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संघर्ष (भाग 1)

19 अप्रैल 2022

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श्रद्धा का था स्वप्न

किंतु वह सत्य बना था,

इड़ा संकुचित उधर

प्रजा में क्षोभ घना था।

भौतिक-विप्लव देख

विकल वे थे घबराये,

राज-शरण में त्राण प्राप्त

करने को आये।

किंतु मिला अपमान

और व्यवहार बुरा था,

मनस्ताप से सब के

भीतर रोष भरा था।

क्षुब्ध निरखते वदन

इड़ा का पीला-पीला,

उधर प्रकृति की रुकी

नहीं थी तांड़व-लीला।

प्रागंण में थी भीड़ बढ़ रही

सब जुड़ आये,

प्रहरी-गण कर द्वार बंद

थे ध्यान लगाये।

रा्त्रि घनी-लालिमा-पटी

में दबी-लुकी-सी,

रह-रह होती प्रगट मेघ की

ज्योति झुकी सी।

मनु चिंतित से पड़े

शयन पर सोच रहे थे,

क्रोध और शंका के

श्वापद नोच रहे थे।

" मैं प्रजा बना कर

कितना तुष्ट हुआ था,

किंतु कौन कह सकता

इन पर रुष्ट हुआ था।

कितने जव से भर कर

इनका चक्र चलाया,

अलग-अलग ये एक

हुई पर इनकी छाया।

मैं नियमन के लिए

बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,

इनको कर एकत्र,

चलाता नियम बना कर।

किंतु स्वयं भी क्या वह

सब कुछ मान चलूँ मैं,

तनिक न मैं स्वच्छंद,

स्वर्ण सा सदा गलूँ मैं

जो मेरी है सृष्टि

उसी से भीत रहूँ मैं,

क्या अधिकार नहीं कि

कभी अविनीत रहूँ मैं?

श्रद्धा का अधिकार

समर्पण दे न सका मैं,

प्रतिपल बढ़ता हुआ भला

कब वहाँ रुका मैं

इड़ा नियम-परतंत्र

चाहती मुझे बनाना,

निर्वाधित अधिकार

उसी ने एक न माना।

विश्व एक बन्धन

विहीन परिवर्त्तन तो है,

इसकी गति में रवि-

शशि-तारे ये सब जो हैं।

रूप बदलते रहते

वसुधा जलनिधि बनती,

उदधि बना मरूभूमि

जलधि में ज्वाला जलती

तरल अग्नि की दौड़

लगी है सब के भीतर,

गल कर बहते हिम-नग

सरिता-लीला रच कर।

यह स्फुलिग का नृत्य

एक पल आया बीता

टिकने कब मिला

किसी को यहाँ सुभीता?

कोटि-कोटि नक्षत्र

शून्य के महा-विवर में,

लास रास कर रहे

लटकते हुए अधर में।

उठती है पवनों के

स्तर में लहरें कितनी,

यह असंख्य चीत्कार

और परवशता इतनी।

यह नर्त्तन उन्मुक्त

विश्व का स्पंदन द्रुततर,

गतिमय होता चला

जा रहा अपने लय पर।

कभी-कभी हम वही

देखते पुनरावर्त्तन,

उसे मानते नियम

चल रहा जिससे जीवन।

रुदन हास बन किंतु

पलक में छलक रहे है,

शत-शत प्राण विमुक्ति

खोजते ललक रहे हैं।

जीवन में अभिशाप

शाप में ताप भरा है,

इस विनाश में सृष्टि-

कुंज हो रहा हरा है।

'विश्व बँधा है एक नियम से'

यह पुकार-सी,

फैली गयी है इसके मन में

दृढ़ प्रचार-सी।

नियम इन्होंने परखा

फिर सुख-साधन जाना,

वशी नियामक रहे,

न ऐसा मैंने माना।

मैं-चिर-बंधन-हीन

मृत्यु-सीमा-उल्लघंन

करता सतत चलूँगा

यह मेरा है दृढ़ प्रण।

महानाश की सृष्टि बीच

जो क्षण हो अपना,

चेतनता की तुष्टि वही है

फिर सब सपना।"

प्रगति मन रूका

इक क्षण करवट लेकर,

देखा अविचल इड़ा खड़ी

फिर सब कुछ देकर

और कह रही "किंतु

नियामक नियम न माने,

तो फिर सब कुछ नष्ट

हुआ निश्चय जाने।"

"ऐं तुम फिर भी यहाँ

आज कैसे चल आयी,

क्या कुछ और उपद्रव

की है बात समायी-

मन में, यह सब आज हुआ है

जो कुछ इतना

क्या न हुई तुष्टि?

