shabd-logo

वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

98 बार देखा गया 98

 "कालिमा धुलने लगी

घुलने लगा आलोक।

इसी निभृत अनंत में

बसने लगा अब लोक।

इस निशामुख की मनोहर

सुधामय मुस्कान।

देख कर सब भूल जायें

दुःख के अनुमान।

देख लो, ऊँचे शिखर का

व्योम-चुबंन-व्यस्त।

लौटना अंतिम किरण का

और होना अस्त।

चलो तो इस कौमुदी में

देख आवें आज।

प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,

साधना का राज़।"

सृष्टि हँसने लगी

आँखों में खिला अनुराग।

राग-रंजित चंद्रिका थी

उड़ा सुमन-पराग।

और हँसता था अतिथि

मनु का पकड़कर हाथ।

चले दोनों स्वप्न-पथ में

स्नेह-संबल साथ।

देवदारु निकुंज गह्वर

सब सुधा में स्नात।

सब मनाते एक उत्सव

जागरण की रात।

आ रही थी मदिर भीनी

माधवी की गंध।

पवन के घन घिरे पड़ते थे

बने मधु-अंध।

शिथिल अलसाई पड़ी

छाया निशा की कांत।

सो रही थी शिशिर कण की

सेज़ पर विश्रांत।

उसी झुरमुट में हृदय की

भावना थी भ्रांत।

जहाँ छाया सृजन करती

थी कुतूहल कांत।

कहा मनु ने "तुम्हें देखा

अतिथि! कितनी बार।

किंतु इतने तो न थे

तुम दबे छवि के भार!

पूर्व-जन्म कहूँ कि था

स्पृहणीय मधुर अतीत।

गूँजते जब मदिर घन में

वासना के गीत।

भूल कर जिस दृश्य को

मैं बना आज़ अचेत।

वही कुछ सव्रीड

सस्मित कर रहा संकेत।

"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"

यही सुदृढ विचार।

चेतना का परिधि

बनता घूम चक्राकार।

मधु बरसती विधु किरण

है काँपती सुकुमार?

पवन में है पुलक

मथंर चल रहा मधु-भार।

तुम समीप, अधीर

इतने आज क्यों हैं प्राण?

छक रहा है किस सुरभी से

तृप्त होकर घ्राण?

आज क्यों संदेह होता

रूठने का व्यर्थ।

क्यों मनाना चाहता-सा

बन रहा था असमर्थ।

धमनियों में वेदना

सा रक्त का संचार।

हृदय में है काँपती

धड़कन, लिये लघु भार।

चेतना रंगीन ज्वाला

परिधि में सानंद।

मानती-सी दिव्य-सुख

कुछ गा रही है छंद।

अग्निकीट समान जलती

है भरी उत्साह,

और जीवित है

न छाले हैं न उसमें दाह।

कौन हो तुम-माया

कुहुक-सी साकार।

प्राण-सत्ता के मनोहर

भेद-सी सुकुमार!

हृदय जिसकी कांत छाया

में लिये निश्वास।

थके पथिक समान करता

व्यजन ग्लानि विनाश।"

श्याम-नभ में मधु-किरण-सा

फिर वही मृदु हास।

सिंधु की हिलकोर

दक्षिण का समीर-विलास!

कुंज में गुँजरित

कोई मुकुल सा अव्यक्त।

लगा कहने अतिथि

मनु थे सुन रहे अनुरक्त।

"यह अतृप्ति अधीर मन की

क्षोभयुक्त उन्माद।

सखे! तुमुल-तरंग-सा

उच्छवासमय संवाद।

मत कहो, पूछो न कुछ

देखो न कैसी मौन।

विमल राका मूर्ति बन कर

स्तब्ध बैठा कौन?

