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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022

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ऊषा सुनहले तीर बरसती,

जयलक्ष्मी-सी उदित हुई।

उधर पराजित काल रात्रि भी

जल में अतंर्निहित हुई।

वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का,

आज लगा हँसने फिर से।

वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में,

शरद-विकास नये सिर से।

नव कोमल आलोक बिखरता,

हिम-संसृति पर भर अनुराग।

सित सरोज पर क्रीड़ा करता,

जैसे मधुमय पिंग पराग।

धीरे-धीरे हिम-आच्छादन,

हटने लगा धरातल से।

जगीं वनस्पतियाँ अलसाई,

मुख धोतीं शीतल जल से।

नेत्र निमीलन करती मानों,

प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने।

जलधि लहरियों की अँगड़ाई,

बार-बार जाती सोने।

सिंधुसेज पर धरा वधू अब,

तनिक संकुचित बैठी-सी।

प्रलय निशा की हलचल स्मृति में,

मान किये सी ऐठीं-सी।

देखा मनु ने वह अतिरंजित,

विजन का नव एकांत।

जैसे कोलाहल सोया हो

हिम-शीतल-जड़ता-सा श्रांत।

इंद्रनीलमणि महा चषक था,

सोम-रहित उलटा लटका।

आज पवन मृदु साँस ले रहा,

जैसे बीत गया खटका।

वह विराट था हेम घोलता,

नया रंग भरने को आज।

'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक,

और कुतूहल का था राज़!

"विश्वदेव, सविता या पूषा,

सोम, मरूत, चंचल पवमान।

वरूण आदि सब घूम रहे हैं,

किसके शासन में अम्लान?

किसका था भू-भंग प्रलय-सा,

जिसमें ये सब विकल रहे।

अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न,

ये फिर भी कितने निबल रहे!

विकल हुआ सा काँप रहा था,

सकल भूत चेतन समुदाय।

उनकी कैसी बुरी दशा थी,

वे थे विवश और निरुपाय।

देव न थे हम और न ये हैं,

सब परिवर्तन के पुतले।

हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा,

जितना जो चाहे जुत ले।

"महानील इस परम व्योम में,

अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान।

ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण

किसका करते से-संधान!

छिप जाते हैं और निकलते,

आकर्षण में खिंचे हुए।

तृण, वीरुध लहलहे हो रहे

किसके रस से सिंचे हुए?

सिर नीचा कर किसकी सत्ता,

सब करते स्वीकार यहाँ।

सदा मौन हो प्रवचन करते,

जिसका, वह अस्तित्व कहाँ?

हे अनंत रमणीय कौन तुम?

यह मैं कैसे कह सकता।

कैसे हो? क्या हो? इसका तो,

भार विचार न सह सकता।

हे विराट! हे विश्वदेव!

तुम कुछ हो,ऐसा होता भान।

मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत,

यही कर रहा सागर गान।"

"यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल

सदय हृदय में अधिक अधीर।

व्याकुलता सी व्यक्त हो रही,

आशा बनकर प्राण समीर।

यह कितनी स्पृहणीय बन गई,

मधुर जागरण सी-छबिमान।

स्मिति की लहरों-सी उठती है,

नाच रही ज्यों मधुमय तान।

जीवन-जीवन की पुकार है,

खेल रहा है शीतल-दाह।

किसके चरणों में नत होता,

नव-प्रभात का शुभ उत्साह।

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों,

लगा गूँजने कानों में,

मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'

शाश्वत नभ के गानों में।

यह संकेत कर रही सत्ता,

किसकी सरल विकास-मयी।

जीवन की लालसा आज क्यों,

इतनी प्रखर विलास-मयी?

तो फिर क्या मैं जिऊँ,

और भी, जीकर क्या करना होगा?

देव बता दो, अमर-वेदना,

लेकर कब मरना होगा?"

एक यवनिका हटी,

पवन से प्रेरित मायापट जैसी।

और आवरण-मुक्त प्रकृति थी

हरी-भरी फिर भी वैसी।

स्वर्ण शालियों की कलमें थीं,

दूर-दूर तक फैल रहीं।

शरद-इंदिरा की मंदिर की

मानो कोई गैल रही।

विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह,

सुख-शीतल-संतोष-निदान।

और डूबती-सी अचला का,

अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।

अचल हिमालय का शोभनतम,

लता-कलित शुचि सानु-शरीर।

निद्रा में सुख-स्वप्न देखता,

जैसे पुलकित हुआ अधीर।

उमड़ रही जिसके चरणों में,

नीरवता की विमल विभूति।

शीतल झरनों की धारायें,

बिखरातीं जीवन-अनुभूति!

उस असीम नीले अंचल में,

देख किसी की मृदु मुस्कान।

मानों हँसी हिमालय की है,

फूट चली करती कल गान।

शिला-संधियों में टकरा कर,

पवन भर रहा था गुंजार।

उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का,

करता चारण-सदृश प्रचार।

संध्या-घनमाला की सुंदर,

ओढे़ रंग-बिरंगी छींट।

गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ,

पहने हुए तुषार-किरीट।

विश्व-मौन, गौरव, महत्त्व की,

प्रतिनिधियों से भरी विभा।

इस अनंत प्रांगण में मानों,

जोड़ रही है मौन सभा।

वह अनंत नीलिमा व्योम की,

जड़ता-सी जो शांत रही।

दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे

निज अभाव में भ्रांत रही।

उसे दिखाती जगती का सुख,

हँसी और उल्लास अजान।

मानो तुंग-तुरंग विश्व की,

हिमगिरि की वह सुघर उठान।

थी अंनत की गोद सदृश जो,

विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय।

उसमें मनु ने स्थान बनाया,

सुंदर, स्वच्छ और वरणीय।

पहला संचित अग्नि जल रहा,

पास मलिन-द्युति रवि-कर से।

शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा

लगा धधकने अब फिर से।

जलने लगा निरंतर उनका,

अग्निहोत्र सागर के तीर।

मनु ने तप में जीवन अपना,

किया समर्पण होकर धीर।

सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति,

देव-यजन की वर माया।

उन पर लगी डालने अपनी,

कर्ममयी शीतल छाया।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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