चल राजू तैयार हो जा, रात को दस बजे हमारी ट्रेन है, मां ने मुझसे कहा____
मैंने कहा ठीक है मां और मैंने अपने कंचे, चंदा-पवआ खेलने वाली कौड़ी और अपनी गेंद मां को देते हुए कहा कि लो मां ये सब भी रख लेना।
मैं बहुत खुश था क्योंकि हम दीवाली की छुट्टियों में गांव जा रहे थे और मुझे अपने गांव जाना बहुत पसंद था।।
ये बात उस समय की है जब मैं करीब नौ दस साल रहा हूंगा, अब तो ना वो बचपन रहा और ना वैसे खेल।।
हां तो मां ने मुझसे तैयार होने को कहा और फिर माँ मेरी छोटी बहन को गोद में लेकर और भी सामान देखने लगी कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया।।
मैं बहुत ही खुश था, मेरी पढ़ाई की वजह से ही हमें पापा के साथ कस्बे में रहना होता था लेकिन मुझे तो गांव पसंद था और अब कुछ दिनों के लिए ही सही अपने गांव जा रहा था, पता है जब हमें गांव जाना होता था तो पापा पहले से ही दादा जी को चिट्ठी लिख देते थे कि हम आ रहे हैं और दादा जी सुबह पांच बजे बैलगाड़ी लेकर स्टेशन पर आ जाते थे क्योंकि स्टेशन से गांव पांच छः किलोमीटर दूर था और उस समय बसे भी ज्यादा नहीं चलती थी, इक्का दुक्का तांगे चलते थे तो वो लोग गांव की पक्की सड़क तक ही छोड़ देते थे, पक्की सड़क से अंदर गांव का कच्चा रास्ता भी दो तीन किलोमीटर का था और हम दो दो बच्चे और इतना सामान मां पापा परेशान हो जाते थे इसलिए दादा जी को पहले चिट्ठी लिखकर बता दिया जाता था कि हम फलां फलां दिन आ रहे हैं।।
तो हम रात को स्टेशन पहुंच गये, उस समय स्टेशन भी छोटे छोटे ही होते थे, प्लेटफार्म भी बहुत नीचे होते थे गाड़ी में चढ़ने पर परेशानी होती थी, हम गाड़ी में चढ़ गए, कोयले वाला इंजन हुआ करता था उस समय, वो भी काला काला, इंजन ने सीटी दी, गाड़ी चल पड़ी, हमें जगह भी मिल गई, उस समय रात को ज्यादा लोग सफर नहीं करते थे इसलिए, फिर मुझे नींद आ गई।
सुबह गाड़ी पहुंची तो अंधेरा था, हम सब उतरे मां ने मुझे शाल ओढ़ा दिया क्योंकि दीवाली के समय हल्की ठंड हो जाती थीं फिर हम स्टेशन के बाहर आए देखा तो दादा जी आ चुके थे, तब ज्यादा हर जगह बिजली नहीं हुआ करती थी, दादाजी अपनी लालटेन साथ लेकर आए थे, साथ में छोटे चाचा भी थे।।
गांव के लोगों ने कई तरह की बातें फैला रखी थी कि रात में गांव के कच्चे रास्ते पर बडे बड़े जिन्न मिलते हैं बहुत बड़े होते हैं वो, सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ों पर एक एक पैर रख लेते थे और लोगों को मारकर खा जाते थे और गांव वाला जो ऊंचा पहाड़ है उस पर भूतों की बारात निकलती है, जो भी देख लें वो जिंदा नहीं बचता।।
फिर हल्का हल्का उजाला होने पर हम निकल पड़े गांव की ओर बैलगाड़ी में, बहुत ही अच्छा लगता था, रास्ते भर बहुत सारे पुराने जमाने के घरों के खण्डहर मिलते थे, वो सब मुझे बहुत अच्छे लगते थे, रास्ते में मोर भी दिख जाते थे नाचते हुए, नीलकंठ और तोते भी बहुत हुआ करते थे उस समय और सबसे ज़्यादा उस समय गिद्ध हुआ करते थे हमारे गांव के रास्तों में गंदगी खाते हुए दिख जाते थे।।
रास्ते में चाचा तो पैदल ही चल रहे थे और मुझे झाड़ियों से छोटे छोटे वाले बेर तोड़ कर दे रहे थे, मैं खाता था रहा था, बहुत ही अच्छा लग रहा था, बैलगाड़ी में बैठकर।।
फिर हम गांव पहुंच गए और मेरी धमाचौकड़ी शुरू हो गई, सभी दोस्तों के घर हो आया, दोस्तों के साथ मिलकर मिट्टी के ट्रैक्टर बनाए और भी ना जाने कहां कहां घूमने गया।।
फिर दूसरे दिन सबने मिल कर कहा चलो खेतों में चलते हैं, चने का साग उग आया है, वहीं नहर के किनारे खेलेंगे, मैंने कहा ठीक है और हम सब खेतों की ओर निकल पड़े, हम ने वहां पहुंच कर खूब चने का साग खाया और हरी मटर के नए नए पौधों की मीठी मीठी कोंपलें खाई, छोटे छोटे पोखर थे वहां, उनमें बेशरम के गुलाबी गुलाबी फूल फूले थे, बहुत मजा आ रहा था।
खेतों के उस तरफ बहुत बड़ा पहाड़ था जिस पर भूतों की बारात निकलती थी ऐसा गांव वाले कहते थे, मेरा कई बार वहां जाने का मन होता था लेकिन कोई ना कोई रोक देता था, उस दिन भी मैंने सबसे पहाड़ पर चलने के लिए कहा लेकिन सबने मना कर दिया, उस दिन मैं भी नहीं जा पाया लेकिन मैंने सोचा कि मैं अब अकेले वहां जाकर रहूंगा और देखूंगा कि आखिर वहां हैं क्या?
दूसरे दिन मैं अकेले ही खेतों की ओर निकल पड़ा और पहुंच गया पहाड़ के दूसरे छोर पर जहां मुझे नीचे से कोई भी नहीं देख सकता था, कई बार फिसला भी लेकिन पहुंच ही गया।।
वहां जाकर देखा कि एक छोटा सा मंदिर हैं नीम के पेड़ के नीचे और मंदिर से थोड़ी दूर एक छोटी सी झोपड़ी बनी है, अब मुझे बहुत जोर की प्यास लगी थी, वहां कहीं भी पानी नहीं दिख रहा था, मैं झोपड़ी के पास जैसे ही पहुंचा किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, मैंने पीछे मुड़कर देखा तो कोई सोलह सत्रह साल की लड़की घाघरा चोली पहने खड़ी थी, बहुत ही सुंदर और उसके माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर से पता चल रहा था कि वो शादीशुदा हैं, मैं उसे ऐसे अचानक देखकर चौंक गया।।
उसने कहा डरो नहीं, छोटे भइया मैं मधुरिमा!!
मैंने कहा मुझे प्यास लगी है!!
उसने कहा, ठहरो!! और वो झोपड़ी के अंदर गई और लोटे में पानी लेकर आई, मैंने एक सांस में सारा लोटा खाली कर दिया।।
वो मुस्कुराकर बोली, भूख भी लगी है
मैंने कहा हां__
और वो एक थाली में गुड़, रोटी और लोटे में छाछ ले आई मैंने वो खा लिया।।
थोड़ी देर में एक आदमी कंधे पर लकड़ियां लेकर आ पहुंचा__
वो बोली, ये मेरे पति...
उस आदमी ने कहा, मैं केशव उसकी उम्र भी अठारह उन्नीस साल ही रही होंगी___
मैंने कहा, ठीक है आज से तुम मेरी मधुरिमा दीदी और तुम मेरे केशव भइया, मैंने उन लोगों से थोड़ी देर बातें की फिर शाम होने को थी तो वो लोग बोले, राजू अब तुम घर जाओ, कल आना लेकिन किसी से ये मत बताना कि हम यहां रहते हैं, तुम्हारा जब भी मन करे तुम हमसे मिलने आ जाना।।
मैंने कहा ठीक है, मैं कल फिर आऊंगा और मै वहां से चला आया....
मुझे आते आते शाम हो चली थी, रास्ते भर खेतों से लौटते हुए लोग मिल रहे थे, डूबते सूरज की लालिमा भी फीकी पड़ती जा रही थी , चरवाहे भी जानवरों को चरा कर घर लौट रहे थे, जानवरों के गले में बंधी हुई घंटियों की आवाज एक के बाद एक सुनाई दे रही थी और कुछ पनिहारियां भी पानी भरकर आ रही थी कुछ पानी भरने जा रही थी, मैं घर वापस आ गया और घर आकर मैंने किसी से भी कुछ नहीं कहा।।
मां ने पूछा भी कि कहां था दिन भर?
मैंने कहा दोस्तों के साथ फिर मां ने भी कुछ नहीं पूछा!!
हल्का हल्का अंधेरा हो रहा था, मां चूल्हे पर खाना बना रही थी, फिर सबको दादी ने खाना खाने के लिए कहा, उस समय लालटेन या ढिबरी की ही रोशनी हुआ करती थी, दादी ने सबके लिए खाना परोसा, सबने खाना खाया।।
मैंने खाना खाते हुए दादी से पूछा कि दादी सच में उस खेतों वाले बड़े पहाड़ पर भूत रहते हैं, दादी बोली हां!! हमारे बुजुर्ग बताते थे कि उस पहाड़ पर भूत रहते हैं, फिर सब सो गए।।
दूसरे दिन मैं फिर उस पहाड़ पर चला गया, मुझे केशव भइया और मधुरिमा दीदी बहुत अच्छे लगे, मैं अब रोज रोज वहां जाता, उनसे बात करता और चला आता फिर दीवाली आई मैं तीन दिनों तक पहाड़ पर नहीं जा पाया और गांव में मेला भी लगा था मैंने मेले से बांसुरी खरीदी केशव भइया के लिए, उन्होंने बताया था कि उन्हें बांसुरी बजाना पसंद है लेकिन वो गांव जाकर नहीं खरीद सकते।।
मैं दीवाली के बाद उन लोगों से मिलने गया, केशव भइया के लिए बांसुरी और दोनों के लिए दीवाली का प्रसाद भी लेकर गया, केशव भइया ने बांसुरी तो ले ली लेकिन जैसे ही मैं दोनों को प्रसाद देने लगा तो दोनों डरकर बोले ये प्रसाद हम नहीं ले सकते, इसे उस टीले पर रख दो पशु पक्षी खा जाएंगे, मैंने सोचा नहीं खाना होगा प्रसाद, इसलिए ऐसा कह रहे हैं, मैंने भी प्रसाद टीले पर जा कर रख दिया।।
केशव भइया ने बहुत अच्छी बांसुरी बजाई, सुनकर बहुत अच्छा लगा।
मुझे अब आदत सी पड़ गई थी, उन दोनों से ना मिलूं तो अच्छा नहीं लगता था और मधुरिमा दीदी भी मेरे आने का हमेशा इंतजार करतीं थीं एक दिन ना पहुंचूं तो परेशान हो जाती थी, पूछती थी___
क्यों राजू, कल क्यों नहीं आए? तुम आते हो तो अच्छा लगता है ऐसा लगता है कि अभी भी कोई अपना हैं।
फिर मेरे स्कूल की छुट्टी भी खत्म होने वाली थी और पापा के ऑफिस की भी, अब हमें वापस लौटना था, मुझे बहुत बुरा लग रहा था पापा ने कहा कि हम दो दिन के बाद वापस जा रहे हैं, मैंने सोचा, अब मैं मधुरिमा दीदी से नहीं मिल पाऊंगा।।
मैंने पापा से पूछा ___
लेकिन पापा मैं कल तो अपने दोस्तों के साथ खेतों में घूमने जा सकता हूं!!
पापा बोले नहीं, मैंने कहा कि हम तो दो दिन के बाद जा रहे हैं तो कल तो मैं घूमने जा सकता हूं ना!!
पापा बोले, कल हमें किसी के यहां जाना है वो भी सपरिवार।।
तभी दादी बोली, बेटा कहां जाना है किसके यहां?
पापा बोले, वो पड़ोस वाले गांव का मेरे बचपन का सहपाठी था ना पूरन सिंह, उसके यहां दो बेटियों के बाद बेटा हुआ है, वो भी गांव में नहीं रहता बाहर कहीं नौकरी करता है लेकिन इस समय गांव में है, कल उसके बेटे का नामकरण और साथ में भोज भी है तो उसके यहां जाना है।।
दादी बोली, अच्छा वहीं पूरन!!तब तो बहुत अच्छी बात है, हम सब चलेंगे , मैं अभी सुनार के यहां से बच्चे के लिए कुछ ले आती हूं, बाजार भी तो जाना होगा, बच्चे और बहु के लिए कुछ कपड़े लेने होंगे।।
पापा बोले, हां मां अभी चली जाओ।।
दादी सामान लेने चली गई और मैं सोच में डूब गया कि कल मैं नहीं जा पाऊंगा दीदी के पास।।
अब दूसरे दिन हम सब पूरन सिंह अंकल के यहां पहुंचे, उनके बड़े भाई भान सिंह मुझे कुछ अजीब और डरावने लगे, बचपन का कोमल मन जरा जरा सी डरावनी चीजें देखकर भयभीत हो जाता है।।
लेकिन उनकी पत्नी अच्छी थी मुझे बड़े से प्यार से गोदी में बिठाकर बातें की, फिर मैं पूरन सिंह अंकल की बेटियों के साथ खेलने लगा।।
थोड़ी देर बाद सब पंगत में बैठे, सबने खाना खा लिया फिर महिलाओं की बारी आई, लेकिन तभी भान सिंह जी की पत्नी दौड़ते हुए आई और बोली डॉक्टर को बुलाइए, जीजी की बहुत ज्यादा तबीयत खराब हो गई।।
मेरी मां और दादी खाने से उठकर अंदर पहुंचे और बाकी लोगों से कहा गया कि आप लोग खाना खाएं।।
ये थी पूरन सिंह अंकल और मान सिंह की विधवा बहन जो पूरी तरह से अपने भाइयों पर आश्रित थीं, डाक्टर को बुलाया गया, डाक्टर ने कहा घबराने की बात नहीं बस थोड़ी कमजोरी है इनका ख्याल रखिए।
डाक्टर के जाने के बाद हम सब अंदर पहुंचे, उन्हें देखने लेकिन ये क्या? मैंने उनके कमरे में जाकर देखा कि एक दीवार पर मधुरिमा दीदी की फोटो लगी थी।।
मैंने सबसे कहा कि ये तो मधुरिमा दीदी है!!
