shabd-logo

दर्शन (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

25 बार देखा गया 25

मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन,

वरदान बने मेरा जीवन

जो मुझको तू यों चली छोड,

तो मुझे मिले फिर यही क्रोड"

"हे सौम्य इडा का शुचि दुलार,

हर लेगा तेरा व्यथा-भार,

यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,

तू मननशील कर कर्म अभय,

इसका तू सब संताप निचय,

हर ले, हो मानव भाग्य उदय,

सब की समरसता कर प्रचार,

मेरे सुत सुन माँ की पुकार।"

"अति मधुर वचन विश्वास मूल,

मुझको न कभी ये जायँ भूल

हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,

बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,

आकर्षण घन-सा वितरे जल,

निर्वासित हों संताप सकल"

कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,

पकडा कुमार-कर मृदुल फूल।

वे तीनों ही क्षण एक मौन-

विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन

विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-

वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,

मिलते आहत होकर जलकन,

लहरों का यह परिणत जीवन,

दो लौट चले पुर ओर मौन,

जब दूर हुए तब रहे दो न।

निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,

वह था असीम का चित्र कांत।

कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,

व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,

झलके कब से पर पडे न झर,

गंभीर मलिन छाया भू पर,

सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,

केवल बिखेरता दीन ध्वांत।

शत-शत तारा मंडित अनंत,

कुसुमों का स्तबक खिला बसंत,

हँसता ऊपर का विश्व मधुर,

हलके प्रकाश से पूरित उर,

बहती माया सरिता ऊपर,

उठती किरणों की लोल लहर,

निचले स्तर पर छाया दुरंत,

आती चुपके, जाती तुरंत।

सरिता का वह एकांत कूल,

था पवन हिंडोले रहा झूल,

धीरे-धीरे लहरों का दल,

तट से टकरा होता ओझल,

छप-छप का होता शब्द विरल,

थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल

संसृति अपने में रही भूल,

वह गंध-विधुर अम्लान फूल।

तब सरस्वती-सा फेंक साँस,

श्रद्धा ने देखा आस-पास,

थे चमक रहे दो फूल नयन,

ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन,

वह क्या तम में करता सनसन?

धारा का ही क्या यह निस्वन

ना, गुहा लतावृत एक पास,

कोई जीवित ले रहा साँस।

वह निर्जन तट था एक चित्र,

कितना सुंदर, कितना पवित्र?

कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर,

फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर,

वह लोक-अग्नि में तप गल कर,

थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर,

मनु ने देखा कितना विचित्र

वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र।

बोले "रमणी तुम नहीं आह

जिसके मन में हो भरी चाह,

तुमने अपना सब कुछ खोकर,

वंचिते जिसे पाया रोकर,

मैं भगा प्राण जिनसे लेकर,

उसको भी, उन सब को देकर,

निर्दय मन क्या न उठा कराह?

अद्भुत है तब मन का प्रवाह

ये श्वापद से हिंसक अधीर,

कोमल शावक वह बाल वीर,

सुनता था वह प्राणी शीतल,

कितना दुलार कितना निर्मल

कैसा कठोर है तव हृत्तल

वह इडा कर गयी फिर भी छल,

तुम बनी रही हो अभी धीर,

छुट गया हाथ से आह तीर।"

"प्रिय अब तक हो इतने सशंक,

देकर कुछ कोई नहीं रंक,

यह विनियम है या परिवर्त्तन,

बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,

अपराध तुम्हारा वह बंधन

लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन

निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक?

दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।"

"तुम देवि आह कितनी उदार,

यह मातृमूर्ति है निर्विकार,

हे सर्वमंगले तुम महती,

सबका दुख अपने पर सहती,

कल्याणमयी वाणी कहती,

तुम क्षमा निलय में हो रहती,

मैं भूला हूँ तुमको निहार-

नारी सा ही, वह लघु विचार।

मैं इस निर्जन तट में अधीर,

सह भूख व्यथा तीखा समीर,

हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर,

चलता ही आया हूँ बढ कर,

इनके विकार सा ही बन कर,

मैं शून्य बना सत्ता खोकर,

लघुता मत देखो वक्ष चीर,

जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"

"प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात,

है स्मरण कराती विगत बात,

वह प्रलय शांति वह कोलाहल,

जब अर्पित कर जीवन संबल,

मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल,

क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?

तब चलो जहाँ पर शांति प्रात,

मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।

इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक-

मानव कर ले सब भूल ठीक,

यह विष जो फैला महा-विषम,

निज कर्मोन्नति से करते सम,

सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम,

उनका रहस्य हो शुभ-संयम,

गिर जायेगा जो है अलीक,

चल कर मिटती है पडी लीक।"

वह शून्य असत या अंधकार,

अवकाश पटल का वार पार,

बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,

था अचल महा नीला अंजन,

भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन,

थे निर्निमेष मनु के लोचन,

इतना अनंत था शून्य-सार,

दीखता न जिसके परे पार।

सत्ता का स्पंदन चला डोल,

आवरण पटल की ग्रंथि खोल,

तम जलनिधि बन मधुमंथन,

ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,

वह रजत गौर, उज्जवल जीवन,

आलोक पुरुष मंगल चेतन

केवल प्रकाश का था कलोल,

मधु किरणों की थी लहर लोल।

बन गया तमस था अलक जाल,

सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,

अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित,

थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त,

नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,

था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,

स्वर लय होकर दे रहे ताल,

थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।

लीला का स्पंदित आह्लाद,

वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद,

आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर,

झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,

बनते तारा, हिमकर, दिनकर

उड रहे धूलिकण-से भूधर,

संहार सृजन से युगल पाद-

गतिशील, अनाहत हुआ नाद।

बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,

युग ग्रहण कर रहे तोल,

विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर,

कंपित संसृति बन रही उधर,

चेतन परमाणु अनंथ बिखर,

बनते विलीन होते क्षण भर

यह विश्व झुलता महा दोल,

परिवर्त्तन का पट रहा खोल।

उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,

सब शाप पाप का कर विनाश-

नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर,

उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर

अपना स्वरूप धरती सुंदर,

कमनीय बना था भीषणतर,

हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास,

उल्लसित महा हिम धवल हास।

देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,

हत चेत पुकार उठे विशेष-

"यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल,

उन चरणों तक, दे निज संबल,

सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,

पावन बन जाते हैं निर्मल,

मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,

समरस, अखंड, आनंद-वेश" ।

30
रचनाएँ
कामायनी
0.0
कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
1

चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
2
0
0

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

2

चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

3

आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
1
0
0

ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

4

आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

5

श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

6

श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

7

काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

8

काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

9

वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

10

वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

11

लज्जा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

12

लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

13

कर्म (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

14

कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

15

ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

16

ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

17

इड़ा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

18

इड़ा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

19

स्वप्न (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

20

स्वप्न (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

21

संघर्ष (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

22

संघर्ष (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

23

निर्वेद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

24

निर्वेद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

25

दर्शन (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

26

दर्शन (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

27

रहस्य (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

28

रहस्य (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

29

आनंद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

30

आनंद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए