मानव मन की रचना ईश्वर ने अजीब प्रकार की- की है। जब मानव सुख में होता है, चिंतन नहीं करता और जब दुःख में होता है, चिंतनशीलता का आवरण ओठ लेता है। परन्तु... विचार, जो कि" मानव मन के साथ हमेशा ही लगे रहते है, चाहे सुख में हो या दुःख में। चाहे उसका मन शांत स्थिर हो या उसके मन में अशांति का ज्वार-भांटा उठ रहा हो। परन्तु....विचार मानव का कभी साथ नहीं छोड़ता। भले ही विचार सकारात्मक हो या नकारात्मक, किन्तु" मानव मन की दुर्बलता है कि" वो हमेशा ही "विचार" के सागर में गोते लगाता रहता है।
तभी तो, शांतनु देव "विचार" के लहरों पर सवार था। सुबह तीन बजे जो उसकी आँख खुली थी, तब से लेकर अब तक, यानी कि" सुबह के सात बज चुके थे, परन्तु...अब तक वो विचारों के भंवर जाल से खुद को निकाल नहीं पाया था। इस दरमियान उसने कितनी ही बार कोशिश की थी कि" काश कहीं निंद उससे दोस्ती कर ले और वो निंद के आगोश में समा जाए। किन्तु, उसके सारे प्रयत्न व्यर्थ साबित हुए थे। क्योंकि" उसने जिस तरह के ख्वाब देखे थे, उसके बाद आँखों में निंद को वापस बुलाना दुष्कर कार्य ही था। तभी तो, करीब चार घंटों से वह करवट पर करवट बदले जा रहा था, परन्तु उसे राहत मिल जाए, दूर-दूर तक संभावना नजर नहीं आ रही थी। हलांकि, इस दरमियान डाक्टर अमीत रंजन ने उसके लिए काँफी भिजवा दिया था और उसने पी भी ली थी। परन्तु"....जब उद्विग्नता हृदय को ग्रसित कर ले, आप लाख कोशिशें कर लो, आपके मन में बेचैनी यथावत रहेगा ही।
तभी तो शांतनु देव विकल हो रहा था। उसे लग रहा था कि" काश अभी तो इस परिस्थिति से मुक्ति मिल जाए। परन्तु....उसने जिस प्रकार के दु: स्वप्न देखे थे, उसके बाद हृदय का शांत होना नामुमकिन ही था। तभी तो बार-बार घूम-फिर कर वह इन सपनों का अर्थ लगाने में जुट जाता था। उसने मोबाइल निकाल कर गूगल पर भी इस समस्या के बारे में पूछताछ की थी और वहां भी उसे निराशा ही हाथ लगा था। गूगल भी इस स्वप्न का अर्थ बतलाने में नाकाम सिद्ध हो गया था। ऐसे में उसके हृदय की उद्विग्नता और भी बढ गई थी। वैसे तो उसने एक-दो बार अपने मन को समझाने की कोशिश की थी कि" स्वप्न तो अचेतन मन की एक प्रक्रिया है। जब हम किसी चीज के बारे में ज्यादा मन मंथन करते है और फिर सोते है। इसके बाद वही सोच सपनों का रुप लेकर हमारे अचेतन मन से सुलझने की कोशिश करता है।
किन्तु" फिर शांतनु देव को लगने लगता था कि" नहीं-नहीं, अचानक ही इस प्रकार के स्वप्न आने का मतलब तो जरूर होगा। अन्यथा, इस तरह के स्वप्न ही क्यों आते?....बस यह प्रश्न उसके दिमाग में आता और वो विकल हो जाता। शांतनु देव, इससे पहले कभी भी इस तरह से विकल नहीं हुआ था, ऐसे में वह खुद भी सोचने पर विवश हो गया था कि" आखिर आज उसको क्या हो गया है?...इससे पहले तो कभी उसके मन की स्थिति इस प्रकार की नहीं हुई थी। लेकिन अब?...यह भी तो एक प्रश्न ही था उसके लिए कि" अब वो क्या करें। हलांकि, उसकी इच्छा हुई थी कि वो सलिल को फोन कर के बुला ले। परन्तु.....यह ठीक नहीं होगा, ऐसा उसने अपने आपसे कहा। तो फिर?...उसने खुद से ही प्रश्न किया और खुद को ही उत्तर देता हुआ बोला। तो चलता हूं पुलिस स्टेशन। एक तो सलिल से भी मुलाकात हो जाएगी, दूसरे उस औरत "रजौली" से भी मिल लूंगा।
हां, यही ठीक रहेगा फिलहाल तो। शांतनु देव ने खुद ही कहे गए अपने शब्दों के समर्थन में बोला और बेड से उठा और रूम से बाहर निकल गया। फिर तो कुछ मिनट बाद ही वो डाक्टर अमीत रंजन के आँफिस में था और अचानक ही उसे अपने आँफिस में आया हुआ देखकर डाक्टर आश्चर्य चकित होकर उसके चेहरे को ताके जा रहा था। जबकि, शांतनु देव आगे बढा और कुर्सी पर बैठने के साथ उसे अपने आने का प्रयोजन बतलाया। शांतनु देव की इच्छा थी कि" उसे अब हाँस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया जाए। साथ ही अमीत रंजन से उसकी कार की मांग की थी। डाक्टर उसकी बातों को सुनकर मुस्कराया, फिर उसने सहमति जता दी। फिर उसने शांतनु देव को बतलाया कि" आँफिस की प्रक्रिया पूरी करने में करीब घंटे भर का समय लगेगा। तब तक वो गेस्ट रूम में इंतजार करें।
इसके बाद तो, करीब सुबह के नौ बजे शांतनु देव डाक्टर की कार लेकर हाँस्पिटल से निकला। इस समय शांतनु देव कार को फूल स्पीड में सड़क पर दौड़ाए जा रहा था, क्योंकि" उसकी इच्छा थी कि, वह जल्द से जल्द पुलिस स्टेशन पहुंच जाए। हलांकि, उसने सलिल को दो बार फोन लगाने की कोशिश की थी, परन्तु दोनों बार ही नंबर आउट आँफ कबरेज एरिया बताया था। बस शांतनु देव ने फैसला कर लिया कि, अब वो फोन नहीं लगाएगा, बल्कि जल्द से जल्द पुलिस स्टेशन पहुंच जाएगा। ऐसे में उसने दिल लगाने के लिए म्यूजिक सिस्टम चालू कर दिए और ध्यानपूर्वक ड्राइव करने लगा। आँफिस टाइम होने के कारण सड़क पर ट्रैफिक बढ गया था, इसलिये भी संभल कर ड्राइव करने की जरूरत थी इस समय।
परन्तु मन, उसके मन ने चिन्ता के दामन को अभी तक नहीं छोड़ा था। उसके मन में चिन्ता के बादल अभी भी उमड़- घुमड़ रहे थे। साथ ही सलिल का फोन नहीं लगने से अचानक ही उसके चिन्ता में इजाफा ही हुआ था। अब तो आशंका के बादल उसके मन: मस्तिष्क को डराने भी लगे थे। वे विचार" जो अब विशाल आकार लेने को उन्मत होने लगे थे। अब तो उसके विचार सलिल पर भी बार-बार जाकर केंद्रित होने लगे थे। कहीं कोई अनहोनी तो घटित नहीं हो गया सलिल के साथ?. आखिर उसका फोन काँल क्यों नहीं लग रहा?...अब इस तरह के प्रश्न भी उसके दिमाग में दौड़ने लगे थे। क्योंकि, उसने जिस तरह के स्वप्न देखे थे, इन परिस्थितियों में इस प्रकार के विचार आना स्वाभाविक ही था। तभी तो चाहता था कि, जल्द से जल्द पुलिस स्टेशन पहुंचे।
आखिरकार आधा घंटे बाद वो पुलिस स्टेशन पहुंचा। फिर तो उसने कार प्रांगण में पार्क की और आँफिस बिल्डिंग की ओर बढा और जैसे ही वो पुलिस स्टेशन के हाँल में पहुंचा, सिपाहियों द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि" साहब लोग तो सुबह सात बजे ही काम से बाहर गए हुए है। अब?...सिपाहियों की बातें सुनते ही शांतनु देव के मन में प्रश्न कौंधा। हां, यह प्रश्न ही तो था उसके लिए कि" अब क्या करें?....अगर सलिल से उसकी बात हो गई होती, तो वो पुलिस स्टेशन नहीं आकर रास्ते में ही उससे मिल लिया होता। साथ ही सलिल को लेकर उसके मन में शंका भी बलवती होने लगी। बीतता हुआ एक-एक पल उसको बोझ सा प्रतीत होने लगा और वो खड़ा रहकर इस समय को समझने की कोशिश करने लगा, उसके आहट को समझने की कोशिश करने लगा शांतनु देव।
तभी अचानक ही उसके मोबाइल ने वीप दी। उसने मोबाइल निकाल कर देखा और उसका मन प्रसन्न हो गया, क्योंकि" सामने सलिल था। उसने शांतनु देव को फोन पर बतलाया कि इन बीते दिनों में क्या-क्या बातें हुई और वो किसलिये अभी सीनियर आँफिसर और लाव- लश्कर के साथ पुलिस स्टेशन से बाहर है। उसकी बातों को सुनकर शांतनु देव आश्चर्य चकित हो रहा था, तब सलिल ने उसे सामने से कहा कि" तुम आँफिस में जाकर बैठो, मैं घंटे भर में आँफिस पहुंचता हूं। बस इतनी बाते कहने के बाद सलिल ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया और शांतनु देव ने राहत की सांस ली। फिर तो उसने सलिल के आँफिस की ओर अपने कदम बढा दिए।
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क्रमशः-