ये मेरे बचपन की बात है,तब मैं अपनी नानी के यहाँ कभी कभार जाती थीं, उस समय के गाँव और अब के गाँव में बहुत फर्क हैं, लगभग तीस साल पहले की बात होगी, उस समय ज्यादा समझ तो थी नहीं दुनिया दारी की लेकिन लोगों को देखकर उनकी बातों का मतल़ब थोड़ा थोड़ा समझ आ ही जाता था।
तो नानी के ही पड़ोस में एक परिवार रहा करता था,उनकी बड़ी बहु इतनी सुघड़ और काम काज मे इतनी चतुर की मुहल्ले पड़ोस के लोग अपनी बहुओं को उसका उदाहरण देते नहीं थकते,देखने मे इतनी सुन्दर की चाँद भी शरमा जाए,दो बच्चों के बाद भी उसकी सुन्दरता में कोई कमी नहीं आई थी,बहु इतनी सुन्दर थी और अपने मायके मे इकलौती लड़की थी तो उसके माँ बाप ने उसका नाम प्यार से राजाबेटी रखा था और उस समय ऐसे ही नाम रखे जाते थे।
चाहे कोई भी ऋतु हो,बेचारी सुबह के तीसरे पहर से उठ जाती,पहले चकरी मे आटा पीसती फिर कुएँ से पानी भरकर लाती,फिर जानवरोँ का दाना पानी करके,गोबर उठाकर खलिहान मे ले जाकर कंडे पाथती,फिर स्नान ध्यान करके चूल्हे मे लग जाती ,वहाँ से रीतती तो खेत पर खाना देने जाती,ऊपर से तीन देवर और दो ननदो को भी सम्भालती,बच्चे तो दादी देख लेती।
लेकिन उस पर भी उसकी सास पानकुँवर उससे खुश नहीं थीं, हमसे यही ताना मारती रहती,कुछ नहीं सिखाया माँ बाप ने,ठग लिया इसके बाप,मेरा हीरे जैसा बेटा,ये कहीं से भी मेरे बेटे के लायक नहीं हैं।
और पानकुँवर ना तो खुद सुन्दर थी और ना उसके बेटे,ना कोई व्यवहारदारी आती और ना बड़ो का सम्मान करना,खूब अनाप सनाप की जमीन थी तो खेतीं खूब होती तो बेटे बस खाकर पड़े रहते,ना कभी कोई काम ना काज,बाप सारी खेती सम्भालता था और मजदूर भी रखें थे क्योंकि पानकुँवर को पसन्द नहीं था कि उसके चारों बेटे धूप मे काम करें।
घर का काम बहु के जिम्मे था और बेटो की शादी तो हो गई थी लेकिन गौना नहीं हुआ था,बेटियाँ भी कोई भी हाथ ना बँटाती भौजाई का।
और पानकुँवर देवी को इस बात का बहुत घमंड था कि मेरे चार चार बेटे हैं खानदान मे अभी तक मेरे जैसे कोई भी चार चार बेटोँ की माँ नहीं हुई लेकिन जो भी हो बेचारी राजाबेटी का जीवन दूभर हो चुका था सास के ताने सुन सुनकर, इतनी कोशिश करती सास को खुश रखने की लेकिन पानकुँवर का मुँह ही बना रहता।
राजाबेटी के द्वार से कोई साधु,भिक्षु खाली हाथ ना लौटता लेकिन जब पानकुँवर देवी घर मे होती तो मजाल हैं कि किसी को एक लोटा जल भी मिल जाए,राजाबेटी माँ बाप से कहती तो वे कहते कि तेरा भाग्य हैं बेटा ! ससुराल हैं सब सहना पड़ता हैं अब यहीं तेरा घर हैं, तेरी अर्थी भी यही से निकलेगी, पता नहीं मायके वाले बेटी को गलत सहने की सलाह क्यों देते हैं।
बेचारी राजाबेटी बारह साल से सब सह रही थी,लेकिन चूँ ना करती और कभी कभी पानकुँवर अपने बेटे से चुँगली लगा देती तो राजाबेटी को बेरहमी के साथ पीट भी दिया जाता था।
