फकीर या फरिश्ता
मैं आज भी
देखती हूँ जब कभी
कोई सुदंर-सा, फलदार वृक्ष।
आ जाते हैं स्मरण
एक नन्हा पौधा
और एक फकीर बरबस।
उस नन्हें–से
सुकोमल पौधे को
मैंने वृक्ष बनते देखा था
अपनी आँखों से उसे
अनेक पतझड़ सहते देखा था।
पौधे के पास था
न देने को कुछ भी
उसको तो चाहिए थे
नित हवा, पानी सब-कुछ ही।
छोड़ रखा था नियति ने
उसे उसी के हाल पे।
एक था फकीर जो
नित सींचा करता था उसे।
इस तरह....
अंतत:
हो गया पौधा
वृक्ष में परिणत
आज वृक्ष देता है
मीठे फल अगणित।
अब तो बारिश का पानी
हवा की नमी ही
हैं पर्याप्त उसके लिए
आवश्यकता देखभाल की न रही।
किंतु आज जग तैयार
करने को सब-कुछ तत्पर
बस, नहीं पता तो उस
गुमनाम फकीर का घर-वर।
वृक्ष को भी शायद
नहीं पता,
या फ़िर वह जग से डरता?
कि-
फकीर रोज आकर
वृक्ष को निहारकर
शायद कुछ जीतकर
और कुछ हारकर
चुपके से लौट जाता था।
और
मेरा मस्तक मन-ही-मन
उस ‘फ़रिश्ते’ के प्रति
श्रद्धा से झुक जाता था।
-आशा त्रिपाठी " क्षमा "
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