काफी मनोमंथन के बाद भी जब वे लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके। मुहम्मद काजी ने सुझाव दिया कि" क्यों न हम लोग जज साहब से मिल ले। शायद वहीं से कोई रास्ता निकल आए। दावा पूर्वक तो कुछ नहीं कहा जा सकता था कि" जज साहब उनके कार्य को कर ही देंगे, परन्तु प्रयास तो करना ही था और कहते है न कि" मरता क्या नहीं करता। उनकी जान सांसत में फंसी हुई थी और ऐसे में अगर चाँद पर जाने से भी समस्या का हल मिलने बाला होता, तो सहर्ष ही तैयार हो जाते मंत्री साहब, फिर यह तो जज के पास जाकर मिलने की बात थी, तो इसमें हर्ज ही क्या था।
फिर तो, जीवन में स्वार्थ को साधने के लिए मनुष्य न तो गलत सोचता है और न सही सोचता है, बस करता वही है, जो उसके अनुकूल बैठता है। इस कारण से काजी की बातें सुनते ही मंत्री साहब सहर्ष तैयार हो गए। तब तक अंदर से एक बार और काँफी आ चुका था, जिसे उन लोगों ने पिया, फिर बाहर निकले। बाहर निकलते समय मंत्री साहब ने कलाईं घड़ी देखी, रात के नौ बजने बाले थे। फिर चारों कार में बैठे, फिर ड्राइविंग शीट पर बैठे हुए पुजारी ने कार श्टार्ट की और आगे बढा दिया। किन्तु" कार को मंजिल की ओर बढते देखकर भी न जाने क्यों मंत्री साहब के चेहरे पर खुशी के भाव नहीं थे, वे अभी उलझे हुए थे।
उन्हें पता नहीं था कि" जज वाय एस सिंन्हा किस प्रकार के इंसान है?....आज तक कोई ऐसा मसला ही नहीं आया था कि" वो जज वाय. एस. सिंन्हा से मुलाकात करें। पता नहीं किस प्रकार के इंसान है वे? फिर वे मिलने के बाद भी काम करने के लिए तैयार होते है या नहीं?...गंभीर प्रश्न था, जिसका उत्तर मालूम नहीं था उन्हें। फिर भी, एक आशा-एक विश्वास के साथ जा रहे थे उनके पास। बस इसी बात के लिए कि" काम बनाने के लिए हर संभव कोशिश करेंगे। परन्तु....फिर भी, अगर बात नहीं बनी तो?....यह गंभीर प्रश्न था, जिसका उत्तर कमोवेश उन्हें मालूम था। जानते थे कि" इसके बाद तो उनके जीवन में तुषारापात होने से कोई नहीं रोक सकता।
उनकी कार दिल्ली की सड़क पर भागी जा रही थी और उसी रफ्तार से उनके विचार भी भागे जा रहे थे। अब ऐसी बात भी नहीं थी कि" काजी विचार मग्न नहीं था, पुजारी के चेहरे पर चिन्ता की छाया नहीं थी और वकील विचारों में उलझा हुआ नहीं था। सभी विचारों" के विषम जाल में ही उलझे हुए थे और अपने- अपने तरीके से मसले को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे। फिर भी, मसला सुलझने की बजाय और भी उलझता जा रहा था। परन्तु....समय को इससे कोई मतलब नहीं होता। वह तो अपने रफ्तार से ही गति करता है, शनै -शनै- धीमे-धीमे। तभी तो उनकी कार वैभव बंगला के कंपाऊंड में पहुंच गई, तब उनकी तंद्रा टूटी।
फिर तो पुजारी ने कार पार्क की और फिर वे लोग बिल्डिंग के अंदर की ओर बढे। वैभव बिला, रोशनी से जगमग करता हुआ, अपने आप में वैभव को समेटे हुए। हां, जज साहब अपनी पत्नी मनोरमा के साथ यही पर निवास करते थे। उनके बच्चे विदेशों में सेटल थे, ऐसे में वे दोनों अकेले ही इस विशाल बंगले में निवास करते थे। अभी भी जज साहब हाँल में सोफे पर बैठे हुए न्यूज देख रहे थे, जबकि" उनकी पत्नी मनोरमा देवी किचन में रात का डिनर तैयार कर रही थी। सात्विक विचार के जज साहब नौकरों के हाथों का खाना पसंद नहीं करते थे, ऐसे में दोनों पति-पत्नी ज्यादातर काम खुद ही करते थे। अभी भी तो यही हुआ था, जज साहब ने किचन के कामों में मनोरमा देवी का हाथ बंटाया था और अब जाकर हाँल में आकर न्यूज देखने लगे थे।
