अपराध की पृष्ठभूमि होती है। बिना पृष्ठभूमि के अपराध हो ही नहीं सकता और पृष्ठभूमि हमारा समाज ही बनाता है। बिना सामाजिक एवं राजनीतिक पोषण के अपराध कभी भी पनप ही नहीं सकता।.....कहीं समाज किसी के ऊपर अत्याचार करता है, तो अपराध का जन्म होता है, तो कहीं समाज अपने निहित स्वार्थ को साधने के लिए अपराध को बाढावा देता है। कहने का तात्पर्य यही है कि" अपराध के जन्म लेने का कारण हम और आप कहीं न कहीं है। बिना राजनीतिक स्वार्थ के अपराधियों का मनोबल कभी भी नहीं बढ सकता। "रजौली" एक ऐसे युवती की कहानी है, जो अपने आप में ही उलझी हुई है। "रजौली" वास्तव में एक वेदना है, जो अत्यधिक शोषण की भट्टी से ज्वालामुखी बनकर निकलती है।
मदन मोहन" मैत्रेय
शाम का समय होने बाला था। सूर्य देव अब अस्ताचल को जा रहे थे और इस कारण से पूरा शहर लालिमा के आवरण में ढक चुका था। वैसे भी अगस्त महीने का पहला दिन होने के कारण बाजार में काफी चहल-पहल थी। दूसरे
अभी-अभी कुछ देर पहले जम कर शहर में बारिश हुई थी, जिसके कारण सड़क पर पानी लगा हुआ था। किन्तु" फिर भी शहर बासी किस प्रकार से रुकते। आज तो उन्हें महीने की सैलरी मिली थी और "महीने की सैलरी मिलने के बाद इंसान स्वतः ही खुश हो जाता है। वैसे भी वेतन धारी के लिए "महीने की सैलरी पूर्णिमा के समान होती है, जो महीने में सिर्फ एक बार दिखाई देती है। पूरा महीना मेहनत करो और एक दिन पूर्णिमा की तरह सैलरी दिखाई दे, तो जरूरतों के साथ ख्वाहिश भी करवट लेती है। भले ही वो ख्वाहिश एक दिन की हो।
रोहिणी का हनुमान चौक" चारों तरफ से लोगों की आवाजाही धीरे-धीरे बढती जा रही थी। वैसे भी महीने का पहला दिन होने के कारण सभी अपने वजट को सेट करने के लिए बाजार की ओर निकल चुके थे। उसमें भी पंद्रह अगस्त को लेकर यह आस-पास का इलाका प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र हो जाता है। ऐसे में यहां के आम बाशिंदे को इस दरमियान कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। तभी तो" लगता था कि" पूरा शहर ही बाजार की खरीदारी करने के लिए सड़क पर उतर आया हो। तभी तो धीरे-धीरे सड़क पर ट्रैफिक बढने लगी थी, जिसे नियंत्रित करने के लिए ट्रैफिक पुलिस को एड़ी- चोटी का दमखम लगाना पड़ रहा था, वह पसीने से पूरी तरह भीग चुका था।
उसमें भी हनुमान चौक" जिसके दोनों तरफ बहुमंजिला इमारतों में दुकान सजी हुई थी। पास ही कोने पर एक पान का दुकान था, जिसे केशव शुक्ल चलाते थे। इस समय उनके दुकान पर काफी भीड़ थी। परन्तु केशव शुक्ल" इससे बिना विचलित हुए ही ग्राहकों की सेवा में जुटे हुए थे। हंसमुख स्वभाव के केशव शुक्ल" उनकी वाणी अत्यंत ही मधुर थी और बीच-बीच में उनका" चुटकुले कहने की आदत। उनके दुकान पर जो भीड़ थी, उसमें ग्राहक कम और आसपास के आवारा लड़के ज्यादा थे, जो अपना टाइम पास करने और शुक्ल साहब के चुटकुले सुनने के लिए ही उनकी दुकान पर इकट्ठे होते थे।
इस भीड़- भाड़ बाले माहौल में चौक के दाईं ओर से एक औरत चौक पर आ गई। उसकी नीली-नीली आँखें, जो अब बिल्कुल वीरान हो चुकी थी। घने लंबे काले बाल थे, जो बेतरतीब बिखरे हुए थे। शरीर पर फटा-पुराना साड़ी। सुडौल शरीर, लेकिन समय के प्रहार ने उसे बेडौल कर दिया था। गोल गौर वर्ण लिए चेहरा, लेकिन निस्तेज थी। उसका चेहरा देख कर यही प्रतीत होता था कि" कभी वह बहुत सुंदर रही होगी, अप्सरा की तरह। लेकिन इस समय वह बिल्कुल भिखारिन की तरह प्रतीत हो रही थी। लेकिन नहीं, वह किसी से याचना तो बिल्कुल भी नहीं कर रही थी। उसे किसी से शायद कुछ मांगना नहीं था। वह तो कंधे पर फटे-पुराने थैले को कंधे पर लटकाये हुए आते- जाते लोगों को देख रही थी।
