नित नए परिचय ओं के बाद भी... हम अपने ही स्वजनों से अपरिचित हैं... पास की बाधाओं से अनभिज्ञ, दूर की बाधाओं से आशंकित! हम समय को अपनी आवश्यकताओं का पुलिंदा बनाते जा रहे हैं.... हम उसे खोलते हुए डरते हैं लेकिन एक दिन अपने आप ही खुल जाएगा.... उसे देख हम अपने आप को पहचान लेंगे
‘‘पुलवामा’’ में हुई बड़ी वीभत्स आंतकी घटना में 40 सैनिकों के शहीद हो जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप पाकिस्तान में घुस कर बालाकोट में किये गये हवाई हमलों के द्वारा ‘‘जैश-ए-मोहम्मद’’के आंतकवादी कैम्प (प्रशिक्षण शिविर) को नष्ट करने के बाद सम्पूर्ण देश ने एक जुट होकर सेना व सरकार को बधाई दी थी। कांग्रेस सहि
इस लेख का ‘‘शीर्षक’’ देख कर बहुत से लोगों को हैरानी अवश्य होगी और आश्चर्य होना भी चाहिये। पर बहुत से लोग इस पर आखें भी तरेर सकते है। यदि वास्तव में ऐसा हो सका तो, मेरे लेख लिखने का उद्देश्य भी सफल हो जायेगा। एक नागरिक, बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा एक भारतीय पैदाईशी ही स्वभावगतः देशप्रेमी होता है।
प्यार का दंश या फर्ज तुलसीताई के स्वर्गवासी होने की खबर लगते ही,अड़ोसी-पड़ोसी,नाते-रिश्तेदारों का जमघट लग गया,सभी के शोकसंतप्त चेहरे म्रत्युशैय्या पर सोलह श्रंगार किए लाल साड़ी मे लिपटी,चेहरे ढका हुआ था,पास जाकर अंतिम विदाई दे रहे थे.तभी अर्थी को कंधा देने तुलसीताई के पति,गोपीचन्दसेठ का बढ़ा हाथ,उनके बे
होटल में प्रवेश करते ही दिनेश ने अमर कोदेख लिया. उनकी नज़रें मिलीं पर दोनों ने ऐसा व्यवहार किया कि जैसे वह एक दूसरे कोपहचानते नहीं थे. परन्तु अधिक देर तक वह एक दूसरे की नकार नहीं पाये.‘बहुत समय हो गया.’‘हाँ, दस साल, पाँच महीने और बाईस दिन.’‘तुम ने तो दिन भी गिन रखे हैं?’‘क्यों? तुम ने नहीं गिन रखे?’‘
वृद्ध दंपति द्वारा आत्महत्या... दुर्भाग्यपूर्ण घटना –हल्द्वानी...2018…( भाव= काल्पनिक )जैसे-जैसे आज शाम ढलने लगी, रोज़ की तरह दीपक की, लौजलने लगी,पत्नी की एकटक आँखें, डब- डबा रही थी,घर की एक-एक चीज़, आँखों में उतर-आ रही थी, दोनों नेमिलकर जाने कैसा , अभागा निर्णयले लिया,
डॉ नीलम महेंद्र कृत“राष्ट्रवाद एक विवाद” में राष्ट्रवाद की सीमाओं का विश्लेषण डॉ नीलम महेंद्र कृत राष्ट्रवाद एक विवाद निश्चित हीएक महत्वपूर्ण कृति है कम से कम पठनीय एवं विचारणीय तो अवश्य ही है। इसचिंतन पटक कृति के आवरण पर पुस्तक के शीर्षक के साथ ही उसकी मूल विषय वस्तुको स्पष्ट करने वाला वाक्य राष्ट्
जन्मसिद्धता तू ही नहीं, सभी खुश थे मेरे दुनियां में आने की खबर सुन लेकिन जब किलकारी गूंजी तेरे घर आंगन में मायूस भरे उदास चेहरे हुए कारण समझ ना पाई पर तू जग की रीति निर्वाह अनबूझ रही मुझसे क्या मैं चिराग नहीं दहेज ढोने वाली ठुमके ठुमक करते पग फूटी आँख किसी को ना सुहाते स्वतंत्रता पर प्रश्न चिन्ह लगा
क्या दोष था मेरा बस मैं एक लडकी थी अपना बोझ हल्का करने का जिसे बालविवाह की बलि चढा दिया मैं लिख पढकर समाज का दस्तूर मिटा एक नई राह बनाना चाहती थी मजबूर, बेवश,मंडप की वेदी पर बिठा दिया दुगुनी उम्र के वर से सात फेरे पडवा दिए वक्त की मार बिन बुलाए चली आई छीट की चुनरिया के सब रंग धुल गए कल की शुभ लक्ष
Dil chahe yu hi teri baaho mai rahena ,Dhadkan ki tarah dil mai basa lu tujko.Dil chahe yu hi teri palko pe rahena,Khwab ki tarah palko pe saja lu tujko.Dil chahe yu hi teri saanso mai rahena,Phoolo ki tarah saanso mai mila lu tujko.Dil chahe yu hi teri bagiya mai rahena,Khushbu ki tarah muj mai mi
सांसो में आता जाता है स्पंदन बन चलता जाता है जीवन तू अंतर मैं मुस्काता है कभी अश्रु बन के जीता है कभी स्नेहमय बन जाता है जीवन तू मौन हो सब कुछ कह जाता है माँ की ममता बहन का प्यार और कभी प्रयसी की गुहार जीवन तू सब कह जाता है रेशम की झालर सा सहलात
हमारेबचपन में आज की तरह प्ले-स्कूल नहीं होता था। बस एक ही प्ले-स्कूल थाजो किताबी ज्ञान पर आधारित न हो, व्यवहारिकज्ञान व् प्रकृति करीब से जुड़ा था । प्लेस्कूल के लिए पांच-छह बरस तक हम अपने फार्म हाउस ( खेत खलियान) में घूमना, गन्ने
Paas mere baitho na tum,bahut si baate karni hai,dil ke halat batane hai,Kai sapne sajane hai.Kuchh teri sunni hai, Kuchh meri karni hai,Na sata tu muje itna ,Do pal to muskura aa.Sirf tujse muhobbat hai,fir kyu muje ajmate ho.Tuje hi yaad karti hu,Tujhi se pyar karti hu.Meri zindagi tujse hai,Meri
सरकार को प्रस्तुतअपनी मसौदा रिपोर्टमें, कानून आयोग ने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के प्रस्ताव का समर्थन किया है।एक साथ चुनावआयोजित करने केलिए संविधान औरचुनावी कानून में बदलावकी सिफारिश कीहै,
कतरन बनी जिन्दगी में भीड में अजनबियों के बीच अपने आप को खोजती टूटे सपनों को लडी को बिखरे रिश्तों को जोडने की जद्दोजहद आदर्शों, आस्थाओं को स्थापित करने का रास्ता खोजते मंजिलों पाने को घिसी पिटी, ढर्रे की रोजमर्रा की जिंदगी में विसंगतियों को संवेदनहीनता को उजागर कर एक नए उजाले को मिलना महज संयोग नहीं
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रामू की माँ तो अपने पति के शव पर पछाड़ खाकर गिरी जा रही थी.रामू कभी अपने छोटे भाई बहिन को संभाल रहा था ,तो कभी अपनी माँ को.अचानक पिता के चले जाने से उसके कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा था.पढ़ाई छोड़,घर में चूल्हा जलाने के वास्ते रामू काम की तलाश में सड़को की छान मारता।अंततःउसने घर-घर जाकर रद्दी बेच
बहुत देख ली आडंबरी दुनिया के झरोखों से बहुत उकेर लिए मुझे कहानी क़िस्सागोई में लद गए वो दिन, कैद थी परम्पराओं के पिंजरे में भटकती थी अपने आपको तलाशने में उलझती थी, अपने सवालों के जबाव ढूँढने में तमन्ना थी बंद मुट्ठी के सपनों को पूरा करने की उतावली,आतुर हकीकत की दुनिया जीने की दासता की जंजीरों को तो