आज हिन्दी मात्र एक देश (भारत) की ही भाषा नहीं है, यह एक अंतरराष्ट्रीय अनुशासन और मानवीय समरसता की भाषा भी है । विश्व-भर में भाषा संबंधी जानकारी देने वाली सर्वाधिक विश्वस्त पुस्तक एथेनेलॉग के ताजा संस्करण के अनुसार संसार में इस समय ६९१२ भाषाएँ बोली जाती हैं । न्यूयार्क में किए गए भाषा संबंधी ताजा अध्ययन- वाइटल साइन रिपोर्ट में कहा गया है कि इक्कीसवी शताब्दी के अंत तक इनमें से ९० प्रतिशत भाषाओं के अपने मूल को खो देने की आशंका है। अनेकानेक अपरिहार्य कारणों से लोग स्वत: अपनी भाषाओं से दूर होते जा रहे हैं और एक दिन इन्हें सर्वथा भूल जाएँगे। ज्ञातव्य है कि जो १० प्रतिशत भाषाँए बचेंगी, उनमें हिंदी तो होगी ही। आज भारत के जनगणना - आयुक्त की ताजा रपट के अनुसार हिंदी छियालीस बोलियों का परिवार है।
यदि थोड़ी देर के लिए विश्व में हिंदी के भावी स्थान की बात छोड़कर उसकी वर्तमान स्थिति-गति और महत्ता पर ही नजर दौड़ाएँ, तो हमारे सामने बेहद उत्साहवर्धक आँकड़े उपस्थित होते हैं। उदाहरणार्थ - विश्व के १८० देशों में हिंदी की स्वर-लहरियाँ, देशी-विदेशी लोगों के बीच भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रति अपनत्व-भाव जगा रही हैं। यह बात दूसरी है कि युनेस्को की नौ भाषाओं (अरबी, अंग्रेजी, चीनी, फ्रेंच, रूसी, स्पेनिश, हिंदी, इतालवी, पुर्तगाली) में सम्मिलित होते हुए भी हमारी अपनी सरकारी उपेक्षा के कारण वह अभी तक संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक छह भाषाओं ( चीनी,स्पेनिश, अंग्रेजी, अरबी, रूसी, फ्रेंच) में अपना नाम जुड़वाने का गौरव नहीं प्राप्त कर सकी है। विश्व के समस्त हिंदी प्रेमियों की बस यही सत्कामना है कि हिंदी को येन केन प्रकारेण शीघ्रातिशीघ्र संयुक्त राष्ट्रसंघ में आधिकारिक भाषा के रूप में स्थायी मान्यता मिल जाए।
संविधान सभा में 14 सितंबर 1949 को संघ की राजभाषा के रूप में देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी को अंगीकार किया गया था । स्वतंत्रता के समय विश्व में भाषाओं के प्रयोक्ताओं की संख्या के आधार पर हिंदी पाँचवे स्थान पर थी। चीनी, अंग्रेजी, रूसी एवं स्पेनिश भाषाएँ हिंदी से आगे थीं। सन् 1980 तक आते-आते हिंदी के प्रयोक्ताओं की संख्या बढ़ी तथा चीनी और अंग्रेजी के पश्चात हिंदी तीसरे स्थान पर आ गई। सन् 2000 तक हिंदी अंग्रेजी को पीछे छोड़कर दूसरे स्थान पर आ गई । चीनी प्रथम स्थान पर बनी रही। हिंदी जगत ने विश्व जनगणना के आँकड़े देकर यह सिद्ध किया है कि यदि हिंदी जानने वालों में उर्दू जानने वालों की संख्या को जोड़ लिया जाए, तो हिंदी प्रयोक्ताओं की संख्या चीनी की तुलना में कहीं अधिक हो जाएगी।
भारत से बाहर भी हिंदी भाषा का प्रचार- प्रसार आशातीत है, जो हिंदी भाषा की सतत प्रवाहकता का समर्थक है। एक वे देश हैं जहाँ भारतीय मूल के लोग बसे हुए हैं- मारीशस, सूरीनाम, फीजी, त्रिनिदाद, गयाना आदि, जहाँ आज भी भोजपुरी के पुटवाली हिंदी का प्रयोग मिल जाता है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, कनाडा, मलाया, सिंगापुर आदि में प्रवासी भारतीयों ने धार्मिक कार्यकलापों एवं अन्य रीति- रिवाजों के लिए हिंदी भाषा का प्रयोग बनाए रखा है।
