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निर्वेद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

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उधर प्रभात हुआ प्राची में

मनु के मुद्रित-नयन खुले।

श्रद्धा का अवलंब मिला

फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,

मनु उठ बैठे गदगद होकर

बोले कुछ अनुराग भरे।

"श्रद्धा तू आ गयी भला तो

पर क्या था मैं यहीं पडा'

वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका

बिखरी चारों ओर घृणा।

आँखें बंद कर लिया क्षोभ से

"दूर-दूर ले चल मुझको,

इस भयावने अधंकार में

खो दूँ कहीं न फिर तुझको।

हाथ पकड ले, चल सकता हूँ-

हाँ कि यही अवलंब मिले,

वह तू कौन? परे हट, श्रद्धे आ कि

हृदय का कुसुम खिले।"

श्रद्धा नीरव सिर सहलाती

आँखों में विश्वास भरे,

मानो कहती "तुम मेरे हो

अब क्यों कोई वृथा डरे?"

जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से

लगे बहुत धीरे कहने,

"ले चल इस छाया के बाहर

मुझको दे न यहाँ रहने।

मुक्त नील नभ के नीचे

या कहीं गुहा में रह लेंगे,

अरे झेलता ही आया हूँ-

जो आवेगा सह लेंगे"

"ठहरो कुछ तो बल आने दो

लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,

इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-

"रहने देंगी क्या न हमें?"

इडा संकुचित उधर खडी थी

यह अधिकार न छीन सकी,

श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले

उनकी वाणी नहीं रुकी।

"जब जीवन में साध भरी थी

उच्छृंखल अनुरोध भरा,

अभिलाषायें भरी हृदय में

अपनेपन का बोध भरा।

मैं था, सुंदर कुसुमों की वह

सघन सुनहली छाया थी,

मलयानिल की लहर उठ रही

उल्लासों की माया थी।

उषा अरुण प्याला भर लाती

सुरभित छाया के नीचे

मेरा यौवन पीता सुख से

अलसाई आँखे मींचे।

ले मकरंद नया चू पडती

शरद-प्रात की शेफाली,

बिखराती सुख ही, संध्या की

सुंदर अलकें घुँघराली।

सहसा अधंकार की आँधी

उठी क्षितिज से वेग भरी,

हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी

उद्वेलित मानस लहरी।

व्यथित हृदय उस नीले नभ में

छाया पथ-सा खुला तभी,

अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति

कर दी तुमने देवि जभी।

दिव्य तुम्हारी अमर अमिट

छवि लगी खेलने रंग-रली,

नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-

निकष पर खिंची भली।

अरुणाचल मन मंदिर की वह

मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,

गी सिखाने स्नेह-मयी सी

सुंदरता की मृदु महिमा।

उस दिन तो हम जान सके थे

सुंदर किसको हैं कहते

तब पहचान सके, किसके हित

प्राणी यह दुख-सुख सहते।

जीवन कहता यौवन से

"कुछ देखा तूने मतवाले"

यौवन कहता साँस लिये

चल कुछ अपना संबल पाले"

