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काव्य संग्रह

hindi articles, stories and books related to Kavya sangrah


दर्पण में हूं मैं

आज के उजाड़ मानवता की तरह

जहां से प्रेम

पहाड़ों के पीछे सर

कितने बदल चुके हैं

सिकुड़े हुए अंतरिक्ष में

मौन तिलक लगाकर

मेहराब से टूटता क

अपनी अप्रत्याशित उपस्थिति का

रतिकलांत देह लेकर

अनाहत गली के कोने से

जब सहसा

मेरी इच्छा होती है

देह के सुस्वाद अंधकार से

हरे मद की तरह

किसी नरम मुंगिया र

खोई हुई प्रतिध्वनि

तैरने लगे हैं तालाब में

बाढ़ में बहते झाड़ झंकार

छाती की

मैं अंतरिक्ष में भटक रहा हूं

पिंजरे में कैद मात्र एक शून्य की तरह

न कोई मेरा पूर्व

यह मैं हूं

ख़ामोश भीड़ के सामने चीखते हुए

सभी विलापो को दरकिनार करते

प्रतिरो

समय तब भी बरसता था

जब नहीं दिखे थे

अपनी आंखों का सूरज

और भूले बिसरे बीज

अभी नहीं है उनके पास

मंत्र मुग्ध कर देने की कला

कि स्त्री की औसत झल्लाहट

रोक

वापस कर दो


अगर बमुश्किल था

बगैर पशुओं के

बगैर झंडों के

मि

मानवी सुख की उस खोह में

फैलाए हुए हाथ की गर्मी को

नहीं पकड़ सका मैं

जैसे पार

आग जब सबकुछ जला देगी

कुछ तिलिस्म जिंदगी भर के वास्ते

धुंधला जाने के लिए

उम्म

जब खेतों की हरियाली

सावन को साथ लाने की

जिद लिए जी रहे हो

जब उम्मीदों की घास

बहुत क्षण ऐसे आये

जब आसमान में तने

ऐन सूरज के नीचे

गुम हो गई सारी पंक्तियां<

अपना कोई भी कदम

नये रूपों के सामने

कर्म और विचार के अंतराल में

अनुभव से उपजी

अनसुना


मेरे कंधे पर

श्मशान के रास्ते

झुल रहे हैं

और सभी ल

हो सकता है

नदी और आकाश के प्रसंग में

कहीं भी नहीं ठहरती हो

हमारी प्रार्थनाएं

हमने समय की कूर्रता देखी

देखी आदमी की गति

समय के गति से भागते हुए


<

तुम सुनो उतना ही

जितना मैं देखती हूं

अवसन्न हवा में

सोचो की आहटे

कब ज

बहुत देख चुका

शहरों का शोरगुल

जीवन के प्रतिरोध


जब दृश्य की ऊंचाई

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