भटकता है हर दिन इनसान
शून्य से अनंत तक,
खोजता अपने अस्तित्व को
जन्म से लेकर अंत तक।
अपनाए उसने कौन से न रूप
सधु, संत, महंत तक,
खोजते- खोजते पहुँच गया वह,
राजा, प्रजा और रंक तक।
अपने अंदर जब झाँका वह,
आकाश की और जब ताका वह,
पहचाना अपनी रिक्तता वह,
सारी संभावनाओं के अंत तक।
निष्कर्ष रहा उसका आज तक,
शून्य ही शून्य है अनंत तका
अनंत है शून्य के अंत तक,
दो ही हैं किनारे दिगंत तक।
व्यर्थ है मिथ्या समय गँवाना,
ग्रंथों, मंदिरों या संतों तक।
सार तो वह एक ही पाता है,
गीता दर्शन वेदांत तक।