शरीर जब पैदा होता है, तो वह कभी बचपन, कभी जवानी और उसी तरह बुढ़ापा में प्रवेश करता है,अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे अनुभव करें,प्रकृति तो अपना काम करती ही है, हमारे चाहने से कुछ नहीं होता, इसलिए जिस प्रकार हमने बचपन को उल्लासपूर्ण बनाया, जवानी को प्रेमपूर्ण बनाया, उसी प्रकार बुढ़ापे को भी सहज रूप से स्वीकार करते हुए आनंदपूर्ण बनाने का प्रयास करना है, दुख तो तभी होगा, जब हम उसका प्रतिरोध करेंगे,
बुढ़ापे का विरोध करने से, इसे आत्मग्लानि के साथ स्वीकार करने से अधिक पीड़ा होती है, जो लोग प्रकृति से सहमत हो जाते हैं, उन्हें दुख नहीं होता,जो स्वीकार कर लेते हैं कि बचपन की तरह वे मौज-मस्ती नहीं कर सकते, उन्हें दुख नहीं होता. जो व्यक्ति परिवार में रहतेहैं, उन्हें परिवार के साथ सामंजस्य करना पड़ता है,क्योंकि अब तक वे अकेले परिवार में जी रहे थे, अब परिवार में अन्य कई सदस्य आ गये.
बुढ़ापा अभिशाप तब बनता है, जब आप स्वयं उसे बीमारी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं,इस मानसिक स्थिति के कारण लोग इसे अभिशाप मानते हैं,आजकल बुढ़ापे का अर्थ होने लगा है क्रोधी बन जाना, अकारण किसी से झगड़ जाना, कोई अगर आपको नमस्कार नहीं करता है, तो उससे भिड़ जाना, जब समाज उसे उस रूप में स्वीकार नहीं करता, तो उस अपमान को वह बर्दाश्त नहीं कर पाता और तब वह महसूस करने लगता है कि बुढ़ापा अभिशाप बन गया है,इसे आम भाषा में सठिया जाना भी कहते हैं,
बुढ़ापा हम में से अधिकतर के लिए एक अनचाहा और अप्रिय शब्द है ,शब्द में ही नहीं, अर्थ में भी ये अप्रिय है, ‘बुढ़ापा’ शब्द कानों में पड़ते ही जर्जर और कई अर्थों में असहाय शरीर का ढ़ाँचा आंखों के सामने खिंच जाता है ।
बूढ़ा होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, बुढ़ापे के दौरान लोगों को बेहद प्यार और देखभाल की जरूरत होती है, बुजुर्गों की देखभाल करना न केवल एक जिम्मेदारी है बल्कि एक नैतिक कर्तव्य भी है, बूढ़े लोग एक परिवार की रीढ़ होते हैं, वे जीवन की कठिनाइयों के साथ अच्छी तरह से अनुभव करते हैं, कहा जाता है कि जीवन हमें सबक सिखाता है, पुराने लोग हमें सिखाते हैं कि कैसे बढ़ें, यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उन्हें उनके बुढ़ापे के दौरान वापस भुगतान करें, दुर्भाग्य से, आज की दुनिया में, युवाओं को बड़ों के प्रति अपने नैतिक कर्तव्यों को भूलते हुए देखा जाता है, वे बुजुर्ग देखभाल के महत्व को समझने के लिए तैयार नहीं हैं और अपने बुढ़ापे के दौरान अपने माता-पिता की देखभाल करने के बजाय, उन्हें वृद्धाश्रम में भेजना पसंद करते हैं. वे अपने माता-पिता के साथ रहने के बजाय एक स्वतंत्र जीवन जीना पसंद करते हैं. यह हमारे समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है,
बुढ़ापे की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि बूढ़े आदमी में बचपना तो कुछ हद तक रहता है, पर वो अबोध नहीं रहता ,उसमे परिपक्वता आ जाती है कोई घटना या हादसा उसके लिए नया नहीं रहता, वह चौंकता या हतप्रभ नहीं होता,
इसका कारण यह है कि वह स्वयं भी ऐसी स्थितियों से गुजर चुका होता है , प्रेम-प्रसंग से लेकर निजी सम्बन्धों और ऊंच-नीच तक वह सभी कुछ अच्छी तरह देख और समझ चुका होता है,पूर्ण रूप से, सच्चाई यही है कि बुढ़ापा न तो अप्रिय है और ना अभिशाप ,बल्कि ये समाज और व्यक्ति के लिए और पूरी मानवता के लिए एक वरदान है ,इसे तुच्छ या निरर्थक नहीं समझना चाहिए, हमें अपने बड़े-बूढ़ों और बुजुर्गों का सम्मान करना चाहिए ,वे हमारे लिए प्यार, अनुभव और ज्ञान की ऐसी पूंजी हैं, जिसे हम कितना भी धन खर्च करके भी कभी प्राप्त नहीं कर सकते ।
और अन्त में सबसे जरूरी बात ये है कि यौवन बीत जाने का गिला-शिकवा करने के बजाय जरा अब सुकून से बुढ़ापे की इस स्थिति पर भी गौर कीजिए ,अतीत में गोते लगा कर खुद से पूछिए कि आपने क्या किया और आप क्या नहीं कर पाए, आपके भीतर मूल्यांकन की दृष्टि और व्याख्या करने की काबिलियत बढ़ी उम्र का ही नतीजा है, बहुत सारे मनोवैज्ञानिक अनुभव मिलते हैं, युवावस्था में हमें सोचने-समझने का समय कहाँ मिलता था! भौतिक सौंदर्य और तात्कालिक लाभ के इर्द-गिर्द ही जीवन घूमता था,तब चमक-दमक के आर्कषण में यह तक खयाल नहीं रहता था कि इसके अलावा भी बहुत कुछ है जीवन में करने के लिए,
वर्तमान को अतीत से जोड़ कर आगे की ओर भी देख पाने में ही जीवन की सार्थकता है, इसलिए बुढ़ापे को सिर्फ बढ़ती उम्र के परिणाम के रूप में ही न देखें, उसका खुले दिल से स्वागत करें,हकीकत तो यही है कि बुुुढ़ापा तो आएगा ही फिर आप चाहे उसे असंतुष्ट होकर काटें या फिर संतुष्ट होकर उसका आनंद लें, बुढ़ापा एक शाश्वत सत्य है तो फिर बुढ़ापे को मुस्करा कर क्यों ना जिया जाएं।।
समाप्त...
सरोज वर्मा....