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इड़ा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022

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"किस गहन गुहा से अति अधीर

झंझा-प्रवाह-सा निकला

यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर

ले साथ विकल परमाणु-पुंज।

नभ, अनिल, अनल,

भयभीत सभी को भय देता।

भय की उपासना में विलीन

प्राणी कटुता को बाँट रहा।

जगती को करता अधिक दीन

निर्माण और प्रतिपद-विनाश में।

दिखलाता अपनी क्षमता

संघर्ष कर रहा-सा सब से।

सब से विराग सब पर ममता

अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब।

यह छूट पड़ा है विषम तीर

किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?

जो अचल हिमानी से रंजित

देखे मैंने वे शैल-श्रृंग।

अपने जड़-गौरव के प्रतीक

उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग।

वसुधा का कर अभिमान भंग

अपनी समाधि में रहे सुखी,

बह जाती हैं नदियाँ अबोध

कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,

वह स्मित-नयन गत शोक-क्रोध

स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी

चाहता नहीं इस जीवन की

मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,

हूँ चाह रहा अपने मन की

जो चूम चला जाता अग-जग।

प्रति-पग में कंपन की तरंग

वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।

अपनी ज्वाला से कर प्रकाश

जब छोड़ चला आया सुंदर

प्रारंभिक जीवन का निवास

वन, गुहा, कुंज, मरू-अंचल में हूँ

खोज रहा अपना विकास

पागल मैं, किस पर सदय रहा

क्या मैंने ममता ली न तोड़

किस पर उदारता से रीझा-

किससे न लगा दी कड़ी होड़?

इस विजन प्रांत में बिलख रही

मेरी पुकार उत्तर न मिला

लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-

कब मुझसे कोई फूल खिला?

मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा

कल्पना लोक में कर निवास

देख कब मैंने कुसुम हास

इस दुखमय जीवन का प्रकाश

नभ-नील लता की डालों में

उलझा अपने सुख से हताश

कलियाँ जिनको मैं समझ रहा

वे काँटे बिखरे आस-पास

कितना बीहड़-पथ चला और

पड़ रहा कहीं थक कर नितांत

उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर

रोता मैं निर्वासित अशांत

इस नियति-नटी के अति भीषण

अभिनय की छाया नाच रही

खोखली शून्यता में प्रतिपद-

असफलता अधिक कुलाँच रही

पावस-रजनी में जुगनू गण को

दौड़ पकड़ता मैं निराश

उन ज्योति कणों का कर विनाश

जीवन-निशीथ के अंधकार

तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर

फैला है कितना वार-पार

कितनी चेतनता की किरणें हैं

डूब रहीं ये निर्विकार

कितना मादकतम, निखिल भुवन

भर रहा भूमिका में अबंग

तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता

प्रतिपल के परिवर्त्तन अनंग

ममता की क्षीण अरुण रेख

खिलती है तुझमें ज्योति-कला

जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल

अलकों में कुंकुमचूर्ण भला

रे चिरनिवास विश्राम प्राण के

मोह-जलद-छया उदार

मायारानी के केशभार

जीवन-निशीथ के अंधकार

तू घूम रहा अभिलाषा के

नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार

जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक

चिनगारी-सी उठती पुकार

यौवन मधुवन की कालिंदी

बह रही चूम कर सब दिंगत

मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें

बस दौड़ लगाती हैं अनंत

कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन

हँसती तुझमें सुंदर छलना

धूमिल रेखाओं से सजीव

चंचल चित्रों की नव-कलना

इस चिर प्रवास श्यामल पथ में

छायी पिक प्राणों की पुकार

बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार

उजड़ा सूना नगर-प्रांत

जिसमें सुख-दुख की परिभाषा

विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत

निज विकृत वक्र रेखाओं से,

प्राणी का भाग्य बनी अशांत

कितनी सुखमय स्मृतियाँ,

अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण

इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि

दब रही अभी बन पात्र जीर्ण

आती दुलार को हिचकी-सी

सूने कोनों में कसक भरी।

इस सूखर तरु पर मनोवृति

आकाश-बेलि सी रही हरी

जीवन-समाधि के खँडहर पर जो

जल उठते दीपक अशांत

फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।

यों सोच रहे मनु पड़े श्रांत

श्रद्धा का सुख साधन निवास

जब छोड़ चले आये प्रशांत

पथ-पथ में भटक अटकते वे

आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत

बहती सरस्वती वेग भरी

निस्तब्ध हो रही निशा श्याम

नक्षत्र निरखते निर्मिमेष

वसुधा को वह गति विकल वाम

वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण

उपकूल आज कितना सूना

देवेश इंद्र की विजय-कथा की

स्मृति देती थी दुख दूना

वह पावन सारस्वत प्रदेश

दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत

फैला था चारों ओर ध्वांत।

"जीवन का लेकर नव विचार

जब चला द्वंद्व था असुरों में

प्राणों की पूजा का प्रचार

उस ओर आत्मविश्वास-निरत

सुर-वर्ग कह रहा था पुकार

मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म

मंगल उपासना में विभोर

उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,

किसकी खोजूँ फिर शरण और

आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत

जीवन-विकास वैचित्र्य भरा

अपना नव-नव निर्माण किये

रखता यह विश्व सदैव हरा,

प्राणों के सुख-साधन में ही,

संलग्न असुर करते सुधार

नियमों में बँधते दुर्निवार

था एक पूजता देह दीन

दूसरा अपूर्ण अहंता में

अपने को समझ रहा प्रवीण

दोनों का हठ था दुर्निवार,

दोनों ही थे विश्वास-हीन-

फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से

वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध

उनका संघर्ष चला अशांत

वे भाव रहे अब तक विरुद्ध

मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह

स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता

हो प्रलय-भीत तन रक्षा में

पूजन करने की व्याकुलता

वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो

मुझको बना रहा अधिक दीन-

सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।"

मनु तुम श्रद्धाको गये भूल

उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को

उडा़ दिया था समझ तूल

तुमने तो समझा असत् विश्व

जीवन धागे में रहा झूल

जो क्षण बीतें सुख-साधन में

उनको ही वास्तव लिया मान

वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,

यह उलटी मति का व्यर्थ-ज्ञान

तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में

कुछ सत्ता है नारी की

समरसता है संबंध बनी

अधिकार और अधिकारी की।"

जब गूँजी यह वाणी तीखी

कंपित करती अंबर अकूल

मनु को जैसे चुभ गया शूल।

"यह कौन? अरे वही काम

जिसने इस भ्रम में है डाला

छीना जीवन का सुख-विराम?

प्रत्यक्ष लगा होने अतीत

जिन घड़ियों का अब शेष नाम

वरदान आज उस गतयुग का

कंपित करता है अंतरंग

अभिशाप ताप की ज्वाला से

जल रहा आज मन और अंग-"

बोले मनु-" क्या भ्रांत साधना

में ही अब तक लगा रहा

क्ा तुमने श्रद्धा को पाने

के लिए नहीं सस्नेह कहा?

पाया तो, उसने भी मुझको

दे दिया हृदय निज अमृत-धाम

फिर क्यों न हुआ मैं पूर्ण-काम?"

"मनु उसने त कर दिया दान

वह हृदय प्रणय से पूर्ण सरल

जिसमें जीवन का भरा मान

जिसमें चेतना ही केवल

निज शांत प्रभा से ज्योतिमान

पर तुमने तो पाया सदैव

उसकी सुंदर जड़ देह मात्र

सौंदर्य जलधि से भर लाये

केवल तुम अपना गरल पात्र

तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को

न स्वयं तुम समझ सके

परिणय जिसको पूरा करता

उससे तुम अपने आप रुके

कुछ मेरा हो' यह राग-भाव

संकुचित पूर्णता है अजान

मानस-जलनिधि का क्षुद्र-यान।

हाँ अब तुम बनने को स्वतंत्र

सब कलुष ढाल कर औरों पर

रखते हो अपना अलग तंत्र

द्वंद्वों का उद्गम तो सदैव

शाश्वत रहता वह एक मंत्र

डाली में कंटक संग कुसुम

खिलते मिलते भी हैं नवीन

अपनी रुचि से तुम बिधे हुए

जिसको चाहे ले रहे बीन

तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का

प्रणय-प्रकाश न ग्रहण किया

हाँ, जलन वासना को जीवन

भ्रम तम में पहला स्थान दिया

अब विकल प्रवर्त्तन हो ऐसा जो

नियति-चक्र का बने यंत्र

हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।

यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि

द्वयता मेम लगी निरंतर ही

वर्णों की करति रहे वृष्टि

अनजान समस्यायें गढती

रचती हों अपनी विनिष्टि

कोलाहल कलह अनंत चले,

एकता नष्ट हो बढे भेद

अभिलषित वस्तु तो दूर रहे,

हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद

हृदयों का हो आवरण सदा

अपने वक्षस्थल की जड़ता

पहचान सकेंगे नहीं परस्पर

चले विश्व गिरता पड़ता

सब कुछ भी हो यदि पास भरा

पर दूर रहेगी सदा तुष्टि

दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।

अनवरत उठे कितनी उमंग

चुंबित हों आँसू जलधर से

अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग

जीवन-नद हाहाकार भरा-

हो उठती पीड़ा की तरंग

लालसा भरे यौवन के दिन

पतझड़ से सूखे जायँ बीत

संदेह नये उत्पन्न रहें

उनसे संतप्त सदा सभीत

फैलेगा स्वजनों का विरोध

बन कर तम वाली श्याम-अमा

दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह

शस्यश्यामला प्रकृति-रमा

दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष

बदले नर कितने नये रंग-

बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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