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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?

वेदना का यह कैसा वेग?

आह!तुम कितने अधिक हताश,

बताओ यह कैसा उद्वेग?

हृदय में क्या है नहीं अधीर,

लालसा की निश्शेष?

कर रहा वंचित कहीं न त्याग,

तुम्हें,मन में धर सुंदर वेश।

दुख के डर से तुम अज्ञात,

जटिलताओं का कर अनुमान।

काम से झिझक रहे हो आज़,

भविष्य से बनकर अनजान।

कर रही लीलामय आनंद,

महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त।

विश्व का उन्मीलन अभिराम,

इसी में सब होते अनुरक्त।

काम-मंगल से मंडित श्रेय,

सर्ग इच्छा का है परिणाम।

तिरस्कृत कर उसको तुम भूल,

बनाते हो असफल भवधाम"

"दुःख की पिछली रजनी बीच,

विकसता सुख का नवल प्रभात।

एक परदा यह झीना नील,

छिपाये है जिसमें सुख गात।

जिसे तुम समझे हो अभिशाप,

जगत की ज्वालाओं का मूल।

ईश का वह रहस्य वरदान,

कभी मत इसको जाओ भूल।

विषमता की पीडा से व्यक्त,

हो रहा स्पंदित विश्व महान।

यही दुख-सुख विकास का सत्य,

यही भूमा का मधुमय दान।

नित्य समरसता का अधिकार,

उमडता कारण-जलधि समान।

व्यथा से नीली लहरों बीच

बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"

लगे कहने मनु सहित विषाद-

"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वास।

अधिक उत्साह तरंग अबाध,

उठाते मानस में सविलास।

किंतु जीवन कितना निरूपाय!

लिया है देख, नहीं संदेह।

निराशा है जिसका कारण,

सफलता का वह कल्पित गेह।"

कहा आगंतुक ने सस्नेह-

"अरे, तुम इतने हुए अधीर।

हार बैठे जीवन का दाँव,

जीतते मर कर जिसको वीर।

तप नहीं केवल जीवन-सत्य,

करुण यह क्षणिक दीन अवसाद।

तरल आकांक्षा से है भरा,

सो रहा आशा का आल्हाद।

प्रकृति के यौवन का श्रृंगार,

करेंगे कभी न बासी फूल।

मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र,

आह उत्सुक है उनकी धूल।

पुरातनता का यह निर्मोक,

सहन करती न प्रकृति पल एक।

नित्य नूतनता का आंनद,

किये है परिवर्तन में टेक।

युगों की चट्टानों पर सृष्टि,

डाल पद-चिह्न चली गंभीर।

देव,गंधर्व,असुर की पंक्ति,

अनुसरण करती उसे अधीर।"

"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड,

प्रकृति वैभव से भरा अमंद।

कर्म का भोग, भोग का कर्म,

यही जड़ का चेतन-आनन्द।

अकेले तुम कैसे असहाय,

यजन कर सकते? तुच्छ विचार।

तपस्वी! आकर्षण से हीन,

कर सके नहीं आत्म-विस्तार।

दब रहे हो अपने ही बोझ,

खोजते भी नहीं कहीं अवलंब।

तुम्हारा सहचर बन कर क्या न,

उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?

समर्पण लो-सेवा का सार,

सजल संसृति का यह पतवार।

आज से यह जीवन उत्सर्ग,

इसी पद-तल में विगत-विकार।

दया, माया, ममता लो आज,

मधुरिमा लो, अगाध विश्वास।

हमारा हृदय-रत्न-निधि स्वच्छ,

तुम्हारे लिए खुला है पास।

बनो संसृति के मूल रहस्य,

तुम्हीं से फैलेगी वह बेल।

विश्व-भर सौरभ से भर जाय

सुमन के खेलो सुंदर खेल।"

"और यह क्या तुम सुनते नहीं,

विधाता का मंगल वरदान।

'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'

विश्व में गूँज रहा जय-गान।

डरो मत, अरे अमृत संतान,

अग्रसर है मंगलमय वृद्धि।

पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र,

खिंची आवेगी सकल समृद्धि।

देव-असफलताओं का ध्वंस

प्रचुर उपकरण जुटाकर आज।

पड़ा है बन मानव-सम्पत्ति

पूर्ण हो मन का चेतन-राज।

चेतना का सुंदर इतिहास,

अखिल मानव भावों का सत्य।

विश्व के हृदय-पटल पर दिव्य,

अक्षरों से अंकित हो नित्य।

विधाता की कल्याणी सृष्टि,

सफल हो इस भूतल पर पूर्ण।

पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज,

और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।

उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प,

कुचलती रहे खड़ी सानंद,

आज से मानवता की कीर्ति,

अनिल, भू, जल में रहे न बंद।

जलधि के फूटें कितने उत्स-

द्वीफ-कच्छप डूबें-उतरायें।

किन्तु वह खड़ी रहे दृढ-मूर्ति

अभ्युदय का कर रही उपाय।

विश्व की दुर्बलता बल बने,

पराजय का बढ़ता व्यापार।

हँसाता रहे उसे सविलास,

शक्ति का क्रीड़ामय संचार।

शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त,

विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय।

समन्वय उसका करे समस्त

विजयिनी मानवता हो जाय"।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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