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आत्मकथा

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महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकांता का हाल कहना शुरू किया। बाबा जी – ‘मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा-सा तिलिस्म है और चुनारगढ़ के इला

बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आए। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जा

दिन दोपहर से कुछ ज्यादा जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान-पूजा कुछ नहीं की थी। लश्कर में जा कर कुमार राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि ब

अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़, तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ ले कर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पाँच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ

पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकांता और कुँवर वीरेंद्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जाएँगे और वहाँ से राजा सुरेंद्रसिंह और कुम

दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं। उस खूनी को कमंद से बाँधे साथ लिए हुए पंडित

सुबह को खुशी-खुशी महाराज ने दरबार किया। तेजसिंह और बद्रीनाथ भी बड़ी इज्जत से बैठाए गए। महाराज के हुक्म से जालिम खाँ और उसके चारों साथी दरबार में लाए गए जो हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए थे। हुक्म पा तेजसिं

खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुँवर वीरेंद्रसिंह और योगी जी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे। कुमार - ‘पहले यह कहिए चंद्रकांता जीती है या मर गई?’ योगी – ‘राम-राम, चंद

विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे-धीरे बातचीत कर रहे हैं। चाँदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमिय

जो कुछ दिन बाकी था, दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने-बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए। खुद महाराज जयसिंह ने ज

कुँवर वीरेंद्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकांता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहाँ कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं। उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। ज

बद्रीनाथ, जालिम खाँ की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिम खाँ को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिम खाँ ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धमकाया था कि अब तुम्हारे महल में डा

विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकांता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती-जागती है और उसी की खोज में वीरेंद्रसिंह फिर खोह के अंदर ग

कुँवर वीरेंद्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर-उधर के कई निशानों को देख कर कुमार से कहा - ‘बेशक यहाँ का छोटा तिलिस्म तोड़ कर कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकांता को भ

राजा सुरेंद्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुँचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गई, मगर हिफाजत के लिए मकान के च

तिलिस्म के दरवाजे पर कुँवर वीरेंद्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे, एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था, दूसरे अजदहे वाले द

दिन अनुमानतः पहर भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई, फिर किले के दरवाजे तक पहुँची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल ग

तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकल कर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिता कर दूसरे दिन सवेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा, जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब

फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिए। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात-भर लड़ाई होती रही तो सवेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जाएगा। आश्चर्य में पड़े बद्रीनाथ वगैर

राजा सुरेंद्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो, दौड़े-दौड़े बिना मुकाम किए दो रोज में चुनारगढ़ के पास पहुँचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को, जो उनके लश्कर के साथ थे, इस्तकबाल के लिए

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