बच रहा है अब कितना?"

"मनु, सब शासन स्वत्त्व

तुम्हारा सतत निबाहें,

तुष्टि, चेतना का क्षण

अपना अन्य न चाहें

आह प्रजापति यह

न हुआ है, कभी न होगा,

निर्वाधित अधिकार

आज तक किसने भोगा?"

यह मनुष्य आकार

चेतना का है विकसित,

एक विश्व अपने

आवरणों में हैं निर्मित

चिति-केन्द्रों में जो

संघर्ष चला करता है,

द्वयता का जो भाव सदा

मन में भरता है-

वे विस्मृत पहचान

रहे से एक-एक को,

होते सतत समीप

मिलाते हैं अनेक को।

स्पर्धा में जो उत्तम

ठहरें वे रह जावें,

संसृति का कल्याण करें

शुभ मार्ग बतावें।

व्यक्ति चेतना इसीलिए

परतंत्र बनी-सी,

रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में

सतत सनी सी।

नियत मार्ग में पद-पद

पर है ठोकर खाती,

अपने लक्ष्य समीप

श्रांत हो चलती जाती।

यह जीवन उपयोग,

यही है बुद्धि-साधना,

पना जिसमें श्रेय

यही सुख की अ'राधना।

लोक सुखी हों आश्रय लें

यदि उस छाया में,

प्राण सदृश तो रमो

राष्ट्र की इस काया में।

देश कल्पना काल

परिधि में होती लय है,

काल खोजता महाचेतना

में निज क्षय है।

वह अनंत चेतन

नचता है उन्मद गति से,

तुम भी नाचो अपनी

द्वयता में-विस्मृति में।

क्षितिज पटी को उठा

बढो ब्रह्मांड विवर में,

गुंजारित घन नाद सुनो

इस विश्व कुहर में।

ताल-ताल पर चलो

नहीं लय छूटे जिसमें,

तुम न विवादी स्वर

छेडो अनजाने इसमें।

"अच्छा यह तो फिर न

तुम्हें समझाना है अब,

तुम कितनी प्रेरणामयी

हो जान चुका सब।

किंतु आज ही अभी

लौट कर फिर हो आयी,

कैसे यह साहस की

मन में बात समायी

आह प्रजापति होने का

अधिकार यही क्या

अभिलाषा मेरी अपूर्णा

ही सदा रहे क्या?

मैं सबको वितरित करता

ही सतत रहूँ क्या?

कुछ पाने का यह प्रयास

है पाप, सहूँ क्या?

तुमने भी प्रतिदिन दिया

कुछ कह सकती हो?

मुझे ज्ञान देकर ही

जीवित रह सकती हो?

जो मैं हूँ चाहता वही

जब मिला नहीं है,

तब लौटा लो व्यर्थ

बात जो अभी कही है।"

"इड़े मुझे वह वस्तु

चाहिये जो मैं चाहूँ,

तुम पर हो अधिकार,

प्रजापति न तो वृथा हूँ।

तुम्हें देखकर बंधन ही

अब टूट रहा सब,

शासन या अधिकार

चाहता हूँ न तनिक अब।

देखो यह दुर्धर्ष

प्रकृति का इतना कंपन

मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र

है इसका स्पंदन

इस कठोर ने प्रलय

खेल है हँस कर खेला

किंतु आज कितना

कोमल हो रहा अकेला?

तुम कहती हो विश्व

एक लय है, मैं उसमें

लीन हो चलूँ? किंतु

धरा है क्या सुख इसमें।

क्रंदन का निज अलग

एक आकाश बना लूँ,

उस रोदन में अट्टाहास

हो तुमको पा लूँ।

फिर से जलनिधि उछल

बहे मर्य्यादा बाहर,

फिर झंझा हो वज्र-

प्रगति से भीतर बाहर,

फिर डगमड हो नाव

लहर ऊपर से भागे,

रवि-शशि-तारा

सावधान हों चौंके जागें,

किंतु पास ही रहो

बालिके मेरी हो, तुम,

मैं हूँ कुछ खिलवाड

नहीं जो अब खेलो तुम?"

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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