ईश्वर ने जब संसार की रचना की तब उसने रचनात्मकता के शिखर पर नर और नारी की रचना की, नर व नारी यानी शिव और शक्ति, जिससे संसार पूर्ण होता है, स्त्री व पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे के बिना वे आधे-अधूरे हैं, ईश्वर ने पुरुष को सशक्त एवं शक्तिशाली बनाया तो नारी को कोमल तथा प्रेममयी।
देश बदल रहा है महिलाओं की दशा में सुधार आ रहा है, समय के साथ साथ नारी शक्ति और सशक्त होती जा रही है,परिवर्तन प्रकृति का नियम है ये बात तो सत्य है, किन्तु परिवर्तन का क्या परिणाम हुआ है और क्या होगा और उस परिवर्तन को आने वाली पीढ़ी को किस प्रकार स्वीकार करती है और इससे क्या सीख लेती है ये बात अधिक महत्त्व रखती है,
देखा जाए तो हर युग में प्रतिभाशाली महिलाएँ रही हैं और हर युग में उन्होंने अपनी प्रतिभा से समाज में उदाहरण प्रस्तुत किया है जैसे- सीता, सावित्री, द्रौपदी, गार्गी आदि पौराणिक देवियों से लेकर रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्या बाई होल्कर, रानी चेनम्मा, रानी पद्मिनी, आदि महान रानियों से लेकर इंदिरा गाँधी और किरण बेदी से लेकर सानिया मिर्ज़ा आदि आधुनिक भारत की महिलाओं ने भारत को विश्व भर में गौरवान्वित किया और महिलाओं ने धरती पर ही नहीं अपितु अन्तरिक्ष में भी अपना परचम लहराया है इनमें सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला प्रमुख हैं।
लेकिन फिर भी यह देखने को मिलता है कि हर युग में उन्हें भेदभाव और उपेक्षा का भी सामना करना पड़ा है, महिलाओं के प्रति भेदभाव और उपेक्षा को केवल साक्षरता और जागरूकता पैदा कर ही खत्म किया जा सकता है, महिलाओं का विकास देश का विकास है, महिलाओं की साक्षरता, उनकी जागरूकता और उनकी उन्नति ना केवल उनकी गृहस्थी के विकास में सहायक साबित होगी बल्कि उनकी जागरूकता एवं साक्षरता देश के विकास में भी अहम् भूमिका निभाएगी,
इसीलिए सरकार द्वारा आज के युग में महिलाओं की शिक्षा और उनके विकास पर बल दिया जा रहा है, गाँव और शहर में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए प्रयास किये जा रहे हैं, महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना और अन्याय के प्रति आवाज उठाने की हिम्मत प्रदान करना ही असल में नारी सशक्तिकरण है।
एक सुखी जीवनयापन के लिए किताबी ज्ञान के साथ व्यावहारिक ज्ञान भी अति आवश्यक है है जोकि हमारे कौशल में निखार लाता है और हमारे व्यावहारिक ज्ञान और अनुभव में वृद्धि करता है, व्यवहारिकता, अनुभव और कौशल विपरीत से विपरीत स्थिति में भी जीवनयापन में सहायता करता है,ऐसा नहीं है कि अशिक्षित महिलाओं में कौशल एवं हुनर कम है, कृषि, कुटीर उद्योग, पारम्परिक व्यवसाय, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय जैसे कार्यों से महिलाओं को अपने इस हुनर को बाहर लाना है और देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनना है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ शिक्षा के अभाव और आर्थिक पिछड़ेपन के और विकृत मानसिकता के कारण विभिन्न अन्धविश्वासों के चलते महिलाओं का शोषण किया जाता है,ऐसे स्थानों पर महिलाओं को शिक्षा के प्रति जागरूक किया जाना चाहिये एवं आत्मरक्षा के तरीके भी सिखाये जाने चाहिये।
आदिकाल में कभी स्त्री की सम्वेदनशीलता एवं सुकोमल शरीर को देखकर कहीं ये नियम बना होगा कि पुरुष बाहर जाकर जीविकोपार्जन के लिए श्रम करेगा तथा स्त्रियाँ घर पर रहकर भोजन, गृहकार्य एवं घर व घर के सदस्यों की देख-रेख, बच्चे पालने आदि का काम करेगी जो कि बाद में पूरे मानव समाज में एक सर्वमान्य नियम बन गया,किन्तु बाद में यही नियम स्त्रियों के लिए शोषणकारी सिद्ध होने लगा, क्योंकि गृह संचालन में उसका स्थान केवल एक सेविका, एक समर्पित दासी के अतिरिक्त कुछ नहीं था , संयुक्त परिवार में भरे-पूरे घर और अतिथियों को खिलाने के बाद बचा-खुचा खाना, पहनना यही उसका जीवन था, अपनी छोटी से छोटी इच्छाओं पर भी वह खर्च नहीं कर सकती थी कारण कि पुरुष द्वारा उपार्जित धन की वह मात्र ट्रस्टी होती थी, उस धन को अपने मन मुताबिक खर्च कर ले यह अधिकार उसे नहीं दिया जाता था,
