shabd-logo

काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022

41 बार देखा गया 41

"मधुमय वसंत जीवन-वन के,

बह अंतरिक्ष की लहरों में।

कब आये थे तुम चुपके से,

रजनी के पिछले पहरों में?

क्या तुम्हें देखकर आते यों,

मतवाली कोयल बोली थी?

उस नीरवता में अलसाई,

कलियों ने आँखे खोली थीं?

जब लीला से तुम सीख रहे,

कोरक-कोने में लुक करना।

तब शिथिल सुरभि से धरणी में,

बिछलन न हुई थी? सच कहना।

जब लिखते थे तुम सरस हँसी,

अपनी, फूलों के अंचल में।

अपना कल कंठ मिलाते थे,

झरनों के कोमल कल-कल में।

निश्चित आह वह था कितना,

उल्लास, काकली के स्वर में।

आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही,

जीवन दिगंत के अंबर में।

शिशु चित्रकार! चंचलता में,

कितनी आशा चित्रित करते!

अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी,

जीवन की आँखों में भरते।

लतिका घूँघट से चितवन की,

वह कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा।

प्लावित करती मन-अजिर रही,

था तुच्छ विश्व वैभव सारा।

वे फूल और वह हँसी रही,

वह सौरभ, वह निश्वास छना।

वह कलरव, वह संगीत अरे!

वह कोलाहल एकांत बना।"

कहते-कहते कुछ सोच रहे,

लेकर निश्वास निराशा की।

मनु अपने मन की बात,रुकी,

फिर भी न प्रगति अभिलाषा की।

"ओ नील आवरण जगती के!

दुर्बोध न तू ही है इतना।

अवगुंठन होता आँखों का,

आलोक रूप बनता जितना।

चल-चक्र वरुण का ज्योति भरा

व्याकुल तू क्यों देता फेरी?

तारों के फूल बिखरते हैं,

लुटती है असफलता तेरी।

नव नील कुंज हैं झूम रहे,

कुसुमों की कथा न बंद हुई।

है अतंरिक्ष आमोद भरा,

हिम-कणिका ही मकरंद हुई।

इस इंदीवर से गंध भरी,

बुनती जाली मधु की धारा।

मन-मधुकर की अनुरागमयी,

बन रही मोहिनी-सी कारा।

अणुओं को है विश्राम कहाँ?

यह कृतिमय वेग भरा कितना।

अविराम नाचता कंपन है,

उल्लास सजीव हुआ कितना?

उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की,

कितनी है मोहमयी माया?

जिनसे समीर छनता-छनता,

बनता है प्राणों की छाया।

आकाश-रंध्र हैं पूरित-से,

यह सृष्टि गहन-सी होती है।

आलोक सभी मूर्छित सोते,

यह आँख थकी-सी रोती है।

सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ,

बनकर रहस्य हैं नाच रहीं।

मेरी आँखों को रोक वही,

आगे बढने में जाँच रहीं।

मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी,

वह सब क्या छाया उलझन है?

सुंदरता के इस परदे में,

क्या अन्य धरा कोई धन है?

मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो,

पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?

उलझन प्राणों के धागों की,

सुलझन का समझूँ मान तुम्हें।

माधवी निशा की अलसाई,

अलकों में लुकते तारा-सी।

क्या हो सूने-मरु अंचल में,

अंतःसलिला की धारा-सी।

श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई,

मधु-धारा घोल रहा,

इस नीरवता के परदे में,

जैसे कोई कुछ बोल रहा।

है स्पर्श मलय के झिलमिल सा,

संज्ञा को और सुलाता है।

पुलकित हो आँखे बंद किये,

तंद्रा को पास बुलाता है।

व्रीड़ा है यह चंचल कितनी,

विभ्रम से घूँघट खींच रही।

छिपने पर स्वयं मृदुल कर से,

क्यों मेरी आँखे मींच रही?

उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा,

इस उदित शुक्र की छाया में।

ऊषा-सा कौन रहस्य लिये,

सोती किरनों की काया में।

उठती है किरनों के ऊपर,

कोमल किसलय की छाजन-सी।

स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में,

जैसे कुछ दूर बजे बंसी।

सब कहते हैं- 'खोलो खोलो,

छवि देखूँगा जीवन धन की'।

आवरन स्वयं बनते जाते हैं,

भीड़ लग रही दर्शन की।

चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं,

अवगुंठन आज सँवरता सा,

जिसमें अनंत कल्लोल भरा,

लहरों में मस्त विचरता सा।

अपना फेनिल फन पटक रहा,

मणियों का जाल लुटाता-सा।

उनिन्द्र दिखाई देता हो,

उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।"

"जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा,

इस मधुर भार को जीवन के।

आने दो कितनी आती हैं,

बाधायें दम-संयम बन के।

नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे,

इस ऊषा की लाली क्या है?

संकल्प भरा है उनमें

संदेहों की जाली क्या है?

कौशल यह कोमल कितना है,

सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?

चेतना इंद्रियों की मेरी,

मेरी ही हार बनेगी क्या?

"पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ,

यह स्पर्श,रूप, रस गंध भरा

मधु, लहरों के टकराने से,

ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।

तारा बनकर यह बिखर रहा,

क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे!

मादकता-माती नींद लिये,

सोऊँ मन में अवसाद भरे।

चेतना शिथिल-सी होती है,

उन अधंकार की लहरों में"

मनु डूब चले धीरे-धीरे

रजनी के पिछले पहरों में।

उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी,

स्मृतियों की संचित छाया से।

इस मन को है विश्राम कहाँ,

चंचल यह अपनी माया से।

30
रचनाएँ
कामायनी
0.0
कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
1

चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
2
0
0

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

2

चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

3

आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
1
0
0

ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

4

आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

5

श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

6

श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

7

काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

8

काम (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

9

वासना (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

10

वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

11

लज्जा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

12

लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

13

कर्म (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

14

कर्म (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

15

ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

16

ईर्ष्या (भाग 2 )

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

17

इड़ा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

18

इड़ा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

19

स्वप्न (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

20

स्वप्न (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

21

संघर्ष (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

22

संघर्ष (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

23

निर्वेद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

24

निर्वेद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

25

दर्शन (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

26

दर्शन (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

27

रहस्य (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

28

रहस्य (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

29

आनंद (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

30

आनंद (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
0
0
0

तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए