मैं द्रौपदी,कितना असहज था ये स्वीकारना कि मेरे पांच पति होगें, माता कुन्ती ने कितनी सरलता से कह दिया कि जो भिक्षा में मिला सभी भाई आपस मे बांट लों,किसी ने कभी विचार किया कि उस क्षण मेरे हृदय पर क्या बीती होगी, किन्तु नहीं ये तो कदाचित् विचार करने योग्य कथन था ही नहीं, यहां तक माता कुन्ती भी एक स्त्री होकर,स्त्री का हृदय ना बांच पाई,या ये भी हो सकता हैं कि मैं उनकी पुत्री नहीं पुत्रवधु थी,कदाचित् इसलिए विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
मुझे पवित्र रखने हेतु एवं पाण्डव परिवार में सौहार्द बनाए रखने के उद्देश्य से ब्यास जी ने हम लोगों के लिए एक विशेष आचरण की ब्यवस्था की,वो ये कि ज्येष्ठ भाई से आरंभ करते हुए सबसे छोटे भाई तक,मैं एक वर्ष के लिए क्रमिक रूप से एक बार मे केवल एक भाई की ही पत्नी बनूंगी, उस वर्ष मे अन्य सभी भाई मुझसे दृष्टि नीची करके बात करेगें,
यहाँ तक कि मेरी अंगुलियों के पोर भी नहीं छुएंगे, यदि उनमे से कोई,मेरे व मेरे पति की निजता के क्षणों में अनुचित रूप से हस्तक्षेप करेगा तो उसे एक वर्ष के लिए घर से प्रतिबंधित कर दिया जाएगा,ब्यास जी ने ये भी कहा कि हर बार जब मैं किसी नए भाई की पत्नी बनूंगी तो मेरा कौमार्य अक्षत हो जाएगा।
मैं कौमार्यता के वरदान से अधिक प्रसन्न नहीं थी, क्योंकि उसका विन्यास मुझे लाभ देने की अपेक्षा मेरे पतियों के लिए अधिक था,उस समय नारियों को दिए जाने वाले वरदान ऐसे ही होते थे,वे स्त्रियों को ऐसे उपहार की भांति दिए जाते थे जिनकी उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती थीं।
परन्तु, प्रश्न ये उठता हैं कि महाराज युधिष्ठिर को ये अधिकार किसने दिया कि अपनी निजी सम्पत्ति जानकर,मुझे जुएँ मे हार जाएँ, मैने कभी स्वप्न भी नहीं सोचा था कि मैं द्रौपदी,पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री और धृष्टद्युम्न की बहन,पृथ्वी के महानतम महल की स्वामिनी,मुझे मुद्राओं की पोटली की भांति दाँव पर लगाया गया,किसी नर्तकी की भांति सभा मे बुलाया गया।
मैने महाराज युधिष्ठिर से प्रश्न किया कि क्या पत्नी भी गाय अथवा दास के समान पति की निजि सम्पत्ति होती हैं? वे गरदन झुकाए, वसुन्धरा को निहारते रहेंं किन्तु मेरे प्रश्न का उत्तर ना दिया मैं रोती रही गिड़गिड़ाती रहीं, परन्तु हाय! मेरा दुर्भाग्य, उस दिन मेरी किसी ने ना सुनी।
उस दिन मै रजस्वलावस्था मे थी,स्वयं को सुस्त अनुभव कर रही थीं, इसलिए सबसे अलग उस कक्ष मे थीं, जहां मुझ पर किसी बड़े की छाया ना पड़ सके,इस कारण मै ज्येष्ठ माता गंधारी और कुन्ती माता को भी प्रणाम करने ना जा सकी,मैने ऋतु स्नान भी नहीं किया था,
एक साधारण सी साड़ी पहनकर विश्राम कर रहीं थीं, तभी सेवक दुर्योधन का संदेशा लेकर आया और मैने उसके संदेश को अस्वीकार कर दिया।
सेवक चला गया परन्तु पुनः संदेशा लेकर आया, मैने सेवक से कहा कि पहले मुझे हारने वाले से ये पूछकर आओ कि पत्नी क्या निजी सम्पत्ति होतीं हैं?
किन्तु,अब की बार दुशासन आया,मैने उससे वस्त्र बदलने की प्रार्थना की किन्तु मेरी विनम्रता को वह झूठा बताकर हंसने लगा और मेरे केश पकड़कर महल के गलियारों से होता हुआ ,सभा मे घसीटकर ले गया,किसी ने सोचा कि उस दिन मेरा हृदय कितना आहत हुआ होगा, कितनी लज्जा का अनुभव हुआ होगा मुझे, सारा दिग्गज पुरूष समाज उस सभा मे उपस्थित था परन्तु किसी ने भी हस्तक्षेप ना किया।
विरोध किया था केवल काकाश्री विदुर और दुर्योधन के भाई विकर्ण ने,
मैंने ज्येष्ठ पिताश्री के समक्ष जाकर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा कि इस अवस्था मे मेरा आपको प्रणाम करना निषेध हैं किन्तु महाराज मै इस समय नि:सहाय हूँ और आपकी कुलवधु होने के नाते,अपने सम्मान की भिक्षा मांगती हूँ किन्तु उन्होंने मेरी एक ना सुनी,तब मैने उनसें क्रोधित होकर कहा,महाराज अच्छा है जो आप अंधे हैं ,
क्योंकि इस समय मेरी जो अवस्था है उसे देखकर आप अवश्य अंधे हो गए होते।
मैने पितामहः को भी सहायता हेतु पुकारा किन्तु उन्होंने भी मेरी नहीं सुनी,उन्होंने कहा पुत्री!
मैने कहा ,पितामहः!नाता नहीं ,न्याय चाहिए।
ना ही कुलगुरू कृपाचार्य आगे आए और ना ही द्रोणाचार्य,वही द्रोणाचार्य जिन्होंने कभी कहा था कि मैं उनकी पुत्री भी हूँ और पुत्र वधु भी।
मैने उस सभा से उस दिन ये सीखा___
इतने समय तक मैं अपने पतियों के बल और साहस पर विश्वास करती रही,मै सोचती थी कि चूकिं वे सब मुझे प्रेम करते हैं, वे मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं, परन्तु अब मुझे समझ मे आया कि वो प्रेम तो करते थे, जितना कि कोई पुरूष कर सकता हैं, परन्तु कुछ और भी हैं जिसे वे मुझसे अधिक प्रेम करते थे और वो था उनके लिए उनका सम्मान, एकदूसरे के प्रति निष्ठा और प्रतिष्ठा की अवधारणाएं,उनकी ये प्रतिबद्धता मेरी पीड़ा से अधिक महत्त्वपूर्ण थीं,वे प्रतिशोध तब लेंगे जब उन्हें ख्याति मिलेगी।
समाप्त.....
सरोज वर्मा.....