भारत की राजभाषा , राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा से आगे बढ़कर विश्ब भाषा बनने की ओर अग्रसर है ।
· ‘एनाकार्टा एनसाइक्लोपीडिया’ के अनुसार चीनी भाषा के बाद संसार में प्रयुक्त होने वाली सबसे बड़ी भाषा हिंदी है।
· एक चैनल द्वारा प्रस्तुत सर्वेक्षण के अनुसार, भारत के अतिरिक्त विश्व में हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या लगभग ८० करोड़ है।
· विश्व के १३२ देशों में जा बसे भारतीय मूल के लगभग ०२ करोड़ लोग हिंदी-माध्यम से ही अपना कार्य निष्पादित करते हैं।
· भारत के अतिरिक्त लगभग १७५ विदेशी विश्वविद्यालयों मे हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण के कार्यक्रम और शोध-कार्य सुचारू रूप से चल रहे हैं। अकेले अमेरिका के ही लगभग ७० विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन-अध्यापन की सुविधाएँ दी जा रही हैं।
· ताजा सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग ०७ लाख अमेरिकी नियमित रूप से हिंदी बोलते हैं । टीवी-चैनल इस सुविधा में और वृद्धि कर रहे हैं। अब तो अमेरिका के स्कूली पाठ्यक्रम में ४८० पृष्ठों पर आधारित ‘नमस्ते जी’ नामक हिंदी- पाठ्यपुस्तक को सम्मिलित कर लिया गया है, जिसे एक भारतवंशी शिक्षक ने आठ वर्षों के कठिन परिश्रम से तैयार किया है ।
आपको यह तो याद होगा ही कि अमेरिका से भारत दौरे पर आए माइक्रोसॉफ्ट के प्रमुख बिल गेट्स ने हिंदी के वैश्विक महत्व को स्वीकार करते हुए मुंबई में कहा था कि ‘भारत को हिंदी सॉफ्टवेयर की आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु हमारा माइक्रोसॉफ्ट तैयार है ।‘ इसी क्रम में राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपने पहले चुनावी घोषणापत्र की प्रतियाँ अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी छपवाकर वितरित करवाई थीं।
इतना सब कुछ होते हुए भी हिंदी को वैश्विक स्तर पर वै ज्ञान िक,औद्योगिक भाषा के रूप में मान्यता दिलवाने की दिशा में तत्काल अनेक ठोस एवं सार्थक कदम उठाए जाने अनिवार्य हैं। सर्वप्रथम हिंदी भाषियों की भाषागत कुंठा को समाप्त करने के लिए निरंतर विचार-विनिमय करते रहना होगा। मानविकी, समाजशास्त्र, वाणिज्य, प्रबंधन, विधि, विज्ञान और तकनीकी की स्तरीय पुस्तकें लिखवानी-छपवानी होंगी तथा इस क्षेत्र में उपलब्ध समस्त साहित्य को हिन्दी में लगातार अनूदित करते रहकर उसे इंटरनेट पर भी उपलब्ध कराना होगा।
प्रख्यात गीतकार गुलजार ने भी लिखा है कि जिस भाषा के साथ जो संस्कृति जुड़ी है उसे नहीं भूलना चाहिए । संस्कृति का अनुवाद नहीं होता। आप किसी फूल को किसी अन्य फूल के साथ रोप कर एक नया पौधा बना सकते हैं, पर आप खुशबू नहीं रोप सकते। खुशबू का अनुवाद नहीं हो सकता। इसी तरह संस्कृति हमारी जड़ों में बसती है। आपको विदेशी माँ का रेशमी आंचल चाहिए या अपनी माँ का सादा आंचल ? किसी शायर ने इस संदर्भ में खूब लिखा है- “अगर धूल है परदेशी, तो मत छूना बेवफा को। वतन के हैं अगर काँटे, तो सीने से लगा लेना ।“
जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने जनवरी २००६ में यह घोषणा की थी कि अरबी, हिंदी, उर्दू जैसी भाषाओं के लिए अमेरिकी शिक्षा में विशेष बल दिया जाएगा, और इन भाषाओं के लिए अलग से धन भी आरक्षित किया गया तो यह समाचार सारे संसार में आग की तरह फैल गया था। यहाँ तक कि फरवरी २००७ को भी “डिस्कवर लैंग्वेजेस महीना” घोषित किया गया।
अमेरिका में हिंदी इतना आगे नहीं बढ़ पा रही जितना दूसरी भाषाएँ इस सकारात्मक वातावरण का लाभ उठा रही हैं। हम यहाँ हिंदी की तुलना चीनी, जापानी और अरबी से करेंगे। एक तो यह कि अमेरिका स्थित उनके प्रवासी समाजों में अपनी भाषा के प्रति बहुत उत्साह है और दूसरा बड़ा कारण है सुनियोजित ढंग से अपनी भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन देशों की सरकारों का बौद्दधिक, भावनात्मक और आर्थिक समर्थन । इसके अलावा न्यूयार्क में एशिया इंस्टीट्यूट में चीनी भाषा की पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए एक विशेष विभाग है। इसी प्रकार अमेरिका में कॉलेज बोर्ड नाम की एक गैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्था है जो सब विद्यार्थियों की कॉलेज की पढ़ाई के लिए सहायता प्रदान करती है। यहाँ चीनी भाषा को अमरीका के शिक्षा-क्षेत्र में फैलाने के लिए तीन विशिष्ट कार्यक्रम हैं – कनफ्यूशस और चाइनीज प्रोग्राम, गेस्ट टीचर प्रोग्राम और चाइनीज ब्रिज डेलिगेशन । इस कार्यक्रम के तहत सैंकड़ों शिक्षक चीन से हर साल अमेरिका लाए जाते हैं। ये कुछ बड़े - बड़े उदाहरण हैं।
द जापान फाऊंडेशन । इसके अधीन द जैपनीज लैंगवेज इंस्टीट्यूट एक विस्तृत विश्व-व्यापी कार्यक्रम है। इसका बजट भी बहुत बड़ा है और जापानी संस्कृति और भाषा का शैक्षिक क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार इसका लक्ष्य है।
इन सब देशों की तुलना में भारत अपनी भाषा के प्रति उदासीन है। लड़खड़ाती अंग्रेजी के मोह ने भारतीय जन-मानस को जकड़ रखा है और यही कारण लगता है कि भारतीय भाषाओं का शिक्षण-प्रशिक्षण भारत में भी कमजोर है और दूसरे देशों मे भी। आज की सबसे बड़ी समाज-सेवा यह है कि हम अपनी देशी भाषाओं की ओर मुडें । हमें अपनी सभी प्रादेशिक कार्यवाहियाँ अपनी-अपनी भाषाओं में चलानी चाहिए तथा हमारी राष्ट्रीय कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए।
यह बात बहुत बारीकी से समझने की है कि हर शब्द अपने साथ एक ऐतिहासिक स्मृति का संसार भी लिए चलता है। उसके साथ छवि होती है, हमारी कथाएँ होती है। भावनाएँ भी होती है। माँ या मदर एक ही अर्थ वाले दो शब्द हैं, लेकिन दोनों की छवियाँ अलग-अलग हैं। समाज, राष्ट्र, धर्म या ऐसे ढेर सारे दूसरे शब्द हैं, जो अपनी स्मृति की संपदा भी अपने साथ लिए चलते हैं। इसे अस्वीकार कर हम इनके साथ जुड़ी एक पूरी स्मृति और संस्कृति को भी बेदखल करते हैं। माँ और पिता में जो ममत्व है, क्या वह मम्मी और डैडी में है ? ‘बेटा’ और ‘बेटी’ में जो अपनत्व है, वह क्या सन और डॉटर में है?