सबने पूछा लेकिन तुम कैसे जानते हो?
मैंने कहा कि ये और केशव भइया तो हमारे गांव के ऊंचे वाले पहाड़ पर झोपड़ी में रहते हैं।।
तभी भान सिंह की बहन बोल पड़ी_
कहां है मेरी बेटी? कोई कुछ नहीं बताता ना जाने कहां चली गई, वो उस चरवाहे से प्यार करती थी, एक रोज वो उसके साथ ना जाने कहां चली गई फिर तब से लौट कर नहीं, अपनी मां के बारे में भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा, वो मेरी इकलौती संतान थी।।
तब मैंने कहा, बुआ जी आप परेशान ना हों, मुझे पता है वो दोनों कहां रहते हैं, मैं रोज उनसे मिलता हूं, पहाड़ पर, मुझे मधुरिमा दीदी खाना भी खिलाती है।
तभी भान सिंह बोले, ऐसा कैसे हो सकता है कि वो लोग ज़िंदा है, मैंने अपने हाथों से ही उनके खाने और पानी में जहर मिलाया था।।
तभी पूरन सिंह अंकल बोले, ये क्या कह रहे हैं ?भइया!!
भान सिंह बोले, हां, मुझे ऐसा करना पड़ा, उस लड़की ने सारे समाज के सामने हमारी नाक कटवा दी तभी मुझे ऐसा करना पड़ा, एक दिन मुझे पता चला कि वो दोनों यहां से भागकर पड़ोस वाले गांव के पहाड़ पर छुपकर रह रहे हैं, मैं ताक में था कि दोनों झोपड़ी से बाहर जाएं, केशव लकड़ियां लेने चला गया और मधुरिमा दूर पानी भरने चली गई, मैं झोपड़ी में गया देखा तो एक छोटा मटका छाछ से भरा है और एक बड़ा सा मटका पानी से, मैं दोनों में विष घोलकर भाग गया।।
फिर मैं दोबारा वहां नहीं गया, सोचा कि मर ही गए होंगे दोनों लेकिन ये कह रहा कि जिंदा है दोनों।।
तभी मैंने कहा कि लेकिन वो लोग अभी तक जिंदा है, मैं उन लोगों से मिला हूं आपको भरोसा नहीं होता तो चलिए, मैं वहां पर ले चलता हूं।।
मैं , मेरे पापा, पूरन सिंह अंकल, भान सिंह और भी दो चार लोग उस पहाड़ पर गए, हम चढ़ते हुए पहुंच गए, वहां झोपड़ी में जाकर देखा कि दो कंकाल एक दूसरे के बगल में पड़े हैं और मेरी दी हुई बांसुरी केशव भइया की मुट्ठी में है।।
तभी पूरन सिंह अंकल बोले, कल इन लोगों का अंतिम संस्कार करना होगा लगता है इन लोगों की आत्मा को मुक्ति नहीं मिली अभी तो शाम हो चुकी है, भइया ये आपने बिल्कुल भी सही नहीं किया, पूरन सिंह अंकल ने भानसिंह से कहा!! और हम उतर चले पहाड़ से तभी भान सिंह का पैर फिसला और वो पहाड़ से ऐसे गिरे की फिर कभी उठ ना सके, केशव और मधुरिमा ने अपना बदला ले लिया था शायद, उस दिन के बाद मैं वहां कभी नहीं गया।।
वर्षों बाद मैं फिर इस पहाड़ के पास आया हूं और पहाड़ के ऊपर जाने का मन कर रहा है, चलो हो ही आता हूं और मैं चला पहाड़ पर फिर आज मुझे प्यास लगी है, ऊपर पहुंच कर मेरे कंधे पर फिर किसी ने हाथ रखा पहले की तरह और मुस्कुराते हुए पूछा, प्यास लगी है!
समाप्त__
सरोज वर्मा......