मैं माण्डवी ,मिथिला के राजा जनक के छोटे भाई कुशध्वज की बड़ी पुत्री मांडवी अप्रतिम सुंदरी व विदुषी थी, बचपन से ही सीता को अपना आदर्श मानने वाली मांडवी गौरी की अनन्य भक्त भी थी,श्रीरामचंद्र के धनुष तोडऩे से सीता के साथ विवाह होने से पिता कुशध्वज व मिथिला के महाराजा तथा मांडवी के काकाश्री जनक की सहमति से उसी समय श्रीराम के छोटे व सबसे प्रिय भाई भरत के साथ मुझे विवाह बंधन में बांध दिया गया और अपनी बहन सीता के साथ रहने की प्रबल इच्छा के चलते मैंने इस संबंध को सहर्ष न केवल स्वीकार किया अपितु पूरे प्रण प्राण से निभाया भी,
तत्कालीन समय में हर राजकन्या को मिलने वाले 'स्वयंवर' के अधिकार के चलते मैं चाहती तो अपना यह अधिकार ले सकती थी किन्तु मैं तो सीता व राम के मोहपाश में ऐसी बंधी थीं कि अपनी इच्छानुसार वर पाने का अधिकार भी नहीं माँग सकीं और न ही विवाहोपरान्त भी इस पर कभी शोक ना जता सकी।।
आज आप सबके साथ अपने कुछ क्षणों को बांटने आयी हूँ , हम चारों बहनों -सीता दीदी ,मैं ,उर्मिला और श्रुतिकीर्ति -ने पूरा समय साथ बिताया ,एक ही से संस्कार भी पाए थे,हमारा विवाह भी साथ-साथ ही हुआ था एक ही राजपरिवार में ,किन्तु हम चारों का भाग्य सर्वथा अलग था, हम सबके विवाह का सेतु सीता दीदी ही बनी थीं,किन्तु सीता दीदी को स्वयंवर का अधिकार मिला एवं उन्होंने श्री राम को चुना ,
उनके विवाह के समय ही श्री राम के छोटे भाइयों से हम तीनों बहनों का विवाह भी हो गया,मेरी भरत से ,उर्मिला की लक्ष्मण से और श्रुतिकीर्ति की सबसे छोटे शत्रुघ्न से , हम सभी प्रसन्नापूर्वक अयोध्या लौटे,प्रारम्भ का कुछ समय हमने तीनो माताओं के सानिध्य और प्रेम में ब्यतीत किया,
किन्तु हम सबको ये ज्ञात नहीं था कि ये प्रसन्नता क्षण भर की है,जब मंथरा के कहने पर माँ कैकेयी ने हमारे श्वसुर श्री दशरथ महाराज से ये इच्छा प्रकट की कि भैया राम को वनवास भेजा जाएं और मेरे पुत्र भरत को अयोध्या का राज-सिंहासन मिले,तब कैकेयी माँ की इस इच्छा का वें निरादर नहीं कर पाए एवं श्रीराम को वनवास जाने का आदेश सुना दिया,सीता दीदी भी श्रीराम के साथ वन जाने को तत्पर हो गईं एवं उनके संग लक्ष्मण भी वन को चले गए ,हम तीनों बहनों को अयोध्या में ही रोक लिया गया।।
हम तीनों बहनों ने अयोध्या में रुक कर कर्तव्यों का निर्वहन किया ,मैं अपनी बहन श्रुतकीर्ति के साथ अपनी ससुराल की देखभाल करने में लग गई ,क्योंकि उर्मिला अपने पति की नींद लेकर बिस्तर पर लेटी रहती थी।।
