*इस संपूर्ण सृष्टि में जितने भी जड़ चेतन देखने को मिल रहे हैं सब उस परमपिता परमात्मा की सृष्टि कहीं जाती है | कण-कण में परमात्मा का निवास है | संपूर्ण सृष्टि को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले हमारे वेदों ने उस परमपिता परमात्मा के लिए एकोहम् बहुस्याम लिखा है जिसका अर्थ यही होता है कि जब उस परमात्मा की इच्छा हुई तो वह स्वयं एक से अनेकों रूप में परिवर्तित हो गया | इस धरा धाम पर जितने भी जीव जलचर , थलचर , नभचर , फूल - पौधे , वृक्ष , वनस्पतियां , पहाड़ , नदियां अर्थात जो भी सृष्टि में दिखाई पड़ती है वह सब परमात्मा की इच्छा मात्र से निर्मित हुआ या यह सभी परमात्मा के ही दूसरे स्वरूप हैं | स्वयं को परमात्मा ने अनेकों रूप में परिवर्तित किया और इन्हीं सब के बीच एक विचित्र प्राणी की रचना की जिसे मनुष्य कहा गया | मनुष्य परमात्मा का युवराज कहा जाता है | मनुष्य ने परमात्मा के सभी गुणों को स्वयं में आत्मसात करने का प्रयास किया | एक परमात्मा अनेक कैसे हो सकता है इसको भी मनुष्य ने प्रमाणित किया है | अनेकों विषय ऐसे हैं जहां वैज्ञानिकों का सारा प्रयोग विफल हो जाता है तब उस परमात्मा की शक्ति का आभास मनुष्य को होता है | सृष्टि के कण-कण में परमात्मा का दर्शन कराते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :-- "हरि व्यापक सर्वत्र समाना" अर्थात:-- वह ईश्वर समान रूप से सब जगह विद्यमान है इस विषय में तनिक भी संशय नहीं होना चाहिए |*
*आज के युग को आधुनिक युग एवं वैज्ञानिक युग कहा जाता है | परमात्मा का युवराज के जाने वाले मनुष्य ही ईश्वर को नहीं मान रहे हैं | इस संसार में अनेकों लोग ऐसे भी हैं जो ईश्वर की सत्ता को ही नहीं मानना चाहते हैं | यह वही लोग हैं जो अपने जन्मदाता माता-पिता को भी मानने से नकार देते हैं | ईश्वर की व्यापकता को समझना बहुत ही सरल है | जो लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि ईश्वर एक से अनेक कैसे हो गया उन सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ईश्वर के युवराज कहे जाने वाले मनुष्य के एक ही रूप में अनेकता का दर्शन कैसे होता है यह बताना चाहूंगा | एक मनुष्य अपने माता पिता के लिए संतान है , अपनी बहन के लिए भाई के रूप में हैं , वही मनुष्य अपने पत्नी के लिए पति हो जाता है और एक समय ऐसा आता है कि मनुष्य का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है और वह अपनी संतानों के लिए पिता के रूप में सम्मान पाने लगता है | जब एक मनुष्य अपने संपूर्ण जीवन काल में अनेकों रूप धारण करता है तो वह सर्वव्यापी परमात्मा "एकोहम् बहुस्याम्" क्यों नहीं हो सकता ? मानव जीवन दर्शन इतना विस्तृत है कि यदि इसका अध्ययन कर लिया जाए तो कोई भी प्रश्न अनुत्तरित नहीं रह सकता है , परंतु आज हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में स्वयं को सम्मिलित करके उस भीड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं जो ना तो कुछ जानती है और ना ही मानना चाहती है | ईश्वर को तथा उसके भेद को जान पाना इतना सरल कदापि नहीं है |*
*जिस दिन मनुष्य स्वयं को जान जाएगा उस दिन परमात्मा भी उससे दूर नहीं रह जाएगा ! इसलिए सर्वप्रथम मनुष्य को स्वयं का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए |*