कविता की सार्थकता
कविता कभी झूठ नहीं बोलती
क्योंकि वह स्वयं झूठ है
एक ऐसा झूठ
जो हमें
‘सत्य’ का दर्शन कराता है
’झूठा’ तो वही होता है न ?
... जो सत्य को जानता है।
अत:-
कविता ‘सत्य’ को जानती है।
हमें पहचानना है, इसी सत्य को
कौन-सा है वह सत्य?
कौन-सा है वह सत्य का अंश?
जो कवितारूपी झूठ के पीछे छिपा है ।
कविता में है समाहित,
कविता करती उसे प्रवाहित ।
खोजती कविता वह पाठक वर्ग,
जो पहचाने उसका सही अर्थ ।
जाने कविता के संदेश को,
उसके जन्म के परिवेश को ।
जब मिल जाता वह पाठक उसे,
जब मिल जाती वह पहचान उसे,
कविता सार्थक हो जाती है ।
वह ‘सत्य’ का दर्शन कराने में सफल हो जाती है ।
हर कविता कहती है-
जैसे मैंने झूठ के आवरण में
’सत्य’ को छिपा रखा था
’सत्य’ को बचा रखा था
मेरे प्रिय पाठक ।
तुम्हारे अंदर भी ‘एक महान सत्य’ छिपा है।
तुम स्वयं एक ‘कविता’ हो।
जरा ध्यान से देखो ,
गौर से निहारो
यह संपूर्ण जगत एक कविता है-
जिसमें छिपा है-
”ईश्वर रुपी सत्य”
उसे खोज निकालो,
उसे पहचान लो।
जब ऐसा हो जायेगा।
ईश्वर की एक महान ‘कविता’
‘सार्थक’ हो जायेगी।