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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022

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चल पड़े कब से हृदय दो,

पथिक-से अश्रांत।

यहाँ मिलने के लिये,

जो भटकते थे भ्रांत।

एक गृहपति, दूसरा था

अतिथि विगत-विकार।

प्रश्न था यदि एक,

तो उत्तर द्वितीय उदार।

एक जीवन-सिंधु था,

तो वह लहर लघु लोल।

एक नवल प्रभात,

तो वह स्वर्ण-किरण अमोल।

एक था आकाश वर्षा

का सजल उद्धाम।

दूसरा रंजित किरण से

श्री-कलित घनश्याम।

नदी-तट के क्षितिज में

नव जलद सांयकाल।

खेलता दो बिजलियों से

ज्यों मधुरिमा-जाल।

लड़ रहे थे अविरत युगल

थे चेतना के पाश।

एक सकता था न

कोई दूसरे को फाँस।

था समर्पण में ग्रहण का

एक सुनिहित भाव।

थी प्रगति, पर अड़ा रहता

था सतत अटकाव।

चल रहा था विजन-पथ पर

मधुर जीवन-खेल।

दो अपरिचित से नियति

अब चाहती थी मेल।

नित्य परिचित हो रहे

तब भी रहा कुछ शेष।

गूढ अंतर का छिपा

रहता रहस्य विशेष।

दूर, जैसे सघन वन-पथ

अंत का आलोक।

सतत होता जा रहा हो,

नयन की गति रोक।

गिर रहा निस्तेज गोलक

जलधि में असहाय।

घन-पटल में डूबता था

किरण का समुदाय।

कर्म का अवसाद दिन से

कर रहा छल-छंद।

मधुकरी का सुरस-संचय

हो चला अब बंद।

उठ रही थी कालिमा

धूसर क्षितिज से दीन।

भेंटता अंतिम अरूण

आलोक-वैभव-हीन।

यह दरिद्र-मिलन रहा

रच एक करूणा लोक।

शोक भर निर्जन निलय से

बिछुड़ते थे कोक।

मनु अभी तक मनन करते

थे लगाये ध्यान।

काम के संदेश से ही

भर रहे थे कान।

इधर गृह में आ जुटे थे

उपकरण अधिकार।

शस्य, पशु या धान्य

का होने लगा संचार।

नई इच्छा खींच लाती,

अतिथि का संकेत।

चल रहा था सरल-शासन

युक्त-सुरूचि-समेत।

देखते थे अग्निशाला

से कुतुहल-युक्त।

मनु चमत्कृत निज नियति

का खेल बंधन-मुक्त।

एक माया आ रहा था

पशु अतिथि के साथ।

हो रहा था मोह

करुणा से सजीव सनाथ।

चपल कोमल-कर रहा

फिर सतत पशु के अंग।

स्नेह से करता चमर

उदग्रीव हो वह संग।

कभी पुलकित रोम राजी

से शरीर उछाल।

भाँवरों से निज बनाता

अतिथि सन्निधि जाल।

कभी निज़ भोले नयन से

अतिथि बदन निहार।

सकल संचित-स्नेह

देता दृष्टि-पथ से ढार।

और वह पुचकारने का

स्नेह शबलित चाव।

मंजु ममता से मिला

बन हृदय का सदभाव।

देखते-ही-देखते

दोनों पहुँच कर पास।

लगे करने सरल शोभन

मधुर मुग्ध विलास।

वह विराग-विभूति

ईर्षा-पवन से हो व्यस्त।

बिखरती थी और खुलते थे

ज्वलन-कण जो अस्त।

किन्तु यह क्या?

एक तीखी घूँट, हिचकी आह!

कौन देता है हृदय में

वेदनामय डाह?

"आह यह पशु और

इतना सरल सुन्दर स्नेह!

पल रहे मेरे दिये जो

अन्न से इस गेह।

मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते

सभी निज भाग।

और देते फेंक मेरा

प्राप्य तुच्छ विराग।

अरी नीच कृतघ्नते!

पिच्छल-शिला-संलग्न।

मलिन काई-सी करेगी

कितने हृदय भग्न?

हृदय का राजस्व अपहृत

कर अधम अपराध।

दस्यु मुझसे चाहते हैं

सुख सदा निर्बाध।

विश्व में जो सरल सुंदर

हो विभूति महान।

सभी मेरी हैं, सभी

करती रहें प्रतिदान।

यही तो, मैं ज्वलित

वाडव-वह्नि नित्य-अशांत।

सिंधु लहरों सा करें

शीतल मुझे सब शांत।"

आ गया फिर पास

क्रीड़ाशील अतिथि उदार।

चपल शैशव सा मनोहर

भूल का ले भार।

कहा "क्यों तुम अभी

बैठे ही रहे धर ध्यान।

देखती हैं आँख कुछ,

सुनते रहे कुछ कान-

मन कहीं, यह क्या हुआ है?

आज कैसा रंग?"

नत हुआ फण दृप्त

ईर्षा का, विलीन उमंग।

और सहलाने लागा कर

कमल कोमल कांत।

देख कर वह रूप -सुषमा

मनु हुए कुछ शांत।

कहा "अतिथि! कहाँ रहे

तुम किधर थे अज्ञात?

और यह सहचर तुम्हारा

कर रहा ज्यों बात।

किसी सुलभ भविष्य की,

क्यों आज अधिक अधीर?

मिल रहा तुमसे चिरंतन

स्नेह सा गंभीर?

कौन हो तुम खींचते यों

मुझे अपनी ओर।

ओर ललचाते स्वयं

हटते उधर की ओर।

ज्योत्स्ना-निर्झर ठहरती

ही नहीं यह आँख।

तुम्हें कुछ पहचानने की

खो गयी-सी साख।

कौन करूण रहस्य है

तुममें छिपा छविमान?

लता वीरूध दिया करते

जिसमें छायादान।

पशु कि हो पाषाण

सब में नृत्य का नव छंद।

एक आलिगंन बुलाता

सभा का सानंद।

राशि-राशि बिखर पड़ा

है शांत संचित प्यार।

रख रहा है उसे ढोकर

दीन विश्व उधार।

देखता हूँ चकित जैसे

ललित लतिका-लास।

अरुण घन की सजल

छाया में दिनांत निवास।

और उसमें हो चला

जैसे सहज सविलास।

मदिर माधव-यामिनी का

धीर-पद-विन्यास।

आह यह जो रहा

सूना पड़ा कोना दीन।

ध्वस्त मंदिर का,

बसाता जिसे कोई भी न।

उसी में विश्राम माया का

अचल आवास।

अरे यह सुख नींद कैसी,

हो रहा हिम-हास!

वासना की मधुर छाया!

स्वास्थ्य, बल, विश्राम!

हदय की सौंदर्य-प्रतिमा!

कौन तुम छविधाम?

कामना की किरण का

जिसमें मिला हो ओज़।

कौन हो तुम, इसी

भूले हृदय की चिर-खोज़?

कुंद-मंदिर-सी हँसी

ज्यों खुली सुषमा बाँट,

क्यों न वैसे ही खुला

यह हृदय रुद्ध-कपाट?

कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं,

और परिचय व्यर्थ।

तुम कभी उद्विग्न

इतने थे न इसके अर्थ।

चलो, देखो वह चला

आता बुलाने आज।

सरल हँसमुख विधु जलद-

लघु-खंड-वाहन साज़।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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