shabd-logo

कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

34 बार देखा गया 34

"जीवन के वे निष्ठुर दंशन

जिनकी आतुर पीड़ा।

कलुष-चक्र सी नाच रही है

बन आँखों की क्रीड़ा।

स्खलन चेतना के कौशल का

भूल जिसे कहते हैं।

एक बिंदु जिसमें विषाद के

नद उमड़े रहते हैं।

आह वही अपराध

जगत की दुर्बलता की माया।

धरणी की वर्ज़ित मादकता

संचित तम की छाया।

नील-गरल से भरा हुआ

यह चंद्र-कपाल लिये हो।

इन्हीं निमीलित ताराओं में

कितनी शांति पिये हो।

अखिल विश्च का विष पीते हो

सृष्टि जियेगी फिर से।

कहो अमरता शीतलता इतनी

आती तुम्हें किधर से?

अचल अनंत नील लहरों पर

बैठे आसन मारे।

देव! कौन तुम, झरते तन से

श्रमकण से ये तारे।

इन चरणों में कर्म-कुसुम की

अंजलि वे दे सकते।

चले आ रहे छायापथ में

लोक-पथिक जो थकते।

किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको

स्वीकृति मिली तुम्हारी।

लौटाये जाते वे असफल

जैसे नित्य भिखारी।

प्रखर विनाशशील नर्तन में

विपुल विश्व की माया।

क्षण-क्षण होती प्रकट, नवीना

बनकर उसकी काया।

सदा पूर्णता पाने को

सब भूल किया करते क्या?

जीवन में यौवन लाने को

जी-जी कर मरते क्या?

यह व्यापार महा-गतिशाली

कहीं नहीं बसता क्या?

क्षणिक विनाशों में स्थिर मंगल

चुपके से हँसता क्या?

यह विराग संबंध हृदय का

कैसी यह मानवता!

प्राणी को प्राणी के प्रति

बस बची रही निर्ममता

जीवन का संतोष अन्य का

रोदन बन हँसता क्यों?

एक-एक विश्राम प्रगति को

परिकर सा कसता क्यों?

दुर्व्यवहार एक का

कैसे अन्य भूल जावेगा।

कौ उपाय गरल को कैसे

अमृत बना पावेगा"

जाग उठी थी तरल वासना

मिली रही मादकता।

मनु को कौन वहाँ आने से

भला रोक अब सकता।

खुले मृषण भुज़-मूलों से

वह आमंत्रण था मिलता।

उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख

लहरों-सा तिरता।

नीचा हो उठता जो

धीमे-धीमे निस्वासों में।

जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा

हिमकर के हासों में।

जागृत था सौंदर्य यद्यपि

वह सोती थी सुकुमारी।

रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी

आज़ निशा-सी नारी।

वे मांसल परमाणु किरण से

विद्युत थे बिखराते।

अलकों की डोरी में जीवन

कण-कण उलझे जाते।

विगत विचारों के श्रम-सीकर

बने हुए थे मोती।

मुख मंडल पर करुण कल्पना

उनको रही पिरोती।

छूते थे मनु और कटंकित

होती थी वह बेली।

स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी

जो अंग लता सी फैली।

वह पागल सुख इस जगती का

आज़ विराट बना था।

अंधकार-मिश्रित प्रकाश का

एक वितान तना था।

कामायनी जगी थी कुछ-कुछ

खोकर सब चेतनता।

मनोभाव आकार स्वयं हो

रहा बिगड़ता बनता।

जिसके हृदय सदा समीप है

वही दूर जाता है।

और क्रोध होता उस पर ही

जिससे कुछ नाता है।

प्रिय को ठुकरा कर भी

मन की माया उलझा लेती।

प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में

उसको लौटा देती।

जलदागम-मारुत से कंपित

पल्लव सदृश हथेली।

श्रद्धा की, धीरे से मनु ने

अपने कर में ले ली।

अनुनय वाणी में

आँखों में उपालंभ की छाया।

कहने लगे-"अरे यह कैसी

मानवती की माया।

स्वर्ग बनाया है जो मैंने

उसे न विफल बनाओ।

अरी अप्सरे! उस अतीत के

नूतन गान सुनाओ।

इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित

विद्युत नभ के नीचे।

केवल हम तुम, और कौन?

रहो न आँखे मींचे।

आकर्षण से भरा विश्व यह

केवल भोग्य हमारा।

जीवन के दोनों कूलों में

बहे वासना धारा।

श्रम की, इस अभाव की जगती

उसकी सब आकुलता।

जिस क्षण भूल सकें हम

अपनी यह भीषण चेतनता।

वही स्वर्ग की बन अनंतता

मुसकाता रहता है।

दो बूँदों में जीवन का

रस लो बरबस बहता है।

देवों को अर्पित मधु-मिश्रित

सोम, अधर से छू लो।

मादकता दोला पर प्रेयसी!

आओ मिलकर झूलो।"

श्रद्धा जाग रही थी

तब भी छाई थी मादकता।

मधुर-भाव उसके तन-मन में

अपना हो रस छकता।

बोली एक सहज़ मुद्रा से

"यह तुम क्या कहते हो।

आज़ अभी तो किसी भाव की

धारा में बहते हो।

कल ही यदि परिवर्तन होगा

तो फिर कौन बचेगा।

क्या जाने कोई साथी

बन नूतन यज्ञ रचेगा।

और किसी की फिर बलि होगी

किसी देव के नाते।

कितना धोखा! उससे तो हम

अपना ही सुख पाते।

ये प्राणी जो बचे हुए हैं

इस अचला जगती के।

उनके कुछ अधिकार नहीं

क्या वे सब ही हैं फीके?

मनु! क्या यही तुम्हारी होगी

उज्ज्वल मानवता।

जिसमें सब कुछ ले लेना हो

हंत बची क्या शवता।"

"तुच्छ नहीं है अपना सुख भी

श्रद्धे! वह भी कुछ है।

दो दिन के इस जीवन का तो

वही चरम सब कुछ है।

इंद्रिय की अभिलाषा

जितनी सतत सफलता पावे।

जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी

मधुर-मधुर कुछ गावे।

रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में

मृदु मुसकान खिले तो।

आशाओं पर श्वास निछावर

होकर गले मिले तो।

विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख

मुकुर बनी रहती हो।

वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है

यह तुम क्या कहती हो?

जिसे खोज़ता फिरता मैं

इस हिमगिरि के अंचल में।

वही अभाव स्वर्ग बन

हँसता इस जीवन चंचल में।

वर्तमान जीवन के सुख से

योग जहाँ होता है।

छली-अदृष्ट अभाव बना

क्यों वहीं प्रकट होता है।

किंतु सकल कृतियों की

अपनी सीमा हैं हम ही तो।

पूरी हो कामना हमारी

विफल प्रयास नहीं तो"

एक अचेतनता लाती सी

सविनय श्रद्धा बोली।

"बचा जान यह भाव सृष्टि ने

फिर से आँखेँ खोलीं।

भेद-बुद्धि निर्मम ममता की

समझ, बची ही होगी।

प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी

लौट गयी ही होंगी।

अपने में सब कुछ भर

कैसे व्यक्ति विकास करेगा।

यह एकांत स्वार्थ भीषण है

अपना नाश करेगा।

औरों को हँसता देखो

मनु-हँसो और सुख पाओ।

अपने सुख को विस्तृत कर लो

सब को सुखी बनाओ।

रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ

यह यज्ञ पुरूष का जो है।

संसृति-सेवा भाग हमारा

उसे विकसने को है।

सुख को सीमित कर

अपने में केवल दुख छोड़ोगे।

इतर प्राणियों की पीड़ा

लख अपना मुँह मोड़ोगे।

ये मुद्रित कलियाँ दल में

सब सौरभ बंदी कर लें।

सरस न हों मकरंद बिंदु से

खुल कर, तो ये मर लें।

सूखे, झड़े और तब कुचले

सौरभ को पाओगे।

फिर आमोद कहाँ से मधुमय

वसुधा पर लाओगे।

सुख अपने संतोष के लिये

संग्रह मूल नहीं है।

उसमें एक प्रदर्शन

जिसको देखें अन्य वही है।

निर्ज़न में क्या एक अकेले

तुम्हें प्रमोद मिलेगा?

नहीं इसी से अन्य हृदय का

कोई सुमन खिलेगा।

सुख समीर पाकर

चाहे हो वह एकांत तुम्हारा।

बढ़ती है सीमा संसृति की

बन मानवता-धारा।"

हृदय हो रहा था उत्तेज़ित

बातें कहते-कहते।

श्रद्धा के थे अधर सूखते

मन की ज्वाला सहते।

उधर सोम का पात्र लिये मनु

समय देखकर बोले-

"श्रद्धे पी लो इसे बुद्धि के

बंधन को जो खोले।

वही करूँगा जो कहती हो सत्य

अकेला सुख क्या?"

यह मनुहार रुकेगा

प्याला पीने से फिर मुख क्या?

आँखें प्रिय आँखों में,

डूबे अरुण अधर थे रस में।

हृदय काल्पनिक-विज़य में

सुखी चेतनता नस-नस में।

छल-वाणी की वह प्रवंचना

हृदयों की शिशुता को।

खेल दिखाती, भुलवाती जो

उस निर्मल विभुता को।

जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की

प्रगति दिशा को पल में।

अपने एक मधुर इंगित से

बदल सके जो छल में।

वही शक्ति अवलंब मनोहर

निज़ मनु को थी देती।

जो अपने अभिनय से

मन को सुख में उलझा लेती।

"श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी

यह भव रज़नी भीमा।

तुम बन जाओ इस ज़ीवन के

मेरे सुख की सीमा।

लज्जा का आवरण प्राण को

ढक लेता है तम से

उसे अकिंचन कर देता है

अलगाता 'हम तुम' से

कुचल उठा आनन्द,

यही है, बाधा, दूर हटाओ।

अपने ही अनुकूल सुखों को

मिलने दो मिल जाओ।"

और एक फिर व्याकुल चुम्बन

रक्त खौलता जिससे।

शीतल प्राण धधक उठता है

तृषा तृप्ति के मिस से।

दो काठों की संधि बीच

उस निभृत गुफा में अपने।

अग्नि शिखा बुझ गयी

जागने पर जैसे सुख सपने।

30
रचनाएँ
कामायनी
0.0
कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
1

चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
2
0
0

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

2

चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

3

आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
1
0
0

ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

4

आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

5

श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

6

श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

7

काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

8

काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

9

वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

10

वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

11

लज्जा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

12

लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

13

कर्म (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

14

कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

15

ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

16

ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

17

इड़ा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

18

इड़ा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

19

स्वप्न (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

20

स्वप्न (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

21

संघर्ष (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

22

संघर्ष (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

23

निर्वेद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

24

निर्वेद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

25

दर्शन (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

26

दर्शन (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

27

रहस्य (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

28

रहस्य (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

29

आनंद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

30

आनंद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए