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कर्म (भाग 1)

19 अप्रैल 2022

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी

सोम लता तब मनु को।

चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर

उसने जीवन धनु को।

हुए अग्रसर से मार्ग में

छुटे-तीर-से-फिर वे।

यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से

रह न सके अब थिर वे।

भरा कान में कथन काम का

मन में नव अभिलाषा।

लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित

उमड़ रही थी आशा।

ललक रही थी ललित लालसा

सोमपान की प्यासी।

जीवन के उस दीन विभव में

जैसे बनी उदासी।

जीवन की अभिराम साधना

भर उत्साह खड़ी थी।

ज्यों प्रतिकूल पवन में तरणी

गहरे लौट पड़ी थी।

श्रद्धा के उत्साह वचन, फिर

काम प्रेरणा-मिल के।

भ्रांत अर्थ बन आगे आये

बने ताड़ थे तिल के।

बन जाता सिद्धांत प्रथम, फिर

पुष्टि हुआ करती है।

बुद्धि उसी ऋण को सबसे

ले सदा भरा करती है।

मन जब निश्चित सा कर लेता

कोई मत है अपना।

बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का

सतत निरखता सपना।

पवन वही हिलकोर उठाता

वही तरलता जल में।

वही प्रतिध्वनि अंतर तम की

छा जाती नभ थल में।

सदा समर्थन करती उसकी

तर्कशास्त्र की पीढ़ी।

"ठीक यही है सत्य! यही है

उन्नति सुख की सीढ़ी।

और सत्य! यह एक शब्द, तू

कितना गहन हुआ है?

मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का

पाला हुआ सुआ है।

सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी

रट-सी लगी हुई है।

किन्तु स्पर्श से तर्क-करो, क्यों

बनता 'छुईमुई' है।

असुर पुरोहित उस विपल्व से

बचकर भटक रहे थे।

वे किलात-आकुलि थे जिसने

कष्ट अनेक सहे थे।

देख-देख कर मनु का पशु, जो

व्याकुल चंचल रहती।

उनकी आमिष-लोलुप-रसना

आँखों से कुछ कहती।

'क्यों किलात! खाते-खाते तृण

और कहाँ तक जीऊँ।

कब तक मैं देखूँ जीवित पशु

घूँट लहू का पीऊँ?

क्या कोई इसका उपाय ही

नहीं कि इसको खाऊँ?

बहुत दिनों पर एक बार तो

सुख की बीन बज़ाऊँ।'

आकुलि ने तब कहा-

'देखते नहीं साथ में उसके।

एक मृदुलता की, ममता की

छाया रहती हँस के।

अंधकार को दूर भगाती, वह

आलोक किरण-सी।

मेरी माया बिंध जाती है

जिससे हलके घन-सी।

तो भी चलो आज़ कुछ करके

तब मैं स्वस्थ रहूँगा,

या जो भी आवेंगे सुख-दुख

उनको सहज़ सहूँगा।'

यों हीं दोनों कर विचार, उस

कुंज़ द्वार पर आये।

जहाँ सोचते थे मनु बैठे

मन से ध्यान लगाये।

"कर्म-यज्ञ से जीवन के

सपनों का स्वर्ग मिलेगा।

इसी विपिन में मानस की

आशा का कुसुम खिलेगा।

किंतु बनेगा कौन पुरोहित

अब यह प्रश्न नया है।

किस विधान से करूँ यज्ञ

यह पथ किस ओर गया है?

श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी

वह अनंत अभिलाषा।

फिर इस निर्ज़न में खोज़े अब

किसको मेरी आशा।

कहा असुर मित्रों ने अपना

मुख गंभीर बनाये।

जिनके लिये यज्ञ होगा

हम उनके भेजे आये।

यज़न करोगे क्या तुम? फिर यह

किसको खोज़ रहे हो?

अरे पुरोहित की आशा में

कितने कष्ट सहे हो।

इस जगती के प्रतिनिधि, जिनसे

प्रकट निशीथ सवेरा।

"मित्र-वरुण जिनकी छाया है

यह आलोक-अँधेरा।

वे पथ-दर्शक हों सब

विधि पूरी होगी मेरी।

चलो आज़ फिर से वेदी पर

हो ज्वाला की फेरी।"

"परंपरागत कर्मों की वे

कितनी सुंदर लड़ियाँ।

जिनमें-साधन की उलझी हैं

जिसमें सुख की घड़ियाँ।

जिनमें है प्रेरणामयी-सी

संचित कितनी कृतियाँ।

पुलकभरी सुख देने वाली

बन कर मादक स्मृतियाँ।

साधारण से कुछ अतिरंजित

गति में मधुर त्वरा-सी।

उत्सव-लीला, निर्जनता की

जिससे कटे उदासी।

एक विशेष प्रकार का कुतूहल

होगा श्रद्धा को भी।"

प्रसन्नता से नाच उठा, मन

नूतनता का लोभी।

यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी

धधक रही थी ज्वाला।

दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे

अस्थि खंड की माला।

वेदी की निर्मम-प्रसन्नता

पशु की कातर वाणी।

सोम-पात्र भी भरा

धरा था पुरोडाश भी आगे।

"जिसका था उल्लास निरखना

वही अलग जा बैठी।

यह सब क्यों फिर दृप्त वासना

लगी गरज़ने ऐंठी।

जिसमें जीवन का संचित सुख

सुंदर मूर्त बना है।

हृदय खोलकर कैसे उसको

कहूँ कि वह अपना है।

वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ

इसमें सुनिहित होगा।

आज़ वही पशु मर कर भी क्या

सुख में बाधक होगा?

श्रद्धा रूठ गयी तो फिर क्या

उसे मनाना होगा?

