*सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य का जीवन संस्कारों से बना होता है इसी को ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वजों ने मनुष्य के लिए सोलह संस्कारों का विधान बताया है | गर्भकाल से लेकर मृत्यु तक इन संस्कारों को मनुष्य स्वयं में समाहित करते हुए दिव्य जीवन जीता है | इन्हीं संस्कारों में मनुष्य के लिए प्रमुख संस्कार है विवाह संस्कार | विवाह संस्कार संपन्न होने के बाद मनुष्य के जीवन की दिशा एवं दशा परिवर्तित होने लगती है | पूर्वकाल में विवाह का जो विधान बतलाया गया है उसके अनुसार बारातियों के स्वागत के लिए कन्या का पिता पूरे गांव से सहयोग लेकर के चारपाई एवं बिछौने की व्यवस्था करके बहुत ही प्रमुदित हृदय से पूरे गांव के साथ बारातियों के आने की प्रतीक्षा करता था | गांव में किसी के यहां बारात आनी होती थी तो पूरा गांव बिना बुलाए सहयोग करने के लिए उपस्थित रहता था | वह बारात किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि पूरे गांव के सम्मान का प्रश्न बन जाती थी , इसलिए गांव का प्रत्येक व्यक्ति समर्पित भाव से बारातियों की सेवा में लगा रहता था साथ ही यह भी ध्यान रखता था कि किसी भी सामग्री के अभाव में विवाह कार्य बाधित ना हो और ना ही हमारे गांव का असम्मान होने पाये | आपसी कटुता एवं मनमुटाव को भूलकर लोग एक दूसरे के प्रति ऐसे अवसरों पर समर्पित हो जाया करते थे परंतु अब शायद ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता है |*
*आज आधुनिकता का रंग शहरों के साथ-साथ गांवों पर भी चढ़ने लगा है | जहां पूर्वकाल में बारातियों की स्वागत की भव्य तैयारी करके आगमन की प्रतीक्षा होती थी वही आज सब कुछ विपरीत हो गया है | आज न तो चारपाई की आवश्यकता होती है ना ही बिछौ़ने की | सारे बाराती खड़े-खड़े आते हैं , खड़े-खड़े खाते हैं और खड़े-खड़े चले जाते हैं | आज गांव की तो बात छोड़ो परिवार के भी लोग ना तो कोई सहयोग करना चाहते हैं और ना ही कोई कार्य करना चाहते हैं | इसका कारण मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जहां तक समझ पा रहा हूं उसके अनुसार मात्र आधुनिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | आज चकाचौंध कर देने वाली भव्यता में तो हजार गुना वृद्धि हो गई है परंतु पहले का वह विधान कहीं भी देखने को नहीं मिलता है , यही कारण है कि आपसी प्रेम नहीं प्रकट हो पाता और बाराती एवं घराती एक दूसरे को ढंग से पहचान भी नहीं पाते हैं | हमने आज विकास तो बहुत कर लिया है , बहुत से नए ज्ञान विज्ञान प्राप्त कर लिए हैं परंतु इसके विपरीत हमने अपनी सनातन परंपराओं को खोया भी है | कहना गलत ना होगा कि आज हम अपने मूल परंपराओं से बिल्कुल पृथक होते चले जा रहे हैं | अनेक विधान ऐसे हैं जिसे आने वाली पीढ़ी जान ही नहीं पाएगी और इसके दोषी हम स्वयं होंगे | बीता हुआ समय वापस नहीं लौटता है परंतु उसे संजोए रखने का कार्य भी करने की आवश्यकता है |*
*आज की भव्यता एवं दिव्यता के आगे अनेकों परंपरायें लुप्त होती जा रही हैं इनके संरक्षण की जिम्मेदारी युवा पीढ़ी के साथ साथ बुजुर्गों की भी है जो कि हमारे मार्गदर्शक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित रहते हैं | इन परंपराओं को बचाए रखना हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है |*