वो बन्द खिड़की मुझे आज भी कोसती है
मेरी आत्मा को हर पल झिंझोडती है
जहाँ से आती किसी की सिसकियाँ
मेरे कानो को हर पल नोचती है।
वो बन्द खिड़की जिसके पीछे
किसी के दिए संस्कार कराह रहे थे
बूढ़े माँ बाप अपनी ही संतान द्वारा
निर्ममता सेअत्याचार पा रहे थे।
भूखे रह कर जिस औलाद को
अपने हाथों से निवाला खिलाया था
आज उसी अहसान फरामोश ने
उन्हे दाने-दाने को तरसाया था
उस कमरे की बन्द खिडकी के पीछे
फर्श पर पड़े थे सर्द रात मे नीचे
बिना बिस्तर और बिना कपड़ो के
ठिठुरते थे दोनो सर्दी के थपड़ो से
तोड़ दिया दम एक दिन हार के
संतान के दिए एक एक वार से
बस यही गम हर दिन है सताता
काश मै उनके लिये कुछ कर पाता ।
कविता गुज्जर