मेरा गाँव, मेरा देश
एक दिन अचानक
मिल गये
रामू काका शहर में,
“ सब ठीक तो है गाँव में ” ?
......पूछा मैने………
अचम्भे से
जन्मजात शहर – विरोधी -
रामू काका
कैसे टहलते शहर में ?
“ क्या बतायें बेटा ”,
कहने लगे दबी जुबान में.......
बच्चों से न रहा जाता अब गाँव में
निरर्थक आकर्षण शहर का
ही अर्थपूर्ण उनके लिये !
अस्वस्थ, अप्राकृतिक रहन-सहन
ही अब उनका तन मन धन !
“ फिर क्या हुआ
गाँव की
घर, जमीन का ?”
अश्रुधारा रोकते हुए
निकले उनके शब्द.....
क्या करता, दे दिये पड़ोसियों को
बायाँ हिस्सा बाँये पड़ोसी को
दाँया हिस्सा दाँये पड़ोसी को
....शायद वे भी यही चाहते थे
रह गया मैं दंग !
एक पल को लगा मुझे
......जैसे कि मैं खड़ा हूँ अमेरिका में,
......और रामू काका आये हैं भारत, मेरे गाँव से
मेरे गाँव, मेरे देश से ।
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