हृदय बन रहा था सीपी सा

तुम स्वाती की बूँद बनी,

मानस-शतदल झूम उठा

जब तुम उसमें मकरंद बनीं।

तुमने इस सूखे पतझड में

भर दी हरियाली कितनी,

मैंने समझा मादकता है

तृप्ति बन गयी वह इतनी

विश्व, कि जिसमें दुख की

आँधी पीडा की लहरी उठती,

जिसमें जीवन मरण बना था

बुदबुद की माया नचती।

वही शांत उज्जवल मंगल सा

दिखता था विश्वास भरा,

वर्षा के कदंब कानन सा

सृष्टि-विभव हो उठा हरा।

भगवती वह पावन मधु-धारा

देख अमृत भी ललचाये,

वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से

जिसमें जीवन धुल जाये

संध्या अब ले जाती मुझसे

ताराओं की अकथ कथा,

नींद सहज ही ले लेती थी

सारे श्रमकी विकल व्यथा।

सकल कुतूहल और कल्पना

उन चरणों से उलझ पडी,

कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से

जीवन की वह धन्य घडी।

स्मिति मधुराका थी, शवासों से

पारिजात कानन खिलता,

गति मरंद-मथंर मलयज-सी

स्वर में वेणु कहाँ मिलता

श्वास-पवन पर चढ कर मेरे

दूरागत वंशी-रत्न-सी,

गूँज उठीं तुम, विश्व कुहर में

दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी

जीवन-जलनिधि के तल से

जो मुक्ता थे वे निकल पडे,

जग-मंगल-संगीत तुम्हारा

गाते मेरे रोम खडे।

आशा की आलोक-किरन से

कुछ मानस से ले मेरे,

लघु जलधर का सृजन हुआ था

जिसको शशिलेखा घेरे-

उस पर बिजली की माला-सी

झूम पडी तुम प्रभा भरी,

और जलद वह रिमझिम

बरसा मन-वनस्थली हुई हरी

तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया

विश्व खेल है खेल चलो,

तुमने मिलकर मुझे बताया

सबसे करते मेल चलो।

यह भी अपनी बिजली के से

विभ्रम से संकेत किया,

अपना मन है जिसको चाहा

तब इसको दे दान दिया।

तुम अज्रस वर्षा सुहाग की

और स्नेह की मधु-रजनी,

विर अतृप्ति जीवन यदि था

तो तुम उसमें संतोष बनी।

कितना है उपकार तुम्हारा

आशिररात मेरा प्रणय हुआ

आकितना आभारी हूँ, इतना

संवेदनमय हृदय हुआ।

किंतु अधम मैं समझ न पाया

उस मंगल की माया को,

और आज भी पकड रहा हूँ

हर्ष शोक की छाया को,

मेरा सब कुछ क्रोध मोह के

उपादान से गठित हुआ,

ऐसा ही अनुभव होता है

किरनों ने अब तक न छुआ।

शापित-सा मैं जीवन का यह

ले कंकाल भटकता हूँ,

उसी खोखलेपन में जैसे

कुछ खोजता अटकता हूँ।

अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का

आकर्षण है खींच रहा,

सब पर, हाँ अपने पर भी

मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।

नहीं पा सका हूँ मैं जैसे

जो तुम देना चाह रही,

क्षुद्र पात्र तुम उसमें कितनी

मधु-धारा हो ढाल रही।

सब बाहर होता जाता है

स्वगत उसे मैं कर न सका,

बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे

हृदय हमारा भर न सका।

यह कुमार-मेरे जीवन का

उच्च अंश, कल्याण-कला

कितना बडा प्रलोभन मेरा

हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।

सुखी रहें, सब सुखी रहें बस

छोडो मुझ अपराधी को"

श्रद्धा देख रही चुप मनु के

भीतर उठती आँधी को।

दिन बीता रजनी भी आयी

तंद्रा निद्रा संग लिये,

इडा कुमार समीप पडी थी

मन की दबी उमंग लिये।

श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी

हाथों को उपधान किये,

पडी सोचती मन ही मन कुछ,

मनु चुप सब अभिशाप पिये-

सोच रहे थे, "जीवन सुख है?

ना, यह विकट पहेली है,

भाग अरे मनु इंद्रजाल से

कितनी व्यथा न झेली है?

यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी

झिलमिल चंचल सी छाया,

श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे

यह मुख या कलुषित काया।

और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर

इनका क्या विश्वास करूँ,

प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर

मन ही मन चुपचाप मरूँ।

श्रद्धा के रहते यह संभव

नहीं कि कुछ कर पाऊँगा

तो फिर शांति मिलेगी मुझको

जहाँ खोजता जाऊँगा।"

जगे सभी जब नव प्रभात में

देखें तो मनु वहाँ नहीं,

'पिता कहाँ' कह खोज रहा था

यह कुमार अब शांत नहीं।

इडा आज अपने को सबसे

अपराधी है समझ रही,

कामायनी मौन बैठी सी

अपने में ही उलझ रही।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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