या वह स्वंय मान जायेगी,

किस पथ जाना होगा।"

पुरोडाश के साथ सोम का

पान लगे मनु करने।

लगे प्राण के रिक्त अंश को

मादकता से भरने।

संध्या की धूसर छाया में

शैल श्रृंग की रेखा।

अंकित थी दिगंत अंबर में

लिये मलिन शशि-लेखा।

श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में

दुखी लौट कर आयी।

एक विरक्ति-बोझ सी ढोती

मन ही मन बिलखायी।

सूखी काष्ठ संधि में पतली

अनल शिखा जलती थी।

उस धुँधले गुह में आभा से

तामस को छलती सी।

किंतु कभी बुझ जाती पाकर

शीत पवन के झोंके।

कभी उसी से जल उठती

तब कौन उसे फिर रोके?

कामायनी पड़ी थी अपना

कोमल चर्म बिछा के।

श्रम मानो विश्राम कर रहा

मृदु आलस को पा के।

धीरे-धीरे जगत चल रहा

अपने उस ऋज़ुपथ में।

धीरे-धीरे खिलते तारे

मृग जुतते विधुरथ में।

अंचल लटकाती निशीथिनी

अपना ज्योत्स्ना-शाली।

जिसकी छाया में सुख पावे

सृष्टि वेदना वाली।

उच्च शैल-शिखरों पर हँसती

प्रकृति चंचल बाला।

धवल हँसी बिखराती

अपना फैला मधुर उजाला।

जीवन की उद्धाम लालसा

उलझी जिसमें व्रीड़ा।

एक तीव्र उन्माद और

मन मथने वाली पीड़ा।

मधुर विरक्ति-भरी आकुलता,

घिरती हृदय-गगन में।

अंतर्दाह स्नेह का तब भी

होता था उस मन में।

वे असहाय नयन थे

खुलते-मुँदते भीषणता में।

आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था

स्पष्ट कुटिल कटुता में।

"कितना दुःख! जिसे मैं चाहूँ

वह कुछ और बना हो।

मेरा मानस-चित्र खींचना

सुंदर सा सपना हो।

जाग उठी है दारुण-ज्वाला

इस अनंत मधुबन में।

कैसे बुझे कौन कह देगा

इस नीरव निर्ज़न में?

यह अंनत अवकाश नीड़-सा

जिसका व्यथित बसेरा।

वही वेदना सज़ग पलक में

भर कर अलस सवेरा।

काँप रहें हैं चरण पवन के,

विस्तृत नीरवता सी।

धुली जा रही है दिशि-दिशि की

नभ में मलिन उदासी।

अंतरतम की प्यास

विकलता से लिपटी बढ़ती है।

युग-युग की असफलता का

अवलंबन ले चढ़ती है।

विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है

अपने ताप विषम से।

फैल रही है घनी नीलिमा

अंतर्दाह परम-से।

उद्वेलित है उदधि

लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल सी।

चक्रवाल की धुँधली रेखा

मानों जाती झुलसी।

सघन घूम कुँड़ल में कैसी

नाच रही ये ज्वाला।

तिमिर फणी पहने है मानों

अपने मणि की माला।

जगती तल का सारा क्रदंन

यह विषमयी विषमता।

चुभने वाला अंतरग छल

अति दारुण निर्ममता।

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रचनाएँ
कामायनी
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कामायनी की कथा मूलत: एक कल्पना‚ एक फैण्टसी है। जिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र - मनु‚ श्रद्धा और इड़ा - मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।
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चिंता (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दू

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चिंता (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि, वे सब मुरझाये चले गये। आह जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले, गये।

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आशा (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सि

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आशा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। पाकयज्ञ करना निश्चित कर, लगे शालियों को चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना, लगी धूम-पट

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श्रद्धा (भाग1)

19 अप्रैल 2022
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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत, जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आल

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श्रद्धा (भाग2)

19 अप्रैल 2022
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? हृदय में क्या है नहीं अधीर, लालसा की निश्शेष? कर रहा वंचित कहीं न त्याग, तुम्हें,मन में धर सुं

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काम (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों, मतवाली कोयल बोली थी? उस नीरवता में अलसाई, कलियों ने आँखे खोली थी

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काम (भाग 2)

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जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि ग

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वासना (भाग 1)

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चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत। यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत। एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार। प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार। एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर

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वासना (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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 "कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक। इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक। इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुस्कान। देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान। देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुबंन-व्यस्त। लौ

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लज्जा (भाग 1)

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"कोमल किसलय के अंचल में, नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी। गोधूली के धूमिल पट में, दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में, मन का उन्माद निखरता ज्यों। सुरभित लहरों की छाया में, ब

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लज्जा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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"फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते

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कर्म (भाग 1)

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कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में

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कर्म (भाग 2)

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"जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध

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ईर्ष्या (भाग 1)

19 अप्रैल 2022
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पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से

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ईर्ष्या (भाग 2 )

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"चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बन

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इड़ा (भाग 1)

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"किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती

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इड़ा (भाग 2)

19 अप्रैल 2022
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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो स

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स्वप्न (भाग 1)

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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायन

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स्वप्न (भाग 2)

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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अ

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संघर्ष (भाग 1)

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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार

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संघर्ष (भाग 2)

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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्

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निर्वेद (भाग 1)

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रह

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निर्वेद (भाग 2)

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उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो पर क्या था मैं यहीं पडा'

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दर्शन (भाग 1)

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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निज

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दर्शन (भाग 2)

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील

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रहस्य (भाग 1)

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उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से

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रहस्य (भाग 2)

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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" "सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष

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आनंद (भाग 1)

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चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु

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आनंद (भाग 2)

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तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पु

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