तभी हाँल के अंदर मंत्री साहब ने दल-बल के साथ कदम रखा और आगंतुक को देखकर सहज ही जज साहब के चेहरे पर प्रश्न के भाव उभड़े। क्योंकि" उनका स्वभाव ऐसा था कि, वो ज्यादातर अंजान लोगों से दूरी बनाकर रहते थे। ऐसे में रात के इस समय, जब रात के दस बजने बाले हो, अंजान लोगों का इस तरह से आना, स्वाभाविक था कि" उनके चेहरे पर प्रश्न आए। इधर मंत्री साहब ने भी उनके चेहरे पर उभड़े प्रश्नों को समझ लिया, तभी तो वे लोग आगे बढे और सोफे पर बैठ गए, उसके बाद जज साहब से मुखातिब हुए।
नमस्कार सिंन्हा साहब!....शायद हम दोनों व्यक्तिगत तौर पर कभी भी मिले नहीं और एक दूसरे को जानते भी नहीं। परन्तु...परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो गई कि" अचानक ही आपके सामने आना पड़ा। बोलने के बाद मंत्री साहब एक पल के लिए रुके, फिर आगे बोले। मैं मंत्री भानु शाली, ये रहे पुजारी जगतपति और ये मुहम्मद काजी और आप इन साहबान से परिचित तो होंगे ही, वकील दिगंबर। इनकी ही प्रेरणा से हम लोग यहां आए है। मंत्री साहब ने कहा और नजर जज साहब के चेहरे पर टिका दी। जबकि" उनकी बात सुनकर जज साहब सौम्यता पूर्वक बोले।
आप यहां आए, तो हार्दिक खुशी हुई। आप लोगों का मैं स्वागत करता हूं। जज साहब कह कर एक पल के लिए रुके, फिर उन चारों के चेहरे को देखा, इसके बाद बोले। परन्तु....आप मुझे वह उद्देश्य बतलाएँ, जिसके लिए आप लोगों का यहां आना हुआ। जज साहब ने कहा और बारी- बारी से उन चारों के चेहरे को देखने लगे। जबकि, उनकी बातें सुनकर जगतपति तपाक से बोल पड़ा।
सर!....हम बातों की शुरुआत कहां से करें?....समझ ही नहीं आता। अगर आप आश्वासन दे कि" आप मदद करने को तैयार होंगे, तब शायद परेशानी कहने में सुविधा हो। अन्यथा तो मन में झिझक बनी ही रहेगी और फिर सही ढंग से अपनी बात नहीं कह सकूंगा।
श्रीमान!...जब तक आप लोग अपनी परेशानी नहीं बतला देते, भला मैं आश्वासन किस तरह से दे दूं। आपकी बातें सुनने के बाद ही मैं फैसला कर सकता हूं कि" आप मदद करने योग्य है, या नहीं। पंडित जगतपति की बातें सुनने के बाद जज साहब ने तीखी प्रतिक्रिया दी।
इसके बाद तो, तीनों को इस बात की अनुभूति हो गई कि" सामने बाले शख्स को बातों में फंसाना इतना आसान नहीं। फिर तो मंत्री साहब ने मन ही मन फैसला कर लिया और फिर जज साहब को बतलाने लगे कि" आखिर उनके सामने किस तरह की परेशानी आ गई है। उन्होंने जज साहब को बतलाया कि" वे किस तरह कानूनी रुप से मददगार साबित हो सकते है। जज साहब उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। इस बीच उन्होंने काँफी भी मंगवा लिया था, परन्तु....कप उन लोगों के सामने ऐसे ही पड़ा हुआ था। फिर तो मंत्री साहब ने अपनी बात खतम की और आशा भरी नजरों से जज साहब के चेहरे को देखने लगे। जबकि" जज साहब ने उनकी बातें खतम होते ही शांत प्रतिक्रिया दी।
आप लोग शायद गलत जगह पर आ गए है, अन्यथा, तो आपका इरादा गलत है। लेकिन मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि" इस मामले में मैं आपका किसी तरह से मदद नहीं कर पाऊँगा। बोलने के बाद एक पल के लिए रुके जज साहब और उन लोगों के चेहरे पर पसरे हुए निराशा को देखा, फिर आगे बोले। इससे तो बेहतर यही होगा कि" आप लोग अपने बचाव के लिए कोई दूसरा संसाधन ढूंढो। जज साहब ने अपने अंतिम के शब्दों पर जोर देकर कहा। फिर उन लोगों को इशारा किया कि" काँफी पीजिए। फिर तो वे लोग काँफी पीने लगे। परन्तु.....जज साहब के स्पष्ट विचार जान लेने के बाद उन चारों के चेहरे पर उदासी की गहरी परत फैल गई थी। उनकी आँखों में अनिश्चितता के गहरे काले बादल मंडराने लगे थे।
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क्रमशः-