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संघर्ष (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

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आह न समझोगे क्या

मेरी अच्छी बातें,

तुम उत्तेजित होकर

अपना प्राप्य न पाते।

प्रजा क्षुब्ध हो शरण

माँगती उधर खडी है,

प्रकृति सतत आतंक

विकंपित घडी-घडी है।

साचधान, में शुभाकांक्षिणी

और कहूँ क्या

कहना था कह चुकी

और अब यहाँ रहूँ क्या"

"मायाविनि, बस पाली

तमने ऐसे छुट्टी,

लडके जैसे खेलों में

कर लेते खुट्टी।

मूर्तिमयी अभिशाप बनी

सी सम्मुख आयी,

तुमने ही संघर्ष

भूमिका मुझे दिखायी।

रूधिर भरी वेदियाँ

भयकरी उनमें ज्वाला,

विनयन का उपचार

तुम्हीं से सीख निकाला।

चार वर्ण बन गये

बँटा श्रम उनका अपना

शस्त्र यंत्र बन चले,

न देखा जिनका सपना।

आज शक्ति का खेल

खेलने में आतुर नर,

प्रकृति संग संघर्ष

निरंतर अब कैसा डर?

बाधा नियमों की न

पास में अब आने दो

इस हताश जीवन में

क्षण-सुख मिल जाने दो।

राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो

सब कुछ वैभव अपना,

केवल तुमको सब उपाय से

कह लूँ अपना।

यह सारस्वत देश या कि

फिर ध्वंस हुआ सा

समझो, तुम हो अग्नि

और यह सभी धुआँ सा?"

"मैंने जो मनु, किया

उसे मत यों कह भूलो,

तुमको जितना मिला

उसी में यों मत फूलो।

प्रकृति संग संघर्ष

सिखाया तुमको मैंने,

तुमको केंद्र बनाकर

अनहित किया न मैंने

मैंने इस बिखरी-बिभूति

पर तुमको स्वामी,

सहज बनाया, तुम

अब जिसके अंतर्यामी।

किंतु आज अपराध

हमारा अलग खड़ा है,

हाँ में हाँ न मिलाऊँ

तो अपराध बडा है।

मनु देखो यह भ्रांत

निशा अब बीत रही है,

प्राची में नव-उषा

तमस् को जीत रही है।

अभी समय है मुझ पर

कुछ विश्वास करो तो।'

बनती है सब बात

तनिक तुम धैर्य धरो तो।"

और एक क्षण वह,

प्रमाद का फिर से आया,

इधर इडा ने द्वार ओर

निज पैर बढाया।

किंतु रोक ली गयी

भुजाओं की मनु की वह,

निस्सहाय ही दीन-दृष्टि

देखती रही वह।

"यह सारस्वत देश

तुम्हारा तुम हो रानी।

मुझको अपना अस्त्र

बना करती मनमानी।

यह छल चलने में अब

पंगु हुआ सा समझो,

मुझको भी अब मुक्त

जाल से अपने समझो।

शासन की यह प्रगति

सहज ही अभी रुकेगी,

क्योंकि दासता मुझसे

अब तो हो न सकेगी।

मैं शासक, मैं चिर स्वतंत्र,

तुम पर भी मेरा-

हो अधिकार असीम,

सफल हो जीवन मेरा।

छिन्न भिन्न अन्यथा

हुई जाती है पल में,

सकल व्यवस्था अभी

जाय डूबती अतल में।

देख रहा हूँ वसुधा का

अति-भय से कंपन,

और सुन रहा हूँ नभ का

यह निर्मम-क्रंदन

किंतु आज तुम

बंदी हो मेरी बाँहों में,

मेरी छाती में,"-फिर

सब डूबा आहों में

सिंहद्वार अरराया

जनता भीतर आयी,

"मेरी रानी" उसने

जो चीत्कार मचायी।

अपनी दुर्बलता में

मनु तब हाँफ रहे थे,

स्खलन विकंपित पद वे

अब भी काँप रहे थे।

सजग हुए मनु वज्र-

खचित ले राजदंड तब,

और पुकारा "तो सुन लो-

जो कहता हूँ अब।

"तुम्हें तृप्तिकर सुख के

साधन सकल बताया,

मैंने ही श्रम-भाग किया

फिर वर्ग बनाया।

अत्याचार प्रकृति-कृत

हम सब जो सहते हैं,

करते कुछ प्रतिकार

न अब हम चुप रहते हैं

आज न पशु हैं हम,

या गूँगे काननचारी,

यह उपकृति क्या

भूल गये तुम आज हमारी"

