शांतनु देव को पंख लग गए थे और वो आसमान में ऊँचे- ऊँचे उड़ता जा रहा था। उसकी कोशिश भी तो यही थी कि" नील गगन के आँचल में दूर-दूर तक परवाज करें और फिर उसके तो पंख लग गए थे। कोमल-कोमल सफेद पंख, जिसमें बहुत ताकत थी, तभी तो ये पंख उसे आसमान की बुलंदियों पर उड़ाए जा रहा था, बस उड़ाए जा रहा था। फिर तो उसके हृदय में उठते हुए आनंद रुपी लहर, जो उसे और भी ऊँचे उड़ने को प्रेरित कर रहे थे, उसकी भावनाओं को भड़का रहे थे।
आज शांतनु देव को खुद पर गर्व हो रहा था। अपने नव पल्लवित निकल आए पंखों पर गर्व हो रहा था और गर्व होता भी नहीं क्यों?...आखिर उसके इच्छाओं की पूर्ति जो हुई थी। उसने तो कभी सोचा ही नहीं था कि" इस तरह से उसके पंख निकल आएंगे। परन्तु यह सत्य हुआ था और इसलिये ही शांतनु देव काफी खुश था। आखिर उसके वर्षों की इच्छा पूर्ण जो हुई थी। तभी तो वो आसमान की उँचाई से दिल्ली शहर को देख रहा था। उस शहर को देख रहा था, जो हर पल जवान रहता है, जिसकी धड़कन हमेशा धड़कती रहती है। शांतनु देव उस शहर को देख रहा था, जिसे लोग मनमौजी का शहर कहते है। वह देखता जा रहा था ऊँची-ऊँची बिल्डिंगो को, सर्प की भांति चलती हुई सड़क को और उसपर दौड़ती हुई जिंदगी को।
उसे सब कुछ तो अच्छा लग रहा था, सफेद-सफेद बादलों के बीच तैरते हुए। बीतता हुआ समय और परवाज करते हुए उसके पंख। वह और भी बादलों के बीच सफर करता , किन्तु तभी चौंका। उसकी आँखें सिकुड़ गई, क्योंकि" उसने जो देखा था, शायद देखने योग्य नहीं था। उसने देखा कि" सफेद वस्त्र में लिपटी हुई एक सुंदर सी औरत, जिसे सड़क के आवारा कुत्तों ने घेर रखा था और उसके शरीर को नोचने की कोशिश कर रहे थे। वह औरत, जो कि बेबस थी-लाचार थी, उन आवारा कुतो से खुद को बचाने के लिए नाकाम कोशिश कर रही थी। ऐसे में शांतनु देव विकल हो गया, उसे बेचैनी की अनुभूति होने लगी। उसे लगा कि" अगर उसने औरत की रक्षा नहीं की, तो वे आवारा कुत्ते उसे नोच खाएंगे, वे घातक बन कर उस औरत का शिकार कर लेंगे।
और वो उद्धत हो गया उस औरत को बचाने के लिए। शायद उसका दायित्व भी था कि उस औरत की रक्षा करें। तभी तो उसने परवाज कर रहे अपने पंखों को रोका और जमीन पर उतर आया। फिर तो वो प्रयास करने लगा कि" उन आवारा कुत्तों को दूर भगा दे, जिससे कि, उस औरत की रक्षा हो जाए। परन्तु..... उसके प्रयास विफल होने लगे, लगा कि जैसे उन आवारा कुत्तों ने ढृढ प्रतिज्ञा कर ली हो उस औरत का शिकार करने के लिए। तभी तो, वह जितना भी कोशिश करता था उन दानवी कुत्तों को दूर कर दें, वे कुत्ते दुगुनी ताकत से उस औरत पर हमला करते थे और देखते ही देखते उस औरत के शरीर को अपने भयंकर दांतों से नोचने लगे। उसने तमाम प्रयास किए उस औरत को बचाने के लिए, परन्तु.....उन आवारा कुत्तों ने एक पल में ही उस औरत को चीड़- फाड़ डाला। फिर तो वहां की सड़कें खून से लाल- लाल हो गई। चारों तरफ बिखरा हुआ खून और इधर- उधर पड़े हुए मांस के लोथड़े।
इस भयावह दृश्य को देखकर उसकी अंतरात्मा कांप गई। उसे अपने पुरुषार्थ पर ग्लानि होने लगी और वो भय के मारे चीख पड़ा। चीख!...जो उसके कंठ से निकल नहीं रही थी, तभी तो शांतनु देव की आँखें खुल गई और उसने देखा कि" वह तो हाँस्पिटल के बेड पर पड़ा हुआ है। फिर तो उसे एहसास हो गया कि" वह तो भयावह स्वप्न देख रहा था। फिर तो उसने कलाईं घड़ी में देखा कि" सुबह के तीन बज चुके थे। तभी तो उसने रूम की लाइट जलाई और वाथरुम के लिए चला और वाथरुम में पहुंच कर पहले तो शीशे के सामने खड़ा हुआ और अपने चेहरे को देखा। उफ!...उसके चेहरे पर पसीने की नन्ही-नन्ही बुंदे। हां, शांतनु देव पसीने से पूरी तरह भीग चुका था।
फिर तो उसने चेहरे को साफ किया और फिर वापस रूम में आ गया, फिर बेड पर बैठ गया। इसके बाद सोचने लगा कि" इस तरह के सपने देखने का मतलब क्या है?...प्रश्न था, जो उसके दिमाग में आया था। क्योंकि, उसने बहुत ही भयावह सपना देखा था, ऐसा सपना देखा था, जिसने उसके अस्तित्व को ही हिला दिया था। तभी तो शांतनु देव विकल होकर सोचने लगा, परन्तु उलझ सा गया। उसे समझ ही तो नहीं आ रहा था कि" इस तरह के सपने को देखने का मतलब क्या हो सकता है?....परन्तु उसने देखा था। इसलिये तो वो मनो मंथन में जुटा हुआ था। समझना चाहता था इस सपने का मतलब!....किन्तु" जब उसे समझ नहीं आया, तो सोने की कोशिश करने लगा कि" फिर निंद के आगोश में समा जाए।
परन्तु निंद तो उसकी आँखों से निंद कोसो दूर हो चुका था। हां, बात भी तो सही ही था, उसने जो देखा था, वह देखने योग्य कदापि भी नहीं था। तभी तो उसने हजारों कोशिशें की, परन्तु निंद जो कि उसके आँखों से दूर हो चुकी थी, फिर नहीं आई। फिर तो, एक अजब सी बेचैनी ने शांतनु देव को घेर लिया और वो विचारों में उलझ सा गया। सहसा ही उसके दिमाग में हनुमान चौक बाली घटना सजीव हो गई। अब तक तो उसने उस घटना पर विचार ही नहीं किया था, जबकि उसे विचार करना चाहिए था। उसे सोचना चाहिए था कि" आखिर उस औरत ने अचानक ही इस प्रकार के वारदात को अंजाम क्यों दिया?
शांतनु देव इन्हीं बातों को सोचते हुए हाँस्पिटल के बेड पर करवट बदलने लगा। कहां तो वो परसो की शाम हनुमान चौक पर पान खाने के लिए गया था और कहां वह उस औरत के द्वारा चलाए गए गोलियों का शिकार हो गया। परन्तु.....एक सवाल, जो कि, उसके दिमाग में चक्कर काट रहा था। वह यह था कि" उस औरत ने वारदात को अंजाम दिया तो जरूर था, किन्तु आश्चर्य था कि" उसके द्वारा चलाए गए गोलियों से कोई भी हताहत नहीं हुआ था। यह आश्चर्य ही तो था, जो उसके दिमाग में फांस बनकर चुभ चुका था। शांतनु देव, उसने अपने तीन वर्ष के अपने वकील के पेशे में अनेकों मुजरिम देखे थे, एक से एक खूंखार और शातिर। किन्तु" अब तक उसने इस तरह के अपराधी को नहीं देखा था, जिसने पब्लिक प्लेस पर वारदात को अंजाम दिया हो, परन्तु....एक भी हताहत नहीं हुआ हो।
हां, उसे सलिल ने जिस तरह से बतलाया था रीठाला स्टेशन की घटना, उसका सार भी तो यही था। सलिल ने जो उसे बतलाया था कि" उस औरत ने रात को अचानक ही रेलवे स्टेशन के बाहर गोलियों की बरसात कर दी थी और जिस तरह से उसकी कार से आकर टकरा गई थी। पेशेवर अपराधी तो ऐसा कभी भी नहीं होता। बस यहीं पर आकर शांतनु देव उलझ गया था, विचार मग्न हो गया था। मंथन करने लगा था, जानने की कोशिश करने लगा था कि" रजौली आखिर चीज क्या है?...हां, जानने की जरूरत थी उस औरत के बारे में और शांतनु देव यही तो प्रयास कर रहा था। परन्तु, उसे कुछ भी तो समझ नहीं आ रहा था। काफी प्रयासों के बाद भी जब उसे कुछ भी समझ नहीं आया, शांतनु देव ने कोशिश की कि" आँखों में निंद ही आ जाए। परन्तु काफी कोशिशों के बाद भी आँखों में निंद नहीं आई, बेड पर से उठकर रूम से बाहर निकला और हाँस्पिटल के गलियारे में चक्कर काटने लगा। शायद, अपने उद्विग्न मन को शांति पहुंचाने की उसकी कोशिश थी, परन्तु....जब आपका मन उद्विग्न हो, कहीं भी शांति नहीं मिलती।
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क्रमशः-