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हिन्दी साहित्य में प्रकृति चित्रण.....

12 नवम्बर 2021

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प्रकृति मानव की चिर सहचरी रही है,इसका मूल कारण यह है कि मनुष्य और प्रकृति सृष्टि के आदिकाल से ही एक-दूसरे से सम्बन्धित रहे हैं।

     कभी उसकी सतरंगी चूनर ने मानव मन को लुभाया है तो कभी विशाल पर्वतों और दुर्गम जंगलों ने उसे विस्मित किया है, भारतीय पुराणों के अनुसार भी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा प्रकृति के रहस्यमय पुष्प 'कमल' से ही उत्पन्न हुए थे और कमल के उत्पादक विष्णु स्वयं जलमय संसार के ही आश्रय पर टिके थे।
     बाद में भारतीय संस्कृति के रक्षक ऋषि, मुनि भी वनों और पर्वतों की कन्दराओ में ही अपना जीवन बिताते थे, कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का प्रकृति के साथ सर्वाधिक और सर्व प्राचीन सम्बन्ध है,मानव सदा से प्रकृति के साथ खेलता रहता आया है।
      यहां के साहित्य में सदा से ही प्रकृति सदैव से अपने विभिन्न रूपों में झांकती है, वैदिक साहित्य तो ऊषा,वन, नदी,पर्वत,वायु, सूर्य, चन्द्र,अग्नि आदि के सुंदर वर्णनो से भरा पड़ा है।
     संस्कृत कवियों का प्रकृति चित्रण संस्कृत साहित्य की नहीं सम्पूर्ण साहित्य की अनुपम निधि है, भारतीय  साहित्य में संस्कृत कवियों जैसा प्राकृतिक चित्रण अन्यत्र कठिनता से ही मिलता है।
कबीर दास जी की निम्न पंक्तियों में नलिनी के कुम्हालने का कारण पूछा है,वे नलिनी को 'आत्म तत्व'से विभूषित करके उससे पूछते हैं___

"काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे नाल सरोवर पानी।
जल में उत्पत्ति जल में बास,जल में नलिनी तोर निवास‌।।
न तलि तपति न ऊपर आगि,तोर हेतु कहें कासन लागि।
कहे'कबीर'जे उदकि समान,ते नहिं मुये हमारी जान।।"

इसी प्रकार संसार की अनित्यता को प्रकट करने के लिए भी अन्योक्ति रूप में उन्होंने'माली और कली' को प्रस्तुत किया है___

"माली आवत देखिकर ,कलियन करी पुकार।
फूले  फूले चुन लिए,काल्हि हमारी बार।।"

आगे चलकर मलिक मुहम्मद जायसी ने प्रकृति को अपने काव्य में स्थान दिया, निम्नलिखित प्रकृति वर्णन उनकी निरीक्षण प्रवृत्ति का सुन्दर उदाहरण नागमती वियोग वर्णन से यहां प्रस्तुत है___

"पिय सौं कहिड संदेसड़ा,से भौंरा! हे काग।
सो धन विरहै जरि हुई,तेहिक धुआं हम लाग।।"

जहां प्रकृति को अपने शुद्ध रूप में चित्रित किया जाता है,उसे अन्य किसी भाव , अलंकार आदि को प्रकट करने का माध्यम बनाया जाता है, निम्न पंक्तियां श्री जयशंकर प्रसाद जी की लिखी____
 
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट पर डुबो रही ताराघट ऊषा नागरी।
खग कुल कुल सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा,
तो यह लतिका भी भर लायी,मधु मुकुल नवल रस गागरी।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी कवियों ने सम्पूर्ण कालों में प्रकृति का विभिन्न रूपों में चित्रण किया है।।
        
समाप्त.....
सरोज वर्मा__


 

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