल,

खुलता था धीरे पवन-पटल

चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत

सुनती जैसे कुछ निजी बात।

धूमिल छायायें रहीं घूम,

लहरी पैरों को रही चूम,

"माँ तू चल आयी दूर इधर,

सन्ध्या कब की चल गयी उधर,

इस निर्जन में अब कया सुंदर-

तू देख रही, माँ बस चल घर

उसमें से उठता गंध-धूम"

श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।

"माँ क्यों तू है इतनी उदास,

क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,

तू कई दिनों से यों चुप रह,

क्या सोच रही? कुछ तो कह,

यह कैसा तेरा दुख-दुसह,

जो बाहर-भीतर देता दह,

लेती ढीली सी भरी साँस,

जैसी होती जाती हताश।"

वह बोली "नील गगन अपार,

जिसमें अवनत घन सजल भार,

आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल

शिशु सा आता कर खेल अनिल,

फिर झलमल सुंदर तारक दल,

नभ रजनी के जुगुनू अविरल,

यह विश्व अरे कितना उदार,

मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।

यह लोचन-गोचर-सकल-लोक,

संसृति के कल्पित हर्ष शोक,

भावादधि से किरनों के मग,

स्वाती कन से बन भरते जग,

उत्थान-पतनमय सतत सजग,

झरने झरते आलिगित नग,

उलझन मीठी रोक टोक,

यह सब उसकी है नोंक झोंक।

जग, जगता आँखे किये लाल,

सोता ओढे तम-नींद-जाल,

सुरधनु सा अपना रंग बदल,

मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल,

अपनी सुषमा में यह झलमल,

इस पर खिलता झरता उडुदल,

अवकाश-सरोवर का मराल,

कितना सुंदर कितना विशाल

इसके स्तर-स्तर में मौन शांति,

शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति,

परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल,

मुस्क्याते इसमें भाव सकल,

हँसता है इसमें कोलाहल,

उल्लास भरा सा अंतस्तल,

मेरा निवास अति-मधुर-काँति,

यह एक नीड है सुखद शांति

"अबे फिर क्यों इतना विराग,

मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?"

पीछे मुड श्रद्धा ने देखा,

वह इडा मलिन छवि की रेखा,

ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा,

जिस पर विषाद की विष-रेखा,

कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग,

सोया जिसका है भाग्य, जाग।

बोली "तुमसे कैसी विरक्ति,

तुम जीवन की अंधानुरक्ति,

मुझसे बिछुडे को अवलंबन,

देकर, तुमने रक्खा जीवन,

तुम आशामयि चिर आकर्षण,

तुम मादकता की अवनत धन,

मनु के मस्तककी चिर-अतृप्ति,

तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति

मैं क्या तुम्हें दे सकती मोल,

यह हृदय अरे दो मधुर बोल,

मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ,

मैं पाती हूँ खो देती हूँ,

इससे ले उसको देती हूँ,

मैं दुख को सुख कर लेती हूँ,

अनुराग भरी हूँ मधुर घोल,

चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।

यह प्रभापूर्ण तव मुख निहार,

मनु हत-चेतन थे एक बार,

नारी माया-ममता का बल,

वह शक्तिमयी छाया शीतल,

फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल,

जिससे यह धन्य बने भूतल,

'तुम क्षमा करोगी' यह विचार

मैं छोडूँ कैसे साधिकार।"

"अब मैं रह सकती नहीं मौन,

अपराधी किंतु यहाँ न कौन?

सुख-दुख जीवन में सब सहते,

पर केव सुख अपना कहते,

अधिकार न सीमा में रहते।

पावस-निर्झर-से वे बहते,

रोके फिर उनको भला कौन?

सब को वे कहते-शत्रु हो न"

अग्रसर हो रही यहाँ फूट,

सीमायें कृत्रिम रहीं टूट,

श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें,

अपने बल का है गर्व उन्हें,

नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें,

विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें,

सब पिये मत्त लालसा घूँट,

मेरा साहस अब गया छूट।

मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध,

अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध,

मेरे सुविभाजन हुए विषम,

टूटते, नित्य बन रहे नियम

नाना केंद्रों में जलधर-सम,

घिर हट, बरसे ये उपलोपम

यह ज्वाला इतनी है समिद्ध,

आहुति बस चाह रही समृद्ध।

तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत,

संहार-बध्य असहाय दांत,

प्राणी विनाश-मुख में अविरल,

चुपचाप चले होकर निर्बल

संघर्ष कर्म का मिथ्या बल,

ये शक्ति-चिन्ह, ये यज्ञ विफल,

भय की उपासना प्रणाति भ्रांत

अनिशासन की छाया अशांत

तिस पर मैंने छीना सुहाग,

हे देवि तुम्हारा दिव्य-राग,

मैम आज अकिंचन पाती हूँ,

अपने को नहीं सुहाती हूँ,

मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ,

वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ,

दो क्षमा, न दो अपना विराग,

सोयी चेतनता उठे जाग।"

"है रुद्र-रोष अब तक अशांत"

श्रद्धा बोली, " बन विषम ध्वांत

सिर चढी रही पाया न हृदय

तू विकल कर रही है अभिनय,

अपनापन चेतन का सुखमय

खो गया, नहीं आलोक उदय,

सब अपने पथ पर चलें श्रांत,

प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।

जीवन धारा सुंदर प्रवाह,

सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह,

ओ तर्कमयी तू गिने लहर,

प्रतिबिंबित तारा पकड, ठहर,

तू रुक-रुक देखे आठ पहर,

वह जडता की स्थिति, भूल न कर,

सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह,

तू ने छोडी यह सरल राह।

चेतनता का भौतिक विभाग-

कर, जग को बाँट दिया विराग,

चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत,

वह रूप बदलता है शत-शत,

कण विरह-मिलन-मय-नृत्य-निरत

उल्लासपूर्ण आनंद सतत

तल्लीन-पूर्ण है एक राग,

झंकृत है केवल 'जाग जाग'

मैं लोक-अग्नि में तप नितांत,

आहुति प्रसन्न देती प्रशांत,

तू क्षमा न कर कुछ चाह रही,

जलती छाती की दाह रही,

तू ले ले जो निधि पास रही,

मुझको बस अपनी राह रही,

रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत,

विनिमय कर दे कर कर्म कांत।

तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति,

शासक बन फैलाओ न भीती,

मैं अपने मनु को खोज चली,

सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,

वह भोला इतना नहीं छली

मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली,

तब देखूँ कैसी चली रीति,

मानव तेरी हो सुयश गीति।"

बोला बालक " ममता न तोड,

जननी मुझसे मुँह यों न मोड,

तेरी आज्ञा का कर पालन,

वह स्नेह सदा करता लालन।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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