सोशल मीडिया का द्वार और हिंदी का ज्वार
२०१४ मे हार्पर कालिंस पब्लिशर्स इंडिया से पुस्तक आई है ‘सोशल मीडिया: संर्पक क्रांति का कल, आज और कल’। यह बात कही जा सकती है कि टीवी क्रांति के दौर में जो पाठक हिंदी से जुदा हो गया था सोशल मीडिया ने उसकी वापसी की है। लेख कों के बीच आपसी संवाद न के बराबर रह गया था, पत्र-पत्रिकाओं के बारे में जानकारी मुहैया करवाने का कोई जरिया नहीं रह गया था। आज हिंदी के अधिकतर सक्रिय लेखक सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं । वे सचमुच में अपने पाठकों से संवाद कर पा रहे हैं।
ऑनलाइन पुस्तकों के बाजार ने हिंदी के नए प्रकाशकों को जोखिम उठाने के लिए प्रोत्साहित किया है । एक और तकनीकी क्रांति है जिससे हिंदी को जोड़ने की कवायद बड़ी तेजी से चल रही है- ईबुक क्रांति । ईबुक ने अमेरिका, यूरोप में किताबों की दुनिया को किताबों को पढने के तौर-तरीकों को और किताबों के बाजार को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है। पुस्तक की दुकानें एक-एक कर बंद होती जा रही हैं जबकि किंडल ईबुक रीडर जैसे उपकरणों के माध्यम से पुस्तकें कम कीमत में पाठकों के पास पहुंचती जा रही हैं। आज हिंदी में सबसे लोकप्रिय न्यूजहंट नामक वह ऐप है जो एंड्रायड फोन के प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है। इसके ऊपर हर तरह की हिंदी पुस्तकें उपलब्ध हैं और पाठकों में इसकी लोकप्रियता भी बढ़ रही है ।
अब इन सुविधाओं और तकनीकी क्षमताओं के प्रयोग का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। कंप्यूटर, स्मार्टफोन और इंटरनेट पर हिंदी का प्रयोग बढ़ा है, क्योंकि सुविधा उपलब्ध हो जाने पर लोग उनका प्रयोग करने लगते हैं । बहुत से लोग अंग्रेजी का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि हिंदी में स्वयं को अभिव्यक्त करने की सुविधा नहीं थी या फिर वे खुद इसमें तकनीकी लिहाज से सक्षम नहीं थे । यह बाधा हट जाने के सकारात्मक परिणाम दिख रहे हैं। हिंदी में एसएमएस, ईमेल, सोशल नेटवर्किंग, इंटरनेट खोज, समाचार वेबसाइटों, यू-टयूब के हिंदी वीडियो, ब्लॉगों आदि का इस्तेमाल हो रहा है। हिंदी में काम करने के लिए खास किस्म के सॉफ्टवेयर खरीदने की अनिवार्यता खत्म हो जाने से दफ्तरों के कामकाज में भी हिंदी की स्थिति सुधरी है। जो स्वयं टाइप नहीं कर सकते वे कॉपी-पेस्ट कर यदा-कदा हिंदी में संदेश भेजने लगे हैं। तकनीक ने हिंदी का प्रचलन और प्रयोग बढ़ाने में योगदान दिया है, खासकर ब्लॉगिंग, सोशल नेटवर्किंग और सोशल मैसेजिंग प्लेटफॉर्मों ने, क्योंकि मित्रों और रिश्तेदारों के साथ अपनी भाषा में बात करने का आनंद ही कुछ और है।
तकनीकी विश्व में हिंदी की बहार दिखाई देती है- सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग में। इनमें से पहला माध्यम चढ़ाव पर तो दूसरे में ठहराव है। जिस अंदाज में हिंदी विश्व ने फेसबुक को अपनाया है, वह अद्भुत है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों को भूल जाइए, लखनऊ, पटना और जयपुर जैसी राजधानियों को भी भूल जाइए, छोटे-छोटे गांवों और कस्बों तक के युवा, बुजुर्ग, बच्चे फेसबुक पर हैं और बातें कर रहे हैं - हिंदी में। व्हाट्सऐप ने पिछले एक-डेढ़ साल में तेजी से लोकप्रियता हासिल की है। सुखद है कि वहां भी हिंदी को लेकर कोई बाधा नहीं है।
आज हम हिंदी के विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह कहते नहीं थकते कि हिंदी विश्व में चीनी भाषा ‘मंदारिन’ के बाद दूसरे नंबर पर बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है और सम्भवत: यह शायद विश्व में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है, किन्तु आज हिंदी के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि हिंदी बोली तो खूब जा रही है, लेकिन लिखी नहीं जा रही। नवयुवक हिंदी बोल रहे हैं। सिनेमा के सारे संवाद हिंदी में होते हैं, किंतु जब लिखने की बात आती है तो रोमन में लिखने लगते हैं। गांवों तक मे शादी विवाहों के निमंत्रण पत्र अंग्रेजी में छापे जाते हैं, प्रशन उठता है कि क्या हम हिंदी को रोमनीकरण की ओर नहीं धकेल रहे हैं ?