लेकिन राजाबेटी ने ना कभी पति और ना कभी सास को कभी भी कुछ गलत नहीं कहा,मुहल्ले पड़ोस के लोग देखते और सुनते तो कहते कि ऐसी लक्ष्मी जैसी बहु मिली हैं इसलिए कदर नहीं है, आते ही चूल्हा अलग कर लेती तब पता चलता,गूँगी बहु मिली हैं, बोलने वाली होती तो अब तक सबको ठिकाने लगा चुकीं होती।
फिर एक दिन पानकुँवर के बगल वाले घर में कुछ शोर सुनाई दिया,सब घरों से बाहर आ गए, पता चला कि उनकी बेटी ससुराल नहीं जाना चाहती, ससुराल वालों से तंग आ चुकी हैं फिर भी उसे जबर्दस्ती ससुराल भेजा जा रहा हैं और सब लड़की को समझाने में लगें थे कि वो ही तुम्हारा घर हैं यहाँ कब तक बनी रहोगी और लड़की चीख चीख कर कह रही थीं कि वो नहीं जाएगी,कुछ देर तमाशा यूं ही चलता रहा लेकिन उस लड़की की मदद करने सामने कोई नहीं आया।
अब राजाबेटी से सहन ना हुआ और घूँघट ओढ़कर वो द्वार पर निकल आई,लड़की फिर चिल्लाई अब इस बार राजाबेटी ने अपना घूँघट ऊपर किया उस लड़की का हाथ थामा और बोली अब जिसकी हिम्मत हैं वो इसे ससुराल भेजकर दिखाएं और पास में खड़े एक बुजुर्ग की लाठी भी छीनकर अपने हाथ मे ले ली।
अब पानकुँवर का गुस्सा साँतवें आसमान पर और बहु को धमकाने लगी___
लेकिन राजाबेटी तो अब झाँसी की रानी बन चुकी थी जो लताड़ा सास को कि वो उसका मुँह ही देखते रह गई, वो बोली___
अच्छा! तो ठग लिया मेरे बाप ने,कुछ नहीं सिखाया मेरे बाप ने,तुमने अपने बेंटों को देखा हैं,शुकर करो कि मैने शादी कर ली तुम्हारे बेटे से,तुम अपने बेटो को हीरा कहती हो ना,वे हीरा नहीं हैं ढ़ोर हैं...ढो़र,अरे! इनसे अच्छे तो ढ़ोर भी होते हैं कम से कम जुगाली करते हैं, तालाब पर नहा आते हैं, जंगलों में घूमते हैं और एक तुम्हारे बेटे हैं ना कोई शील हैं और ना कोई संस्कार,तुम्हारे द्वार से साधु महात्मा भूखे ही लौट जाते हैं, यही तो सिखाया हैं तुमनें अपने बेटों को क्योंकि तुम ने तो दान धरम सीखा ही नहीं तो वो क्यों सीखेगें, तभी राजाबेटी का पति आकर बोला___
क्यों बहुत बोलने लगी हैं जुबान आ गई हैं मुँह मेंं।
राजाबेटी बोली, हाँ, आ गई हैं, मैं गूँगी थी नहीं बना दी गई,जितना काम मै तुम्हारे यहाँ करती हूँ कहीं और करती तो ना जाने कितना कमा लेती लेकिन मुझे लगता था कि ये मेरा घर हैं इसलिए कर रही थी और जिसे भी जो करना है कर ले लेकिन मै इस इस लड़की को ससुराल नहीं जाने दूँगी और राजाबेटी उस लड़की का हाथ पकड़ कर मंदिर की धर्मशाला की ओर चल पड़ी,धर्मशाला मे रहने लगी,बहुत मेहनत की और कुछ इसी तरह की लड़कियों को इकट्ठा कर बाँस के पंखे,सूप,डलिया,बनाने लगी ,फिर धीरे धीरे एक छोटा सा कुटीर उद्योग लगा लिया, अब राजाबेटी बहुत बूढ़ी हो चुकी हैं लेकिन उसका बहुत नाम हैं, उसने सही समय पर सही फैसला लिया और दूसरों को भी सहारा दिया।
समाप्त.....
सरोज वर्मा....