बाल विवाह, दहेज़ प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, सती प्रथा, घरेलू हिंसा आदि तमाम पीड़ाकारी, शोषणकारी और निर्मम कुप्रथाओं के चलते कई सदियों तक घुटन-भरा जीवन जीने के बाद नारी ने पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर होने के लिए नौकरी व व्यवसाय के क्षेत्र में कदम बढाया तब संविधान ने भी उसे बराबरी का अधिकार दिया, बुद्धिजीवियों ने नारी स्वतंत्रता व नारी समानता की बातें की, पर क्या इन सबके बाद भी वास्तव में अभी भी समाज और घर-बाहर अपने समुचित स्थान के लिए संघर्ष करती नारी की स्थितियों में सन्तोषजनक सुधार हुआ है ? इस प्रश्न का सही उत्तर देना भारतीय पुरुषों के लिए शायद बहुत मुश्किल है क्योंकि भारतीय पुरुष बातों में चाहे जितना एडवांस बन ले पर सत्य यही है कि आज भी वह मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया है l
हमारे देश में महिला उद्यमिता के विकास में कई समस्याएं हैं, जिसके कारण महिलाओं को उचित स्वरोज़गार का माहौल नहीं मिल पाता है, सामाजिक रीति-रिवाज, घरेलू दायित्व, उद्यमिता प्रशिक्षण का अभाव, पूंजी का अभाव आदि ऐसी बहुत समस्याएं हैं, जिनमें महिलाओं को जूझना पड़ता है। महिला उद्यमिता से महिलाओं को निर्णय, स्वामित्व का अधिकार तो मिलता है बल्कि समाज में उद्यमिता का एक कुशल इको तंत्र भी विकासित होता है, यह इस संदर्भ में भी ज़रूरी है कि वर्ष 2001 की जनसंख्या के अनुसार बाल लिंगानुपात 927 था, जो वर्ष 2011 की जनसंख्या में घटकर 914 हो गया है,वाकई यह स्थिति बहुत गंभीर है, जो महिलाओं के अस्तित्व के लिये एक बड़ा खतरा है।
शिक्षण व प्रशिक्षण के द्वारा महिलाओं में कौशल विकास किया जा सकता है, उद्यमिता विकास कार्यक्रमों के द्वारा उद्यम के व्यावहारिक पक्ष से महिलाओं को अवगत कराकर उनमें आत्मविश्वास लाया जा सकता है,इनमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है, गाँवों व कस्बों में इन समूहों के द्वारा महिला शक्ति को संयुक्त किया जाता है, पिछड़े क्षेत्रों, गाँवों आदि में महिलाओं को उद्यमिता के प्रति जागरूक करने के लिए ग्राम पंचायतों एवं स्थानीय निकायों आदि को सम्मिलित करने से अच्छे परिणाम आएंगे,
आज महिलाएं केवल पापड़ व अचार नहीं बना रही हैं बल्कि विभिन्न आधुनिक क्षेत्रों जैसे- पर्यटन, शिक्षण, सौन्दर्य व फैशन, इंटीरियर डिजायनिंग, इंजीनियरिंग में बखूबी से अपना मोर्चा संभाल रही हैं, महिला उद्यमशीलता के बहुआयामी परिणाम होते हैं, केवल परिवार व समुदायों की आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ-साथ इससे एक मज़बूत व समृद्ध राष्ट्र भी बनता है, महिला उद्यमिता वह बाण है, जिसके द्वारा देश की विभिन्न सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को कुशलता से समाप्त किया जा सकता है।
आर्थिक स्वतंत्रता एक ऐसी स्वतंत्रता है जिससे व्यक्ति में आत्मविश्वास , आत्मनिर्भरता स्वयं ही आ जाता है और व्यक्ति अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने तथा अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम होता है फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रत्येक व्यक्ति का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना बहुत जरुरी होता है , जीवन सुख समृद्धि और शांति से आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार हर मनुष्य को है।
परन्तु सोचने वाली बात यह है कि लड़कियां काम ना भी करें , पैसा ना भी कमायें तो क्या होगा ? उनकी तो शादी करनी है और उनका पति तो कमायेगा ही उनकी जरूरतों को पूरा करेगा या जिन महिलाओं के पति कमाते है उन्हें खुद नौकरी करने की अथवा पैसा कमाने की क्या जरुरत है,
सदा से ही भारतीय घरो में यह परम्परा रही है की घर का पुरुष कमाएगा और सभी जिम्मेदारियों को उठायेगा , घर के अन्य लोगों की जरूरतों की पूर्ती करेगा यही आज भी हम सोच लेते हैं कि जब घर में पुरुष कमाने वाला है तो स्त्री भी क्यों ना कमाएं, घर सँभालने की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ पुरुष पर ही क्यों डाली जाए? क्यों उसे अकेले ही सबका भार उठाना पड़े ? पहले आमदनी का एक जरियाँ होता था खर्चे सीमित होते थे और महंगाई भी कम थी, पर आज के माहौल में सब कुछ बदल चुका है, घर की स्त्री अगर सक्षम है तो वह आर्थिक रूप से घर की जिम्मेदारियों को उठाने में पुरुष का साथ क्यों नहीं दे सकती?