आज सूचना और प्रौद्योगिकी का युग है। इस क्षेत्र में देवनागरी लिपि ने अपनी श्रेष्ठता और वैज्ञानिकता विश्व के सामने सिद्ध कर दी है और इस लिपि को ही कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त माना है। ‘नासा’ के प्रसिद्ध वैज्ञानिक रिक व्रिग्स ने तो १९८५ के अपने लेख में यह घोषित ही कर दिया था कि संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि कंप्यूटर की तकनीकी की दृष्टि से आदर्श लिपि है अर्थात् देवनागरी विशुद्ध रूप से आधुनिक ध्वन्यात्मक लिप्यंतरण के अनुकूल है। व्यूलर, हार्नले, हुक्स, मैक्डानल, थॉमस तथा आइजेक टेलर जैसे विश्व के अनेक विद्वानों ने नागरी लिपि की वैज्ञानिकता की प्रशंसा की है। स्वर विज्ञान के अनुसंधानकर्ता आइजेक पिटमेन लिखते है कि ‘संसार में यदि कोई पूर्ण अक्षर है तो देवनागरी के हैं। प्रो. मोनियर विलियम्स ने कहा था देवनागरी अक्षरों से बढ़कर पूर्ण और उत्तम अक्षर दूसरे नहीं हैं। जॉन क्राइस्ट तो यहां तक कहते हैं कि मानव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमाला नागरी सबसे पूर्ण वर्णमाला है। सर विलियम जोन्स जो मूलत: रोमन लिपि के पक्षधर थे, नागरी को रोमन की अपेक्षा श्रेष्ठ बताते हुए कहते हैं ‘हमारी भाषा अंग्रेजी की वर्णमाला तथा वर्तनी अवैज्ञानिक तथा किसी रूप में हास्यास्पद भी है’ ।
डॉ. आर्थर मैक्डॉनल ने संस्कृत साहित्य के इतिहास में लिखा है कि ४०० ई. पूर्ण में पाणिनी के समय भारत ने लिपि को वैज्ञानिकता से समृद्ध कर विकास के उच्चतम सोपान पर प्रतिष्ठित किया, जबकि हम यूरोपियन लोग इस वैज्ञानिक युग में २५०० वर्ष बाद भी उस वर्णमाला को गले लगाए हुए हैं, जिसे ग्रीकलोगों ने पुराने सेमेटिक लोगों से अपनाया था, जो हमारी भाषओं के समस्त ध्वनि-समुच्चय का प्रकाशन करने में असमर्थ है तथा ३ हजार साल पुराने अवैज्ञानिक स्वर- व्यंजन मिश्रण का बोझ अब भी हमारी पीठ पर है ।
कुछ समय पूर्व ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि ब्रिटिश ‘लाइब्रेरी का रिसर्च इंस्टीटयूशन लोगों से कुछ अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण आमंत्रित कर रहा है, क्योंकि रोमन लिपि के कारण शब्दों के उच्चारण में परिवर्तन आ रहा है। भिन्न-भिन्न लोग एक ही शब्द का उच्चारण अलग-अलग रूप में करते हैं। जैसे Garrage को Marriage के तर्ज पर बोला जाए या Mirage के तर्ज पर। eat का भूतकाल Ate हो या ett होगा किंतु नागरी में ऐसा नहीं है। यहां तो उच्चारण की व्यवस्था सुनिर्धारित और सुनिश्चित है ।
सूचना के इस युग में संचार माध्यमों पर हिंदी का प्रयोग तो बढ़ रहा है किंतु अनेक चैनलों पर शीर्षक रोमन में ही नजर आते हैं। ‘दूरदर्शन’ पहले देवनागरी में लिखा जाता था। अब वह ‘डी. डी. बन कर रह गया है। कहना न होगा कि संक्षिप्तीकरण के कारण हिंदी के मूल शब्द ही गायब होते जा रहें हैं। ‘मुख्यमंत्री’ को समाचार पत्र केवल ‘सीएम’ लिख देते हैं और प्रधानमंत्रीको ‘पीएम’ आदि । ऐसी परिपाटी से हिंदी सरल ना होकर दुरूह होती जा रही है और रोमन लिपि का प्रचलन बढ़ता नजर आता है, जो न तो हिंदी के हित में है और न ही राष्ट्र के हित में। यदि नई पीढी में यही प्रवृति रही तो निश्चय ही इसके घातक परिणाम होंगे ।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपना काम अंग्रेजी में शुरू किया किंतु बहुत जल्दी ही वे समझ गई कि भारत में यदि पांव जमाने हैं, लाभ कमाना है तो हिंदी को अपनाना पड़ेगा। तमाम विदेशी चैंनल धीरे- धीरे हिंदी में कार्यक्रम तथा फिल्में दिखाने पर विवश हो गए, हिंदी प्रेम के कारण नहीं, हिंदी की ताकत के कारण। अत: हिंदी एक अत्यंत समृद्ध, ताकतवर, वैज्ञानिक एवम् अंतराष्ट्रीय भाषा है, इसमें कोई सन्दह नहीं है। अस्तु!