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काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022

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जागरण-लोक था भूल चला,

स्वप्नों का सुख-संचार हुआ।

कौतुक सा बन मनु के मन का,

वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।

था व्यक्ति सोचता आलस में,

चेतना सजग रहती दुहरी।

कानों के कान खोल करके,

सुनती थी कोई ध्वनि गहरी।

"प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा,

संतुष्ट ओध से मैं न हुआ।

आया फिर भी वह चला गया,

तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।

देवों की सृष्टि विलिन हुई,

अनुशीलन में अनुदिन मेरे।

मेरा अतिचार न बंद हुआ,

उन्मत्त रहा सबको घेरे।

मेरी उपासना करते वे,

मेरा संकेत विधान बना।

विस्तृत जो मोह रहा मेरा,

वह देव-विलास-वितान तना।

मैं काम, रहा सहचर उनका,

उनके विनोद का साधन था।

हँसता था और हँसाता था,

उनका मैं कृतिमय जीवन था।

जो आकर्षण बन हँसती थी,

रति थी अनादि-वासना वही।

अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के,

अंतर में उसकी चाह रही।

हम दोनों का अस्तित्व रहा,

उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।

जिससे संसृति का बनता है,

आकार रूप के नर्त्तन-सा।

उस प्रकृति-लता के यौवन में,

उस पुष्पवती के माधव का।

मधु-हास हुआ था वह पहला,

दो रूप मधुर जो ढाल सका।"

"वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई,

अपने आलस का त्याग किये।

परमाणु बल सब दौड़ पड़े,

जिसका सुंदर अनुराग लिये।

कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से,

मिलने को गले ललकते से।

अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के,

विद्युत्कण मिले झलकते से।

वह आकर्षण, वह मिलन हुआ,

प्रारंभ माधुरी छाया में।

जिसको कहते सब सृष्टि,बनी

मतवाली माया में।

प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी,

संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही।

ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था,

मादक मरंद की वृष्टि रही।

भुज-लता पड़ी सरिताओं की,

शैलों के गले सनाथ हुए।

जलनिधि का अंचल व्यजन बना,

धरणी के दो-दो साथ हुए।

कोरक अंकुर-सा जन्म रहा,

हम दोनों साथी झूल चले।

उस नवल सर्ग के कानन में,

मृदु मलयानिल के फूल चले।

हम भूख-प्यास से जाग उठे,

आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में।

रति-काम बने उस रचना में जो,

रही नित्य-यौवन वय में?'

"सुरबालाओं की सखी रही,

उनकी हृत्त्री की लय थी

रति, उनके मन को सुलझाती,

वह राग-भरी थी, मधुमय थी।

मैं तृष्णा था विकसित करता,

वह तृप्ति दिखती थी उनकी,

आनन्द-समन्वय होता था

हम ले चलते पथ पर उनको।

वे अमर रहे न विनोद रहा,

चेतना रही, अनंग हुआ।

हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये,

संचित का सरल प्रंसग हुआ।"

"यह नीड़ मनोहर कृतियों का,

यह विश्व कर्म रंगस्थल है।

है परंपरा लग रही यहाँ,

ठहरा जिसमें जितना बल है।

वे कितने ऐसे होते हैं

जो केवल साधन बनते हैं।

आरंभ और परिणामों को,

संबध सूत्र से बुनते हैं।

ऊषा की सज़ल गुलाली जो,

घुलती है नीले अंबर में।

वह क्या? क्या तुम देख रहे,

वर्णों के मेघाडंबर में?

अंतर है दिन औ 'रजनी का

यह, साधक-कर्म बिखरता है।

माया के नीले अंचल में,

आलोक बिदु-सा झरता है।"

"आरंभिक वात्या-उद्गम मैं,

अब प्रगति बन रहा संसृति का।

मानव की शीतल छाया में,

ऋणशोध करूँगा निज कृति का।

दोनों का समुचित परिवर्त्तन,

जीवन में शुद्ध विकास हुआ।

प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई,

जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।

यह लीला जिसकी विकस चली,

वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला।

उसका संदेश सुनाने को,

संसृति में आयी वह अमला।

हम दोनों की संतान वही,

कितनी सुंदर भोली-भाली।

रंगों ने जिससे खेला हो,

ऐसे फूलों की वह डाली।

जड़-चेतनता की गाँठ वही,

सुलझन है भूल-सुधारों की।

वह शीतलता है शांतिमयी,

जीवन के उष्ण विचारों की।

उसको पाने की इच्छा हो

तो, "योग्य बनो"-कहती-कहती,

वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा,

जैसे मुरली चुप हो रहती।

मनु आँख खोलकर पूछ रहे-

"पथ कौन वहाँ पहुँचाता है?

उस ज्योतिमयी को देव कहो,

कैसे कोई नर पाता है?"

पर कौन वहाँ उत्तर देता,

वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ।

देखा तो सुंदर प्राची में,

अरूणोदय का रस-रंग हुआ।

उस लता कुंज की झिल-मिल से,

हेमाभरश्मि थी खेल रही।

देवों के सोम-सुधा-रस की,

मनु के हाथों में बेल रही।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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