भरत ने अयोध्या के राज्यभार का वहन भी किया पर केवल राम के प्रतिनिधि के रूप में,भरत ने तो अयोध्या में ही वनवासी का सा जीवन बिताया ,मैं तो एक अलग ही चक्रव्यूह में फँसी थी बेचारी, मेरे लिए तो भरत ने कोई मार्ग छोड़ा ही नहीं, भरत राज्य के बाहर कुटिया में निवास करने लगें, उनके लिए तो अग्रज भक्ति से बड़ा कोई और धर्म ही नहीं था, वो इतने मग्न थे अग्रज भक्ति में कि ये ही भूल बैठे कि माण्डवी के प्रति भी उनका कोई कर्तव्य बनता है उन्होंने तो सीधे सीधे मुझ से कह दिया कि मुझे भी राम भइया की भाँति कुटिया में रहना स्वीकार है, मुझे भोग विलास नहीं चाहिए और ना ही तुम माण्डवीं।।
उस समय मेरा हृदय पाषाण हो चुका होगा, क्या मैं भरत को वनवास के उपरांत कभी भी हृदय से स्वीकार पाई होगी, कदाचित जो बातें भरत के लिए सामान्य रही हों, हो सकता है वो मेरे लिए असामान्य रही हो, मैं भरत के सुख दुःख की सहभागिनी थी और मैं पति परायणता, सेवा भावना और त्याग से कभी पीछे नहीं हटीं, मैनें भी तो अपने जीवन के चौदह वर्ष ना चाहते हुए भी एक साध्वी के रूप में बिताएं,मेरे मन में भी तो चौदह वर्षों तक अनुराग-विराग एवं आशा-निराशा का विचित्र द्वन्द चला होगा, मैं एक संयोगिनी होकर भी वियोगिनी का जीवन जीती रहीं,मैं मर्यादानुरूप आचरण करती रही, मैं भरत से एकनिष्ठ एवं समर्पण भाव से प्रेम करती रही और कर भी क्या सकती थी?
किन्तु मेरी विरह वेदनाओं को किसी ने कभी नहीं समझा,मैं जब शत्रुघ्न को श्रुतकीर्ति के संग प्रेम अठखेलियाँ करते देखती तो मेरे हृदय में भी हूक सी उठती कि मेरें संग ही ऐसा क्यों?इसके उपरांत में उर्मिला के विषय में सोचती तब मुझे लगता कि उसका पति तो उसके समीप नहीं है ,किन्तु मेरा तो समीप होते भी हुए भी दूर ही है,क्या मुझे अधिकार नहीं अपने पति के संग कुछ प्रेम भरें क्षणों को बिताने का,मेरा कक्ष चौदह वर्षों तक यूँ ही सूना पड़ा रहा, लेकिन श्रुतकीर्ति के कक्ष में नित्य भाँति भाँति प्रकार की सजावट की जाती,
मेरा रूप और यौवन यूँ ही कुम्हलाता रहा अपने पति की प्रतीक्षा में ,विरह का एक एक वर्ष कितना कठिन था मेरे लिए ब्यतीत करना,कदाचित मेरा त्याग किसी को नहीं दिखा होगा,तब भी मैने सहर्ष सबकुछ स्वीकार किया।।
मनोविज्ञान की भूमि पर उतरने के बाद देखें तो मेरा त्याग सीता दीदी के त्याग से, उर्मिला के तप व विरह से तथा कौशल्या माता के शोक से कम नहीं था,सभी सुख, सुविधाएं, अधिकार, ऐश्वर्य त्याग कर एक साध्वी का सा जीवन जीना मेरी जैसे निस्पृह चरित्र की नारी के लिये ही सम्भव था,किन्तु तब भी मैनें बहन का दुख अपना दुख माना ये भी तो एक आदर्श से कमतर नहीं था, उस समय कोई और स्त्री होती तो राज का नाम आते ही सक्रिय हो गई होती परन्तु मैं मूक व तटस्थ ही बनी रही,ऐसा आत्मनियन्त्रण केवल मुझमें ही था,इन चौदह वर्षों की विरहवेदना मेरे लिए इसलिए असहनीय थी कि यदि कोई भी मेरे मन के भावों को बाँचकर मुझे हृदय से लगाकर एक बार कह देता कि माण्डवी तुम्हारा योगदान ,तुम्हारा त्याग और सहयोग इतिहास सदैव भूल नहीं सकता तो कदाचित मेरे हृदय को इतनी पीड़ा ना होती।।
समाप्त.....
सरोज वर्मा.....