विभव मतवाली प्रकृति का

आवरण वह नील।

शिथिल है, जिस पर बिखरता

प्रचुर मंगल खील।

राशि-राशि नखत-कुसुम की

अर्चना अश्रांत।

बिखरती है, तामरस

सुंदर चरण के प्रांत।"

मनु निखरने लगे

ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप।

वह अनंत प्रगाढ़

छाया फैलती अपरूप।

बरसता था मदिर कण-सा

स्वच्छ सतत अनंत।

मिलन का संगीत

होने लगा था श्रीमंत।

छूटती चिंगारियाँ

उत्तेजना उद्भ्रांत।

धधकती ज्वाला मधुर

था वक्ष विकल अशांत।

वातचक्र समान कुछ

था बाँधता आवेश।

धैर्य का कुछ भी न

मनु के हृदय में था लेश।

कर पकड़ उन्मुक्त से

हो लगे कहने "आज,

देखता हूँ दूसरा कुछ

मधुरिमामय साज!

वही छवि! हाँ वही जैसे!

किंतु क्या यह भूल?

रही विस्मृति-सिंधु में

स्मृति-नाव विकल अकूल।

जन्म संगिनी एक थी

जो कामबाला नाम।

मधुर श्रद्धा, था

हमारे प्राण को विश्राम।

सतत मिलता था उसी से

अरे जिसको फूल।

दिया करते अर्ध में

मकरंद सुषमा-मूल।

प्रलय में भी बच रहे हम

फिर मिलन का मोद।

रहा मिलने को बचा

सूने जगत की गोद।

ज्योत्स्ना सी निकल आई!

पार कर नीहार।

प्रणय-विधु है खड़ा

नभ में लिये तारक हार।

कुटिल कुतंक से बनाती

कालमाया जाल।

नीलिमा से नयन की

रचती तमिसा माल।

नींद-सी दुर्भेद्य तम की

फेंकती यह दृष्टि।

स्वप्न-सी है बिखर जाती

हँसी की चल-सृष्टि।

हुई केंद्रीभूत-सी है

साधना की स्फूर्ति।

दृढ-सकल सुकुमारता में

रम्य नारी-मूर्ति।

दिवाकर दिन या परिश्रम

का विकल विश्रांत।

मैं पुरुष, शिशु सा भटकता

आज तक था भ्रांत।

चंद्र की विश्राम राका

बालिका-सी कांत।

विजयनी सी दीखती

तुम माधुरी-सी शांत।

पददलित सी थकी

व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत।

शस्य-श्यामल भूमि में

होती समाप्त अशांत।

आह! वैसा ही हृदय का

बन रहा परिणाम।

पा रहा आज देकर

तुम्हीं से निज़ काम।

आज ले लो चेतना का

यह समर्पण दान।

विश्व-रानी! सुंदरी नारी!

जगत की मान!"

धूम-लतिका सी गगन-तरु

पर न चढती दीन।

दबी शिशिर-निशीथ में

ज्यों ओस-भार नवीन।

झुक चली सव्रीड

वह सुकुमारता के भार।

लद गई पाकर पुरुष का

नर्ममय उपचार।

और वह नारीत्व का जो

मूल मधु अनुभाव।

आज जैसे हँस रहा

भीतर बढ़ाता चाव।

मधुर व्रीडा-मिश्र

चिंता साथ ले उल्लास।

हृदय का आनंद-कूज़न

लगा करने रास।

गिर रहीं पलकें

झुकी थी नासिका की नोक।

भ्रूलता थी कान तक

चढ़ती रही बेरोक।

स्पर्श करने लगी लज्जा

ललित कर्ण कपोल।

खिला पुलक कदंब सा

था भरा गदगद बोल।

किन्तु बोली "क्या

समर्पण आज का हे देव!

बनेगा-चिर-बंध

नारी-हृदय-हेतु-सदैव।

आह मैं दुर्बल, कहो

क्या ले सकूँगी दान!

वह, जिसे उपभोग करने में

विकल हों प्रान?"

30
रचनाएँ
कामायनी
0.0
कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
1

चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
2
0
0

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

2

चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

3

आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
1
0
0

ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

4

आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

5

श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

6

श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

7

काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

8

काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

9

वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

10

वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

11

लज्जा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

12

लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

13

कर्म (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

14

कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

15

ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

16

ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

17

इड़ा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

18

इड़ा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

19

स्वप्न (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

20

स्वप्न (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

21

संघर्ष (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

22

संघर्ष (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

23

निर्वेद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

24

निर्वेद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

25

दर्शन (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

26

दर्शन (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

27

रहस्य (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

28

रहस्य (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

29

आनंद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

30

आनंद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए