रात के एक बजे, मेट्रो में अपेक्षाकृत काफी कम यात्रियों की संख्या थी। कोरोना काल के गुजर जाने के कारण शहर व्यवस्थित हो चुका था, किन्तु पहले जैसी रफ्तार अभी नहीं पकड़ पाया था। दूजे कि" रात ज्यादा हो जाने के कारण भी, जिसको जरूरी था गंतव्य तक पहुंचना, वही यात्री सफर कर रहे थे। फिर भी.....स्टेशन पर काफी चहल-पहल थी, क्योंकि शाम को घटित हुए घटना के मद्देनजर स्टेशन के आस-पास के क्षेत्र को फोर्स की छावनी में तबदील कर दिया गया था।
चारों तरफ हथियार धारी सी. आर. एफ के जवान, जो कि" हथियार लेकर चारों तरफ गश्ती कर रहे थे। इसलिये यात्रियों के बीच यह विश्वास था कि" अब कुछ भी अघटित होने बाला नहीं। रेल की पटरियों पर दौड़ता इंजन, अपने तीव्र आवाज से वातावरण में छाई हुई शांति को भंग कर रहा था। साथ ही स्टेशन पर गुंजता स्पीकर में शब्द" यात्री गण कृपया ध्यान दे" मधुर लय में बार-बार गुंज रहा था। मध्यकाल रात्रि का वो पहर होता है, जब दुनिया चादर ताने सो रही होती है। किन्तु" जिसे गंतव्य तक पहुंचना है, वो किस प्रकार से चैन से सो सकता है। उसे तो अपनी यात्रा निर्बाध गति से चालू रखना ही होता है और उस यात्रा करने के विश्वास को कायम रखने का काम रेलवे करती है।
तभी तो यात्रियों का विश्वास और ट्रांसपोर्ट की अपेक्षा रेलवे पर कुछ अधिक ही होता है। ऐसे में स्टेशन पर एक मेट्रो इंजन आकर रुकी और उसमें से दो नौजवान लड़के उतरे। दोनों के हिप्पी कट बाल, आँखों पर गोल्डन फ्रेम चश्मा, गौर वर्ण लिये गोल चेहरा और सुर्ख गुलाबी होंठ। लंबा कद लिए गठीले शरीर पर उन दोनों ने जिंस और टी-शर्ट पहन रखी थी, जिसमें उनका व्यक्तित्व काफी आकर्षक लग रहा था। उसमें भी खास यह थी कि" उन दोनों का उम्र यही करीब बीस- बाईस के करीब होगा। स्वाभाविक ही था कि" यौवन- अवस्था के प्रथम पगडंडी पर कदम रखने के कारण उन दोनों के आँखों में जीवन के प्रति विशेष आशाएँ थी। तभी तो बौगी से बाहर निकलने का बाद उन दोनों ने मेट्रो स्टेशन को भरपूर नजरों से देखा। आधुनिकता का शृंगार किए हुए मेट्रो स्टेशन को, जो रोशनी से जगमग कर रहा था। इसके बाद दोनों बाहर निकले।
स्टेशन से बाहर निकलने के बाद उन्होंने निश्चिंत होकर आस-पास के इलाके को देखा। लगा कि" जैसे उन्हें गंतव्य तक पहुंचने की कोई जल्दी नहीं हो। हां, वे दोनों वर्क टूर से लौटे थे और अब उन्हें अपने अपार्ट मेंट पर जाना था, किन्तु" उनके व्यवहार से लगता तो नहीं था कि" उन्हें अभी घर जाने की जल्दी हो। तभी तो उन्होंने नजर घुमाया और उसकी नजर स्टेशन से थोड़ा दूर पर बनी चाय की टपरी खुली मिली। फिर क्या था, दोनों अपना बैग उठाए चाय की टपरी की ओर बढ गए, आँखों में रंगीन सपने संजोए। उनके मन में आज रंगीनियों के तालाब में नहाने की इच्छा जागृत हो चुकी थी और इसलिये ही मन में इरादे बना कर दोनों चाय की टपरी की ओर बढे थे। किन्तु, उनके कदमों की गति से बिल्कुल भी प्रतीत नहीं हो रहा था कि" उन्हें कोई जल्दी हो।
बीतता समय, धीरे-धीरे अपने पूर्ण नि: स्तब्धता की ओर बढ रहा था। इसके बाद तो सुबह के आगमन का आहट महसूस होने बाला था। सही भी है, समय न तो किसी का इंतजार करता है और न ही विश्राम लेने के लिए एक पल भी रुकता है। वह तो अपनी निर्बाध गति से सफर करता रहता है और इसी तरह से दिन-रात में तबदील होता रहता है। दिन और रात मिलकर महीने का निर्माण करता है और महीने वर्ष में तबदील हो जाते है और ऐसे ही सदियां बीतती चली जाती है। समय चक्र पर सभ्यता निरंतर बदलती रहती है, किन्तु समय चक्र की गति इससे कभी भी प्रभावित नहीं होता। इसका अपना मस्तमौला स्वभाव है, निरंतर गति करने का, किसी से प्रभावित हुए बिना। किन्तु" आज के युवा शायद इस समय गति के साथ कदम मिलाकर नहीं चलना चाहते, उन्हें तो लगता है कि" वे सर्विस कर रहे है और दो पैसे कमा रहे है, बस यही जिम्मेदारी है उनकी। तभी तो काम के बाद वे अपने मनोरंजन को प्राथमिकता देते है और यही काम दोनों युवक कर रहे थे।
दोनों अपने कदम को बढाते हुए चाय की टपरी पर पहुंचे और आगंतुक को आया देख कर दुकानदार ने नजर उठा कर देखा और उसकी आँखों में आशा की चमक उभड़ी। वैसे भी इस समय ग्राहकों के नाम पर उसके दुकान पर सन्नाटा पसरा हुआ था। ऐसे में अचानक ही ग्राहकों का आना, स्वाभाविक ही था कि" उसके आँखों में आशा की जमक जागृत हो गई। तब तक दोनों युवक टपरी पर रखे तख्ते पर बैठ गए, और फिर उन्होंने गरमागरम चाय पीने की इच्छा व्यक्त की। फिर क्या था,.....दुकान दार भट्टी में कुछ कोयले की टुकड़ी डालकर सुलगाने लगा। जबकि दोनों युवक ने उस दुकान दार के चेहरे की ओर देखा और उसमें से एक बोला।
सर जी!.....आस-पास कहीं माल की व्यवस्था हो सकती है क्या?.....पुनीत नाम के युवक ने दुकान दार को संबोधित करके बोला। फिर अपनी नजर दुकानदार के चेहरे पर टिका दी। जबकि, दुकान दार ने उसकी बात सुनी और आश्चर्य चकित हुआ। किन्तु" उसने तत्काल कुछ नहीं बोला और भट्ठी पर चाय की पतीली चढा दी। उसके बाद युवक के चेहरे की ओर देखकर बोला।
किस तरह के माल की बात कर रहे हो आप लोग?...आप के कहने का मतलब नहीं समझा। आप जो भी कहना चाहते हो, स्पष्ट होकर कहो, तो फिर समझ में आए। दुकान दार ने धीरे से अपनी बात पूरी की और फिर पतीली में दूध-चीनी और चाय पत्ती डालकर मिलाने लगा। जबकि उसकी बातों को सुनकर उसमें से दूसरा युवक मुस्कराया, फिर धीरे से बोला।
काका!....माल से कहने का मतलब कि" जो बिस्तर पर हमें खुश कर सके। जिसे हम लोग बांहों में लेकर स्वर्ग की अनुभूति कर सके। उस युवक ने अर्थपूर्ण शब्दों में कहा और फिर नजर दुकान दार पर नजर टिका दी। जबकि दुकान दार उसकी बातों को सुनकर दुकानदार पहली बार मुस्कराया और फिर बोला।
अच्छा!....तो तुम दोनों सुंदर सी अप्सरा को ढूंढ रहे हो। बोलने के बाद एक पल के लिए रुका दुकानदार, फिर बोला। एक काम करो तुम दोनों कि" चाय पी कर इस दुकान से कुछ दूरी पर सड़क किनारे खड़े हो जाओ, बस समझो कि" जल्द ही तुम लोगों की मनोकामना पूरी हो जाएगी। कहने के बाद दुकान दार ने चाय को कप में छाना और उन दोनों को सर्व कर दिया।
उन दोनों ने भी इसके बाद मौन धारण कर लिया। फिर तो दोनों ने चाय पी और पैसे चुकाए, इस के बाद दुकान दार के बताए निर्देश के अनुसार सड़क के किनारे आकर खड़े हो गए और आती-जाती हुई गाड़ियों को देखने लगे। इस तरह से देखने लगे, जैसे कि" उन्हें किसी चीज की तलाश हो, तभी तो उनकी नजर अँधेरे में इधर-उधर घूम रही थी और उन्हें इसका सकारात्मक परिणाम भी मिला। दो पल भी नहीं बीते होंगे कि" दो सुंदर सी युवती, जो कि" देहजीवा थी, उनके करीब पहुंच गई। फिर क्या था, दोनों युवक के चेहरे खिल उठे, उन्हें जो चाहिए था,...वह उनके करीब पहुंच चुका था। किन्तु" वे लोग इस बात से अंजान थे कि" दूर कहीं अंधेरे से वो भिखारिन औरत भी आ गई थी और अपनी चाल में चलती हुई मेट्रो स्टेशन की ओर बढ रही थी, हाथों में ए. के. फोर्टी सेवन संभाले हुए। चेहरे पर शांत भाव लिए हुए अपने कदमों को ढृढता से आगे बढाती हुई। किन्तु" उसके शांत चेहरे के पीछे खतरनाक इरादा छिपा हुआ था, उसके आँखों में क्रोध की चिंगारी थी।
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क्रमशः-