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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

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सुरा सुरभिमय बदन अरुण,

वे नयन भरे आलस अनुराग़।

कल कपोल था जहाँ बिछलता,

कल्पवृक्ष का पीत पराग।

विकल वासना के प्रतिनिधि,

वे सब मुरझाये चले गये।

आह जले अपनी ज्वाला से,

फिर वे जल में गले, गये।

अरी उपेक्षा-भरी अमरते,

री अतृप्ति निबार्ध विलास।

द्विधा-रहित अपलक नयनों की,

भूख-भरी दर्शन की प्यास।

बिछुड़े तेरे सब आलिंगन,

पुलक-स्पर्श का पता नहीं।

मधुमय चुंबन कातरतायें,

आज न मुख को सता रहीं।

रत्न-सौंध के वातायन,

जिनमें आता मधु-मदिर समीर।

टकराती होगी अब उनमें,

तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।

देवकामिनी के नयनों से,

जहाँ नील नलिनों की सृष्टि।

होती थी, अब वहाँ हो रही,

प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।

वे अम्लान-कुसुम-सुरभित,

मणि-रचित मनोहर मालायें।

बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें

विलासिनी सुर-बालायें।

देव-यजन के पशुयज्ञों की,

वह पूर्णाहुति की ज्वाला।

जलनिधि में बन जलती कैसी,

आज लहरियों की माला।

उनको देख कौन रोया यों,

अंतरिक्ष में बैठ अधीर।

व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय,

यह प्रालेय हलाहल नीर।

हाहाकार हुआ क्रंदनमय,

कठिन कुलिश होते थे चूर।

हुए दिगंत बधिर, भीषण रव,

बार-बार होता था क्रूर।

दिग्दाहों से धूम उठे,

या जलधर उठें क्षितिज-तट के।

सघन गगन में भीम प्रकंपन,

झंझा के चलते झटके।

अंधकार में मलिन मित्र की,

धुँधली आभा लीन हुई।

वरुण व्यस्त थे, घनी कालिमा,

स्तर-स्तर जमती पीन हुई।

पंचभूत का भैरव मिश्रण,

शंपाओं के शकल-निपात।

उल्का लेकर अमर शक्तियाँ,

खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।

बार-बार उस भीषण रव से,

कँपती धरती देख विशेष।

मानों नील व्योम उतरा हो

आलिंगन के हेतु अशेष।

उधर गरजतीं सिंधु लहरियाँ,

कुटिल काल के जालों सी।

चली आ रहीं फेन उगलती,

फन फैलाये व्यालों-सी।

धँसती धरा, धधकती ज्वाला,

ज्वाला-मुखियों के निस्वास।

और संकुचित क्रमश: उसके

अवयव का होता था ह्रास।

सबल तरंगाघातों से उस,

क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी।

व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी,

ऊभ-चूम थी विकलित-सी।

बढ़ने लगा विलास-वेग सा,

वह अतिभैरव जल-संघात।

तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का,

होता आलिंगन प्रतिघात।

वेला क्षण-क्षण निकट आ रही,

क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ।

उदधि डुबाकर अखिल धरा को,

बस मर्यादा-हीन हुआ।

करका क्रंदन करती गिरती,

और कुचलना था सब का।

पंचभूत का यह तांडवमय,

नृत्य हो रहा था कब का।

एक नाव थी, और न उसमें,

डाँडे लगते, या पतवार।

तरल तरंगों में उठ-गिरकर,

बहती पगली बारंबार।

लगते प्रबल थपेड़े, धुँधले

तट का था कुछ पता नहीं।

कातरता से भरी निराशा,

देख नियति पथ बनी वहीं।

लहरें व्योम चूमती उठतीं,

चपलायें असंख्य नचतीं।

गरल जलद की खड़ी झड़ी में

बूँदे निज संसृति रचतीं।

चपलायें उस जलधि-विश्व में,

स्वयं चमत्कृत होती थीं।

ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें,

खंड-खंड हो रोती थीं।

जलनिधि के तलवासी जलचर,

विकल निकलते उतराते।

हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी

कौन! कहाँ! कब सुख पाते?

घनीभूत हो उठे पवन, फिर

श्वासों की गति होती रूद्ध।

और चेतना थी बिलखाती,

दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।

उस विराट आलोड़न में ग्रह,

तारा बुद-बुद से लगते।

प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,

ज्योतिर्गणों-से जगते।

प्रहर दिवस कितने बीते,

अब इसको कौन बता सकता।

इनके सूचक उपकरणों का,

चिह्न न कोई पा सकता।

काला शासन-चक्र मृत्यु का,

कब तक चला, न स्मरण रहा।

महामत्स्य का एक चपेटा

दीन पोत का मरण रहा।

किंतु उसी ने ला टकराया,

इस उत्तरगिरि के शिर से।

देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक,

श्वास लगा लेने फिर से।

आज अमरता का जीवित हूँ,

मैं वह भीषण जर्जर दंभ।

आह सर्ग के प्रथम अंक का,

अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!

ओ जीवन की मरु-मरीचिका,

कायरता के अलस विषाद!

अरे पुरातन अमृत अगतिमय,

मोहमुग्ध जर्जर अवसाद!

मौन नाश विध्वंस अँधेरा,

शून्य बना जो प्रकट अभाव।

वही सत्य है, अरी अमरते,

तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।

मृत्यु, अरी चिर-निद्रे तेरा,

अंक हिमानी-सा शीतल।

तू अनंत में लहर बनाती,

काल-जलधि की-सी हलचल।

महानृत्य का विषम सम अरी,

अखिल स्पंदनों की तू माप।

तेरी ही विभूति बनती है,

सृष्टि सदा होकर अभिशाप।

अंधकार के अट्टहास-सी,

मुखरित सतत चिरंतन सत्य।

छिपी सृष्टि के कण-कण में तू

यह सुंदर रहस्य है नित्य।

जीवन तेरा क्षुद्र अंश है,

व्यक्त नील घन-माला में।

सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर,

क्षण भर रहा उजाला में।

पवन पी रहा था शब्दों को

निर्जनता की उखड़ी साँस।

टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि

बनी हिम-शिलाओं के पास।

धू-धू करता नाच रहा था,

अनस्तित्व का तांडव नृत्य।

आकर्षण-विहीन विद्युत्कण,

बने भारवाही थे भृत्य।

मृत्यु सदृश शीतल निराश ही,

आलिंगन पाती थी दृष्टि।

परमव्योम से भौतिक कण-सी,

घने कुहासों की थी वृष्टि।

वाष्प बना उड़ता जाता था,

या वह भीषण जल-संघात।

सौरचक्र में आवर्तन था,

प्रलय निशा का होता प्रात।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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