आत्मकल्याण के लिए विश्वकल्याण आवश्यक है । विश्वकल्याण के बिना आत्मकल्याण असंभव है । जब मनुष्य केवल अपने लिए ही सभी 'भोगों की चाह रखता है, तो तनाव बढ़ता है, जिसकी विभीषिका आज विश्व भोग रहा है । विश्व के प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताएं समान हैं। देश, क्षेत्र, जाति, भाषा धर्म की दीवारें खींचकर मनुष्य को मनुष्य से अलग नहीं किया जा सकता है । आत्मा हमारा वास्तविक स्वरूप है । उसको जानने के लिए न हमें कहीं जाना है, न ही हमें किसी साधन की आवश्कता है । इस संसार में जो कुछ है वह आत्मा ही है । सारे ब्रह्माण्ड में एक ही ब्रह्म व्याप्त है । सब कुछ उसी से उत्पन्न और उसी में विलीन हो जाता है । जब एक ही ईश्वर जगत का निर्माता है तो विश्व के सभी मानव उसी की कृति हैं । इसी आधार पर हम कहते आए हैं—“वसुधैव कुटुम्बकम्" । वर्तमान समय में विवेकानन्द, दयानंद, महर्षि अरविंद इत्यादि दार्शनिकों ने मानव जीवन की विषमताओं का समाधान खोजा । शांति एवं नीरवता की शक्ति अनंत है । मनुष्य जब अपने ‘मैं’ को जाति, देश, संप्रदाय आदि सीमाओं में बांधकर सोचता है तो स्वयं भी परेशान होता है तथा दूसरों को भी परेशान करता है ।
हमारे ऋषि-मुनियों ने
हजारो वर्ष पहले देखा था कि सारा ब्रह्माण्ड, पृथ्वी, सूर्य, चंद्र, जल, वायु, जड़ चेतना सभी एक शाक्ति
से ओत-प्रोत हैं, जड़-तत्व और कुछ नहीं, बल्कि चेतन का निश्चेतन रूप है । सृष्टि की सारी प्रणाली, सारी योजना इसी चेतना का क्रमश: उद्घाटन है । आइंस्टइन, हॉइजनबर्ग-- जैसे वैज्ञानिकों ने इस सत्य को माना है । "ईशावास्यमिदं सर्वम्" । इति ।
ब्रह्मा
विश्व का एकमात्र सत्य है । मैं ब्रह्म हूँ, ब्रह्म सर्वत्र है । अथर्ववेद में एक मंत्र है- मन से एक बनो, विचार से एक बनो । मन से एक होना समाज की समरसता का सार है । सनातनी, "मैं ब्रह्म हूं", “ब्रह्म सर्वत्र है”, "अहम् ब्रह्मास्मि" कहेंगें । मुस्लिम "मसूर अनहलक” कहेंगें । ईसाई "मैं और मेरे पिता एक हैं" कहेंगे । बौद्ध धर्म का “शून्य” ब्रह्मा ही है । वास्तव में धर्म का मुख्य तत्व उसका बाह्चार नहीं, बल्कि वह अंश है जिससे मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार करता है । भारतींय दर्शन, जीवन की व्याख्या करता है, जबकि पाश्चात्य दर्शन, तत्वों की । "द्रव्य और शक्ति एक है", अब यह एक वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तथ्य है । अत: समष्टि का कल्याण व्यक्ति के माध्यम से ही होगा । 'अहम्' के दायरे से निकलना होगा । विज्ञान के ट्टारा हमें बाहयजगत का और आध्यातम के द्वरा अंतर्जगत का ज्ञान पाप्त होता है । किन्तु संभवत: विज्ञान अपने उत्कर्ष की चकाचौंध में यह भूल गया था कि मानव कार्य सिद्धि के लिए भले ही अनेक उपयुक्त साधनों की खोज करता रहा है लेकिन एक भी साधन स्वयं मनुष्य के समान नहीं है-"मानवतुल्यं नैकमपि साधनम्" मानव परम पुरूषार्थ है । व्यास जी ने भी कहा है--- "नहि श्रेष्ठतरं किंचित मानुषात् ।" भारतीय अध्यात्म की विशिष्ट प्रतिभा को वैज्ञानिक दृष्टि के उजागर करना आवश्यक है । भारतीय अध्यात्म की मुख्य विशेषता है कि 'मन' को मुक्त करें । आइंस्टाइन के अनुसार … “विज्ञान के बिना अध्यात्म पगु है, तो अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है विज्ञान और अध्यात्म की समन्वय साधना ही मानव-साधना का पर्याय होगी । 'भारतीय दर्शन को एक अत्यंत विकसित वैज्ञानिक दर्शन कहा जा सकता है । दुनियाभर के तमाम वैज्ञानिक अपने नूतन परीक्षणों से जो परिणाम प्राप्त कर रहै हैं उनमें" से अधिकांश हमारे ग्रंथों में समाहित हैं ।मैं (अहम्) की जगह
'हम' (वयम्) को लाना होगा । इसी को 'सर्वान्मुक्ति’,'बोधिसत्व' या 'सामूहिक मुक्ति' की कल्पना कहते हैं।
निष्कर्ष यह है कि 'अहम्' के त्याग एवं 'वयम' की आर प्रयाण से ही परिवार, संगठन, समाज एवं विश्व कल्याण संभव है न कि 'अहम' के पोषण से, फिर वह चाहे किसी भी रूप में कयों न हो ।
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