रास्ता मै भटक गई थी,
गरीब बस्ती मे अटक गई थी।
मुलाकात हुई गरीबी से,
फटे-हाल नसीबी से ।
नजर घुमायी चारो ओर,
गरीबी मचा रही थी शोर।
छोटे-छोटे बच्चे,
मैले कुचैले मुखडे।
हाथ मे थे उनके
सुखी रोटी के टुकडे।
फटे हुये से कपड़े
किस्मत उनकी दिखा रहे थे।
छोटे-छोटे नंगे पावँ
गरीबी से मिलवा रहे थे।
धीरे-धीरे चल रही थी
गरीबी से मिल रही थी।
चलते- चलते तभी अचानक
जाने क्यूँ मै रुक पड़ी।
फटी हुई सी साड़ी मे,
एक स्त्री थी खड़ी ।
दूजी साड़ी हाथ लिये,
सुई धागे से सी रही थी।
गरीबी से बेहाल
दुर्भाग्य को जी रही थी।
थोड़ा आगे और चली
मुझको झोपड़ी एक मिली
फटी हुई सी घर की छत से
सूरज किरणे आती छन के
वही पड़ा था एक बुजुर्ग,
मौत के हुये सुपुर्द
हाय!हाय चिल्ला रहा था
मौत को बुला रहा था।
हाल देख गरीबी का,
मन मेरा घबरा रहा था।
बस्ती से मै निकल आई थी,
पर गरीबी से मिल आई थी।
कविता चौधरी