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खुशी...

28 दिसम्बर 2021

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आज लुट चुकी थी उसकी हर खुशी,
जब उसके सामने पति की अर्थी उठी,
टूट चुकी थीं चूड़ियाँ कलाइयों की,
पुछ चुका था माँग का सिन्दूर भी,
माथे पर अब नहीं सँजी थी बिन्दी भी,

आज रात लगती थी काली और घनेरी,
तन पे लिपटी सफेद साड़ी आज खुश थी बहुत,
जैसी कहती हो देख कि अब मैं ही तेरी सहेली,
तुझे पहनना होगा मुझे यूँ ही उम्र भर ,
अब नही रहा तेरा साथी,तू अब है अकेली,

आइने में देख के वो खुद को सिसक पड़ी थी,
कोमल तन,अभी उम्र ही क्या है उसकी,
निहार रही थी स्वयं को,सूजी आँखें,भारी पलकें,
टूटे सपने और अनगिनत तानों से छलनी था मन,
क्या ये सब उसका दोष था,क्या वो चाहती थी ऐसा

आज वो ही उसे बड़ी नफरत से देख रही थी ,
जिसने कभी दिया था ये आशीर्वाद कि
दूधो नहाओ,पूतो फलो,आज वो पराई थी,
नहीं महसूस कर सकी वो आज उसका दर्द,
बस मँढ़ती रही अनगिनत दोषो को उसके सिर,

वो तो करने चली थी खत्म अपना जीवन,लेकिन
फिर उसके सोए हुए मन को जगाया एक किलकारी ने,
क्यों जाती हो माँ मुझे छोड़कर,मैं कैसे जिऊँगीं वगैर तेरे,
उसका अन्तर्मन जागा,एक निर्णय लिया,मैं क्यों मरूँ,
सौभाग्य से मिलता स्त्री जन्म,मैं जीऊँगी तेरी खुशी के लिए....

समाप्त....
सरोज वर्मा....


Mohan

Mohan

बहुत ही सारगर्भित रचनात्मक लेखन है आपका आदरणीय साहिबा जी।

10 जनवरी 2022

Sunil

Sunil

Amazing word of this poetry

29 दिसम्बर 2021

Saroj verma

Saroj verma

29 दिसम्बर 2021

बहुत बहुत शुक्रिया🙏🙏😊😊

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