इससे उसके परिवार का जीवन और भी सरल हो जाएगा और इस महंगाई के समय में आर्थिक रूप से संतुलन बना रहेगा ,बहुत सी महिलाओं को अपने जीवन काल में या उनके पति से अलग होने के कारण अकेले अपना जीवन जीना पड़ता है, अकेले अपनी आर्थिक स्थिति को उन्हें संभालना पड़ता है, तब उन्हें जीवन में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, ऐसी परिस्थिति में महिला शक्तिहीन हो जाती है और अपने परिवार का भरण पोषण करना उसके लिए मुमकिन नहीं हो पाता, असहाय स्त्री को फिर यही पुरुष समाज शोषित करने लगता है, इन परिस्थितियों से निपटने का एक मात्र उपाय है लड़कियों की शिक्षा और उनकी आत्मनिर्भरता,
औरत नौकरी करेगी तो एक बाहरी बडे 'स्पेस' से उसका साक्षात्कार होगा,अपने को ढूंढने के लिए जब तक वह चेतती है, समय उसे पीछे धकेलकर बहुत आगे बढ़ चुका होता है,जीवन के अन्तिम चरण में कभी भी उसे पति ताना दे सकता है कि वह तीस सालों से उसे दो वक्त की रोटी दे रहा है और सड़क पर उतर कर वह रोटी कमाकर तो दिखाए,
आखिर औरत ने जान लिया कि भिक्षापात्र हाथ में थामे बंधुआ मजदूर के दर्जे से उसे ऊपर उठना है,अदम्य जिजीविषा और अनथक श्रम से सराबोर औरत ने अपना दुर्गा रूप दिखाया-दो हाथ की जगह जिसके दस हाथ हैं, सुबह मुंह अंधेरे उठकर सुबह का नाश्ता बनाकर दोपहर का टिफ़िन लेकर, रात के लिए खाने की पूरी तैयारी कर वह नौकरी के लिए निकलती है,नौकरी से लौटते हुए एक हाथ में परीक्षा की कॉपियों के बंडल के साथ रास्ते से सब्जी भाजी खरीदते हुए वज़नी झोला कंधे पर लादे वह घर आती है और आते ही बगैर माथे पर एक शिकन डाले फिर रसोई में जुट जाती हैं।
आत्मनिर्भर होना या घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने में सहायक होना उसे आत्मसम्मान से जीना और अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी रखना भी सिखाता है,
स्वतंत्रता कहें, मुक्ति कहें या सशक्तीकरण कहें, सब का स्रोत और आधार मस्तिष्क है, यह नारी को निश्चित करना है कि वह क्या चाहती है? मन-मस्तिष्क का सशक्तीकरण या गुड़िया बने रहने का अभिशाप,नारी को बराबरी के अधिकार मिलने से एवं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होेने से समाज में स्त्रियों की स्थिति मजबूत होगी, नारियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता को पुरुष चुनौती के रूप में नहीं, बल्कि समानता के नजरिए से देखेंगे तो आपस में प्रेम और विश्वास बढ़ेगा एवं सम्मान पर आधारित रिश्ते बन सकेंगे, इसलिए समाज और देश की तरक्की के लिए स्त्री का आत्मनिर्भर होना अति आवश्यक है।।
समाप्त....
सरोज वर्मा....