कविता की कलम से जाने
कितनी कवितायें निकल गई ।
कागज के पन्नों पर मानो
सपनों सी बिखर गई ।
हर अल्फाज़ एक सवाल लिए,
मुझको जैसे घूर रहा है
ताने दे देकर मुझको
बार- बार ये पूछ रहा है
कलम के कोमल हाथों से
कब तक यूं छुटते रहेंगे
कागज की पोथियों में,
कब तक यूँ घुटते रहेंगे ।
समय घड़ी सी रेत से
कब तक यूँ गिरते रहेंगे
सहमी हुई दीवारों मे
कब तक यूँ सिमटे रहेंगे
शब्द मेरे चिल्ला रहे है
विचलित हो शोर मचा रहे है
बन्द कमरे की घुटन से
मुक्ति पाना चाह रहे है
पाँव की जंजीर तोड
दहलीज लाघना चाह रहे हैं,
बाज सी ऊंचाई लिए
आसमाँ छूना चाह रहे है।
आज गीत बनाले कोई
होठों पे सजाले कोई
कविता की कविता को
आँखों में बसाले कोई।
कविता चौधरी