वे बोले सक्रोध मानसिक

भीषण दुख से,

"देखो पाप पुकार उठा

अपने ही सुख से

तुमने योगक्षेम से

अधिक संचय वाला,

लोभ सिखा कर इस

विचार-संकट में डाला।

हम संवेदनशील हो चले

यही मिला सुख,

कष्ट समझने लगे बनाकर

निज कृत्रिम दुख

प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों

से सब की छीनी

शोषण कर जीवनी

बना दी जर्जर झीनी

और इड़ा पर यह क्या

अत्याचार किया है?

इसीलिये तू हम सब के

बल यहाँ जिया है?

आज बंदिनी मेरी

रानी इड़ा यहाँ है?

ओ यायावर अब

मेरा निस्तार कहाँ है?"

"तो फिर मैं हूँ आज

अकेला जीवन रभ में,

प्रकृति और उसके

पुतलों के दल भीषण में।

आज साहसिक का पौरुष

निज तन पर खेलें,

राजदंड को वज्र बना

सा सचमुच देखें।"

यों कह मनु ने अपना

भीषण अस्त्र सम्हाला,

देव 'आग' ने उगली

त्यों ही अपनी ज्वाला।

छूट चले नाराच धनुष

से तीक्ष्ण नुकीले,

टूट रहे नभ-धूमकेतु

अति नीले-पीले।

अंधड थ बढ रहा,

प्रजा दल सा झुंझलाता,

रण वर्षा में शस्त्रों सा

बिजली चमकाता।

किंतु क्रूर मनु वारण

करते उन बाणों को,

बढे कुचलते हुए खड्ग से

जन-प्राणों को।

तांडव में थी तीव्र प्रगति,

परमाणु विकल थे,

नियति विकर्षणमयी,

त्रास से सब व्याकुल थे।

मनु फिर रहे अलात-

चक्र से उस घन-तम में,

वह रक्तिम-उन्माद

नाचता कर निर्मम में।

उठ तुमुल रण-नाद,

भयानक हुई अवस्था,

बढा विपक्ष समूह

मौन पददलित व्यवस्था।

आहत पीछे हटे, स्तंभ से

टिक कर मनु ने,

श्वास लिया, टंकार किया

दुर्लक्ष्यी धनु ने।

बहते विकट अधीर

विषम उंचास-वात थे,

मरण-पर्व था, नेता

आकुलि औ' किलात थे।

ललकारा, "बस अब

इसको मत जाने देना"

किंतु सजग मनु पहुँच

गये कह "लेना लेना"।

"कायर, तुम दोनों ने ही

उत्पात मचाया,

अरे, समझकर जिनको

अपना था अपनाया।

तो फिर आओ देखो

कैसे होती है बलि,

रण यह यज्ञ, पुरोहित

ओ किलात औ' आकुलि।

और धराशायी थे

असुर-पुरोहित उस क्षण,

इड़ा अभी कहती जाती थी

"बस रोको रण।

भीषन जन संहार

आप ही तो होता है,

ओ पागल प्राणी तू

क्यों जीवन खोता है

क्यों इतना आतंक

ठहर जा ओ गर्वीले,

जीने दे सबको फिर

तू भी सुख से जी ले।"

किंतु सुन रहा कौण

धधकती वेदी ज्वाला,

सामूहिक-बलि का

निकला था पंथ निराला।

रक्तोन्मद मनु का न

हाथ अब भी रुकता था,

प्रजा-पक्ष का भी न

किंतु साहस झुकता था।

वहीं धर्षिता खड़ी

इड़ा सारस्वत-रानी,

वे प्रतिशोध अधीर,

रक्त बहता बन पानी।

धूंकेतु-सा चला

रुद्र-नाराच भयंकर,

लिये पूँछ में ज्वाला

अपनी अति प्रलयंकर।

अंतरिक्ष में महाशक्ति

हुंकार कर उठी

सब शस्त्रों की धारें

भीषण वेग भर उठीं।

और गिरीं मनु पर,

मुमूर्व वे गिरे वहीं पर,

रक्त नदी की बाढ-

फैलती थी उस भू पर।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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