वैसे भी, सूर्य देव कभी भी अस्ताचल की ओर जा सकते थे और फिर अंधकार शहर को अपने आगोश में समेट सकता था। किन्तु" इस अंधकार के आगमन का भय शहर को तो बिल्कुल भी नहीं था। क्योंकि" शहर को पता था कि" कुछ पल बाद ही असंख्य बल्ब की रोशनी उसे जगमग कर देगी। शाम का समय, बाजार ग्राहकों से भर चुका था और लगातार संख्या बढती ही जा रही थी। तभी शांतनु देव की कार सड़क पर चमकी और शांतनु देव ने अचानक ही कार की रफ्तार धीमी की और सड़क किनारे कार खड़ी कर के बाहर निकला। उसे अचानक ही इच्छा हुई थी कि" पान खा लिया जाए।
वैसे भी" शांतनु देव शौकिया ही पान खाता था। लेकिन एक बार उसने शुक्ल साहब के दुकान पर पान खाया था और पान से ज्यादा उसे शुक्ल साहब का स्वभाव बहुत भाया था। तभी तो, यहां से गुजरते हुए अचानक ही उसकी नजर दुकान पर गई और उसने इरादा बना लिया कि" एक खिली पान खा लिया जाए। इस बहाने से कम से कम शुक्ल साहब से मुलाकात भी हो जाएगी। वैसे भी आजकल उसके पास कुछ काम ज्यादा नहीं था, इसलिये कुछ मनोरंजन हो जाए, इसी उद्देश्य से पान की दुकान की ओर बढा। जबकि उधर वो औरत, जो न जाने किस गली से चौक पर आ गई थी। उसने अपने झोले को संभाला और उसमें हाथ डाला और जब उसका हाथ बाहर निकला। उसके हाथों में ए. के. फोर्टी सेवन राईफल थी, जिसे उसने सख्ती से संभाल लिया था। फिर तो....उसकी अंगुलियाँ ट्रिगर पर कसती चली गई और गोलियों के आवाज से इलाका दहल उठा।
धाँय.....धाँय!.....धड़ाम -धड़ाम।
अचानक ही गोलियों की आवाज और पूरा हनुमान चौक दहल उठा। एक पल में ही चारों ओर चिखों-पुकार मच गया। वैसे तो उस औरत के हाथ में जिस प्रकार के हथियार थे और वो जिस तरह से वो बिना देखे ही चारों तरफ फायरिंग कर रही थी, उससे तो भगदड़ मचना ही था। किन्तु" अधिकांश फायरिंग व्यर्थ ही गया, परन्तु कुछ लोगों को घायल कर गया, जिसमें शांतनु देव भी था। उसके पांव की हड्डी में गोली लगी थी और वो भर्रा कर सड़क किनारे गिरा था। इसके बाद तो, शायद राईफल की गोली खतम हो गई थी, इसलिये ही वो औरत एक तरफ को भागने लगी। किन्तु" इस समय वहां मौजूद किसी के दिमाग में यह बात आई ही नहीं थी कि" हमला करने बाली एक औरत है और वो अब हमला करने के बाद भाग रही है।
कुछ पल पहले "गुलजार सा दिखने बाला हनुमान चौक" अब कोलाहल का केंद्र बन चुका था। तमाशा बीन की भीड़ जुटने लगी थी और सभी देखने बाले जुटने लगे थे। किन्तु" कोई ऐसा नहीं था कि" पुलिस को फोन कर दे, अथवा एंबुलेंस ही बुलवा दे। ऐसे में दर्द से तड़पते हुए शांतनु देव ने हिम्मत जुटाया। उसने मोबाइल निकाला और एक सौ आठ पर फोन लगा कर यहां घटित हुए घटना की सूचना दी और बेहोश हो गया। तब तक ट्रैफिक पुलिस भी वहां पर पहुंच चुका था। अतः आते ही उसने स्थिति संभाल ली। उसने देखा कि" कुल छ लोग थे, जिनको गोलियां लगी थी, लेकिन चिन्ता की बात नहीं थी। क्योंकि गोलियां किसी की जान ले, ऐसी जगह नहीं लगी थी। इसलिये उसने पुलिस स्टेशन फोन करके जानकारी दी और साथ ही शांतनु देव के बारे में भी बतला दिया। क्योंकि सलिल साहब के साथ उसे कितनी ही बार देख चुका था, इसलिये पहचानता था।
इसके बाद तो, मुश्किल से अभी दस मिनट भी नहीं बीता होगा कि" एंबुलेंस आ गई। फिर तो घायलों को एँबुलेंस में डाला गया। उधर किसी ने सोस्यल मीडिया पर भी किसी ने घटना को लाइव कर दिया था, इसलिये मीडिया बाले भी भूखे गिद्ध की भांति टपक पड़े और घटना स्थल का कबरेज करने लगे।
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क्रमशः-